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जनज्वार विशेष

कमाई ​कला के दलालों के हिस्से और बेगारी आर्टिस्टों के

Janjwar Team
31 May 2017 12:52 PM GMT
कमाई ​कला के दलालों के हिस्से और बेगारी आर्टिस्टों के
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विश्व थियेटर दिवस पर विशेष
कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाये तो सार्थक और मूल्यवान रंगमंच कभी भी अनुदान पर निर्भर होकर नहीं हुआ है। इन अपवादों की भी छानबीन करें तो हमें पता चलता है कि जिन रंगकर्मियों ने अनुदान लेकर बेहतर नाटक किये वे अनुदान के बिना भी बेहतर थियेटर करने की क़ाबिलियत रखते रहे हैं...
राजेश चंद्र
हबीब तनवीर अनुदान लेते थे, पर उनका थियेटर अनुदान की वजह से नहीं था। पोंगा पंडित जैसे नाटक अनुदान के बग़ैर भी उसी प्रभावशीलता के साथ हो सकते हैं, जिस तरह अनुदान लेकर। पर ज़्यादातर अनुदानकर्मी रंगकर्मी करते क्या हैं? 5-5 लाख लेकर दो कौड़ी के नाटक नहीं करते।
कुछ ठेके पर नाटक का मंचन करवा लेते हैं। कुछ पुराने नाटक को दुहरा कर काम चला लेते हैं। कुछ नाटक ही नहीं करते, पूरा हजम कर जाते हैं। कुछ बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं। यानी कुछ नाटक में भी लगा दो और कुछ अपने लिये भी रख लो। यह अनुपात रंगकर्मी में बचे ज़मीर का समानुपाती हुआ करता है, जो वैसे भी सैकड़ों में से किसी एक में मिलता है।
यह हाल तो प्रस्तुति अनुदान का है, पर अगर सैलरी ग्रांट या वेतन अनुदान की बात करें, जिसके अंतर्गत देश में सैकड़ों निर्देशकों को प्रतिवर्ष 10 से 25 लाख रुपये सरकार देती है, उसकी लूट का पैमाना व्यापम जैसे किसी भी महाघोटाले से छोटा नहीं होगा। यह अनुदान अभिनेताओं के वेतन के लिये है, पर उसका 60-70 फीसदी, और कहीं-कहीं तो 90 फीसदी हिस्सा रंगमंडल संचालक या निर्देशक हजम कर जाते हैं।
अभिनेताओं की हैसियत ज़्यादातर रंगमंडलों में दास या बेग़ार खटने वाले मज़दूर से अधिक नहीं होती। देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आने वाले इन रंगमंडलों का, जिनमें से ज्यादातर केवल काग़ज पर हैं, आपसी नेटवर्क इतना मज़बूत है कि इस गोरखधंधे का विरोध करने वाले अभिनेता को फिर कभी किसी रंगमंडल में काम नहीं मिलता। सी.ए. से फर्जी प्रमाणपत्र बनवा कर, तस्वीरें भेज कर और मंत्रालय के बाबुओं को खुश कर अनुदान हड़प लिये जाते हैं।
मंत्रालयों में पैठ रखने वाले ताक़तवर रंगकर्मियों ने अलग-अलग लोगों के नाम से कई-कई रंगमंडल बना रखे हैं और वे नये रंगमंडलों के लिये ग्रांट पास करवाने के बदले भरपूर कमीशन भी खा रहे हैं। ऐसे सफेदपोश रंगकर्मी आज सभी राज्यों में कमीशन एजेन्ट का काम कर रहे हैं।
थियेटर में ग्रांट के वितरण और प्रबंध के लिये सरकार ने एनएसडी को नोडल एजेन्सी बना रखा है। थियेटर में बहने वाली भ्रष्टाचार और लूट की महागंगा की गंगोत्री यही ब्राह्मणवादी संस्था है।एनएसडी आज नाटक करने की, कथ्य समझने की तमीज़ नहीं सिखाती, वह उन्हें कुछ ट्रिक्स और फारमूले सिखा देती है, पांच लाख-दस लाख के अनुदान को खपाना सिखाती है, गलत-सही बिल बनाना और प्रोजेक्ट प्रपोज़ल बनाना सिखाती है, ताकि अनुदान के लिये फ़ाइट करने लायक नाटक उसके प्रशिक्षित लोग किसी प्रकार कर लें। एनएसडी प्रशिक्षण के नाम पर आज देश को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं करती। इस पर कभी और बात होगी।
