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संस्कृति

गर्म हवा जैसी फ़िल्में रोज नहीं बना करतीं...

Janjwar Team
10 Jun 2017 3:46 PM GMT
गर्म हवा जैसी फ़िल्में रोज नहीं बना करतीं...
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'गर्म हवा’ के निर्देशक एमएस सथ्यू से पवन मेराज की बातचीत

यूं तो सआदत हसन मंटो, इसमत चुगताई, भीष्म साहनी और राही मसूम रज़ा जैसे कई लेखकों ने विभाजन की त्रासदपूर्ण पीड़ा का बयान अपने दस्तावेजों में किया और इस विषय पर बहुत सी फिल्में भी बनीं। मगर ’गर्म हवा’ और ’तमस’ का अपना अलग महत्व है। ’गर्म हवा’ इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पहली फिल्म थी जिसने बंटवारे के ध्वंस के बाद छायी कथित शान्ति की पड़ताल की। एक चीखती चुप्पी जिसमें घुटता हुआ आदमी समाज ही नहीं खुद से भी बिलग हो कर अपनी पहचान तलाशता है। अपने सकारात्मक अंत के अलावा इस फिल्म का एक ऐतिहासिक महत्व यह भी है कि यह बलराज साहनी द्वारा अभिनीत अन्तिम फिल्म थी। साहनी जी का अभिनय और एमएस सथ्यू के सधे हुए निर्देशन का कमाल है ’गर्म हवा’। यह फिल्म न सिर्फ कान फेस्टिबल में दिखायी गयी बल्कि आस्कर के लिए भी नामांकित हुई थी...

सत्तर के दशक में रिलीज हुई फिल्म गर्म हवा कि आज के दौर क्या प्रासंगिकता है?

कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती हैं जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म, जाति और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाईयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

ऐसे समय में कला की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है?

समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी है। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिए होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।

लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को सामने लाता है,फिर समानान्तर सिनेमा इससे अलग कैसे?

वे फिल्मों के जरिये बुनियादी तौर पर पैसा बनाते हैं। उनके लिए समस्याएं भी बिकाऊं माल है। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक को बेचते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति सरोकार और समानान्तर सिनेमा को बनाने का तरीका ही इसे व्यवसायिक सिनेमा से अलग करता है।

अपने तरीके (ट्रीटमेन्ट) में ’गर्म हवा’ कैसे अलग है?

पहली बात तो यह कि हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिए यह फिल्म बन पायी। पूरी फिल्म इसमत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पत्र राजेन्द्र बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेपुर सीकरी में शूट की गयी और इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है।
आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है क्योंकि आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शुटिंग विदेश में...(हंसते हैं।) शादियां तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियां पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिए कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेन्ट द्वारा ही यह संभव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।

बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिए भी चुनौती रही होगी?

वे सब थियेटर के मजे हुए कलाकार थे, जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी। यहाँ तक यह भी कि कितने कदम चलना है और कब घूमना है .रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है इसलिए कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आयी।

इस फिल्म में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आंखों से कोई आंसू नहीं गिरता, यह अस्वाभाविक नहीं था?

असल में बलराज जी की जिन्दगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी और बलराज उस समय शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियां चढ़ीं थी जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वही घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिए मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है। बलराज समझ गये थे और उन्होंने जो किया वो आपके सामने है।

लेकिन इस फिल्म का अन्त बहुत सकारात्मक था?

दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था और उन्होंने ही इस तरह के अन्त को सुझाया। दो बीघा जमीन,गर्म हवा और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वे कम्यूनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे।

फिल्म रिलीज होने के बाद खुद बलराज जी की क्या प्रतिक्रिया थी ?

दुर्भाग्य से फिल्म रिलीज होने तक जिन्दा नहीं रहे। फिल्म के अन्त में वे कहते कि मैं इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं,वही उनके अभिनय जीवन का भी अन्तिम शाट था।

आपने अभी बताया कि बलराज साहनी कम्यूनिस्ट पार्टी के मेंबर थे। क्या आप मानते हैं कि एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका होना जरूरी है?

