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Life Expectancy : दलितों-आदिवासियों से 4 से 6 साल ज्यादा जीते हैं उच्च जाति के लोग, रिपोर्ट में खुलासा

Janjwar Desk
23 April 2022 3:50 AM GMT
Life Expectancy : दलितों-आदिवासियों से 4 से 6 साल ज्यादा जीते हैं उच्च जाति के लोग, रिपोर्ट में खुलासा
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Life Expectancy : विभिन्न सामाजिक समूहों में बीच जीवन प्रत्याशा दर में अंतर की वजह आर्थिक समृद्धि और कम उम्र में मृत्यु न होकर सामाजिक सोच है।

नई दिल्ली। भारत में रहने वाले में विभिन्न जातीय समूहों के बीच जीवन प्रत्याशा दर आर्थिक समृद्धि से तय न होकर सामाजिक स्तरीकरण से तय होता है। इस बात का खुलासा एक अध्ययन में हुआ है। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक उच्च जाति की महिलाएं और पुरुष दलितों-आदिवासियों यानि एससी और एसटी की तुलना में चार से छह साल ज्यादा जीवन जीते हैं।

हालांकि, पिछले कुछ वर्षों के दौरान जीवन प्रत्याशा दर सभी समुदायों में बढ़ा है जो चौकाने वाला है। सामाजिक स्तरीकरण के लिहाज से औसत जीवन प्रत्याशा दर में सबसे खराब स्थिति 1997 से 2000 और 2013 से 16 के बीच रही है।

4.6 से 6.1 साल जीवन प्रत्याशा दर में अंतर

जर्नल पापुलेशन एंड डेवलपमेंट रिव्यू में प्रकाशित खबर के मुताबिक जीवन प्रत्याश दर में अंतर उच्च जाति के लोगों और एससी और एसटी में बीच में 4.6 से 6.1 साल के करीब है। यह गैप उच्च जाति और मुसलमानों के बीच तेजी से बढ़ता जा रहा है। दोनों बीच यह अंतर 0.3 साल से लेकर 2.6 बढ़ गया है। इसी अवधि के दौरान महिलाओं की बात करें तो यह अंतर 2.1 से 2.8 साल है। इस बात का खुलाला नेशनल फैमिली एंड हेल्थ्स सर्वें में हुआ है।

पुरुषों के बीच लाइफ एक्सपेक्टेंसी में अंतर ज्यादा गंभीर

एक शुभ संकेत यह है कि उच्च और निम्न जाति की महिलाओं के बीच जीवन प्रत्याशा दर में पहले की तुलना में अंतर में आंशिक कमी आई है। लेकिन एससी, मुसलमान और ओबीसी पुरुषों की उच्च जातियों के पुरुषों की तुलना करें तो स्थिति पहले से ज्यादा खराब हुई है। जबकि एसटी पुरुषों में गैप 8.4 वर्ष कम हुआ है लेकिन अभी भी सात साल का अंतर बरकरार है।

सामाजिक विभेद की सोच अहम वजह

एनएफएचएस के सर्वे में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि यह गैप जन्म के समय और उसके बाद जीवन के विभिन्न चरणों में भी देखने को मिला है। एक अन्य अध्ययन में बताया गया है कि हम समान सामाजिक समुदायों की आर्थिक समृद्ध के आधार पर इसका आकलन करते हैं तो भी यह अंतर दिखाई देता है। यानि जीवन प्रत्याशा में यह अंतर के पीछे शिशु और बाल मृत्यु दर और आर्थिक कारक जिम्मेदार न होकर सामाजिक स्तरीकरण की हमारी पुरानी सोच है।

यह गैप 15 और 60 के उम्र में स्तर पर भी है। सर्वें में इस बात का भी पता चला है कि वयस्क आयु में मृत्यु दर 1997 से 2000 और 2013 से 16 के दौरान ज्यादा देखने का मिला। 2013—16 की बात करें तो जीवन प्रत्याश डिफिसिट 1.7 फीसदी एससी महिलाओं में और 2.5 फीसदी एससी पुरुषों में था। 0 से पांच आयु वर्ग में यह अंतर 1.2 साल का। ऐसा ही अंतर अंतर एसटी और उच्च वर्ग के लोगों के बीच भी देखने को मिला है।

उत्तर-पूर्व भारत में एसटी की स्थिति उच्च जातियों से बेहतर

हिंदी भाषी क्षेत्र की बात करें तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ जहां कि भारत की 55 फीसदी आबादी रहती है, में जीवन प्रत्याशा सभी समुदायों में कम है। केवल उत्तर पूर्व एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जहां पर जीवन प्रत्याशा दर एसटी की उच्च जातियों की तुलना में ज्यादा है। यहां पर भी 1997 से 2000 के बीच मुसलमानों की स्थिति सवर्णों से नीचे है। यह गैप 2013 से 16 के दौरान बढ़ा है। मुसलमानों में शिशु मृत्यु दर वर्ग के लोगों की तुलना में कम है। एनएफएचएस के मुताबिक सामाजिक विभेद ग्लोबल हेल्थ विभेद की तुलना इंडिया में ज्यादा है। अगर दो और तीन समुदायों को एक साथ क्लब करने पर असमानता और बढ़ जाता है।

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