आज थियेटर में अनुदान बंद हो जाये तो 80 फीसदी रंगकर्मी रंगकर्म छोड़ देंगे। अनुदान अपने साथ एक संस्कृति भी लेकर आता है, भ्रष्टाचार, समझौतापरस्ती, अवसरवाद और लोलुपता की! रंगकर्मी एक बार समझौतापरस्त और बेईमान हो गया तो फिर वह रंगकर्मी कहां रह गया! जब आप अनुदान की पात्रता के हिसाब से अपने रंगकर्म का स्वरूप निर्धारित करते हैं, कथ्य और शैली चुनते हैं, तो फिर कथ्य और नीयत और क्वालिटी तो पहले ही संदिग्ध हो जाती है। अगली बार के अनुदान की फिक़्र तो और जानलेवा होती है।
विकास परियोजनाओं के नाम पर देश भर के आदिवासी और दलित विस्थापित हो रहे हैं, उजाड़े जा रहे हैं, उनके जल, जंगल, ज़मीन और संस्कृति की जैसी भयावह तबाही रची जा रही है, वह रंगमंच से क्यों गायब है? बस्तर और दन्तेवाड़ा जैसी जगहों पर, मणिपुर में, असम में, कश्मीर में मानव अधिकारों को बर्बर तरीके से कुचला जा रहा है, वह हमारे नाटकों का विषय क्यों नहीं है? कभी अखलाक, कभी पानसरे, कभी कलबुर्गी और कभी किरवले। रोज़ समाज के सोचने समझने वाले, हाशिये पर जीने वाले लोग मारे जा रहे हैं, दलितों की बस्तियां जलायी जा रहीं हैं, उनको आत्महत्या के लिये मजबूर किया जा रहा है, नंगा कर घुमाया जा रहा है, ये हमारे नाटकों में क्यों नहीं आता? किसानों की इतने बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्याएं रंगमंच में क्यों जगह नहीं पातीं?
इन सवालों का अकेला जवाब यही है कि अनुदान लेकर आप इन मुद्दों पर सवाल नहीं उठा सकते। आपको अनुदान और पुरस्कार मिलता ही इसीलिये है कि आप यह सब नाटक और रंगमंच में नहीं आने दें। जनता के सामने व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते आप अनुदान लेकर। अनुदान सरकार इसी मकसद से देती है। लोग यह मकसद आगे बढ़ कर पूरा कर रहे हैं।
अनुदान-विमर्श आज रंगमंच का सबसे अपरिहार्य और प्राथमिक सरोकार बन गया है! सारी मेधा और प्रतिबद्धता इसी जोड़-तोड़ और बचाव में चुक रही है! इससे पता चलता है कि हम जिसे रंगकर्म मान रहे हैं उस मान्यता और समझ में ही बहुत भारी लोचा उत्पन्न हो गया है! अगर रंगमंच को, उसकी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को, उसके गौरवशाली इतिहास को बचाना है तो रंगकर्म को सरकारी बैसाखी से मुक्त करना अपरिहार्य हो गया है। इस दिशा में संगठित होना आज एक बड़ा कार्यभार है।
एनएसडी आज तमाम संसाधनों पर वर्चस्व और एकाधिकार की वजह से केन्द्र में नहीं है! वह श्रेष्ठ और विशिष्ट थी, तभी रंगमंच के सारे संसाधन और शक्तियां उसके पास हैं! एनएसडी के स्नातक श्रेष्ठ और विशिष्ट होते हैं, इसीलिये उनका सारे संसाधनों और अवसरों पर पहला और नैसर्गिक अधिकार है! यह सोच क्या वैसी नहीं है कि ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ होते हैं, इसलिये उन्हें शेष समाज पर वर्चस्व और नियंत्रण का नैसर्गिक और दैवीय अधिकार है! जैसे अंग्रेज हमसे श्रेष्ठ और महान थे, इसलिये हम पर अपना शासन और अन्याय-उत्पीड़न थोपना उनका विशेष और नैसर्गिक अधिकार था!
जिस प्रकार हिटलर के जन्मजात महान और श्रेष्ठ लोग दुनिया पर शासन करने निकल पड़े, उसी प्रकार जन्म से ही श्रेष्ठ और विशिष्ट संस्थान एनएसडी के श्रेष्ठ और विशिष्ट स्नातक भारतीय रंगमंच को विजित करने निकल पड़े! सारे संसाधनों पर, सारे ग्रांट पर, सारी कमिटियों पर, सारे पुरस्कारों पर, सारे महोत्सवों पर, सभी संस्थानों पर एकाधिकार करने और थियेटर को अपने अनुसार हांकने का उन्हें महान, विशिष्ट, जन्मजात और दैवीय अधिकार प्राप्त है!
(राजेश चंद्र वरिष्ठ रंग समीक्षक। कई नाटक लिख और निर्देशित कर चुके हैं।)

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