जी हां बिलकुल!कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक सरोकार होता है जो उसकी कला में दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।

कला समाज को प्रभावित करती है, समाज कला को किस तरह प्रभावित करता है?

मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तात्कालिक प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराईयां जिन्हें हम लम्बे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं,एक कलाकार उन्हें अपनी कला के जरिए समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने पर मजबूर कर देता है।

सत्तर के दशक में वामपंथी राजनीति के उभार से कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, इप्टा जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नज़र आता है,ऐसा क्यों?

जहां तक आंदोलन का सवाल है तो इसने हमें एक बेहतर दुनिया का सपना दिया। हम सब इससे प्रभावित थे। मैंने पहले भी कहा आन्दोलन से जुड़े होने के कारण ही हम लोग ’गर्म हवा’ बना सके। लेकिन यह ग्लोबलाईजेशन का दौर है और हम बदलती परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नया नहीं बना सके, इसीलिए ऐसा हुआ। माक्र्स ने भी कहा था कि यह परिवर्तन का दर्शन है। हमें इस तरफ भी सोचना होगा।

लेकिन आज आन्दोलन की हर धारा इस पर विचार कर रही है और नेपाल में माओवादियों का प्रयोग आपके सामने है?

हां,वहां कुछ बातें अच्छी हैं। आजकल के जमाने में कई लोग माओवादियों को वामपंथ विरोधी मानते हैं। ऐसा करने वालों में वामपंथी भी शामिल हैं। हालांकि नेपाल में मोओवादियों ने अच्छा उदाहरण पेश किया है।

आपको नहीं लगता कि ’गर्म हवा’ जैसी फिल्में एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं?

जैसे साहित्य में घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है,उसी तरह फिल्मों में भी है। मल्टीप्लेक्स में वेलकम जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्में नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिए आंखें होनी चाहिए। इसकी ट्रेनिंग शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिए।

समानान्तर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियां हैं?

फिल्म बनाना एक महंगा काम है और इसके लिए प्रायोजक कीजरूरत होती है। जैसे लगान की चर्चा आस्कर नामांकन में जाने की वजह से भी बहुत हुई लेकिन इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूंक दिये जिसमें नई फिल्म बन सकती थी।

मजे की बात यह है कि लगान के पास आस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ’गर्म हवा’ को आज से 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फिल्म फेस्टिबल में भी दिखाई गयी और तब आस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे आस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हां फिल्म मैंने जरूर भेज दी थी जिसका प्रमाण पत्र मेरे पास आज भी पड़ा है।

क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनने की प्रक्रिया में भी बाधा डाली?

फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं पैशन से भी बनती हैं, लेकिन पैसा भी चाहिए। उस जमाने में 2.50 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउण्ड रिकार्डिंग के भी पैसे नहीं थे। हम लोग आगरा और सीकरी में शूटिंग कर रहे थे। साउण्ड रिकार्डिंग का सामान बम्बई से आता था और उसके साथ एक आदमी थी।

इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे अन्नतः सारी शूटिंग बिना साउण्ड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बम्बई जा कर डब की गयी। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया पूरी फिल्म तैयार होने में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका। मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।

इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएं आयीं?

रिलीज के लिए सेंसर सर्टीफिकेट नहीं मिला एक साल की जद्दोजहद के बाद इन्दिरा जी ने खुद पूरी फिल्म देखीं और कहा रिलीज कर दो,लेकिन यूपी में नहीं (मुस्कुराते हैं)। वहां चुनाव होने वाले थे। इस तरह की तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।

आज रंगमंच में भी काफी सक्रिय रहे फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अन्तर पाते हैं?

अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं। कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।

आपकी दूसरी फिल्मों को ’गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली?

’गर्म हवा’ जैसी फिल्में कोई रोज नहीं बना सकता। ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।

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