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विमर्श

पुलिस और जांच एजेंसियों की ड्यूटी बनती जा रही भाजपा की वफादारी

Janjwar Team
7 Jun 2017 5:06 AM GMT
पुलिस और जांच एजेंसियों की ड्यूटी बनती जा रही भाजपा की वफादारी
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न पीपी पांडे जैसे पुलिस अफसर आसमान से टपकते हैं और न अमित शाह जैसे उनके राजनीतिक पैरोकार. उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने ठीक ही समाजवादी सरकार पर पुलिस थानों को पार्टी दफ्तरों के रूप में चलाने का आरोप लगाया था...

विकास नारायण राय, पूर्व आइपीएस

सर्वोच्च न्यायालय में जूलियस रिबेरो की याचिका पर गुजरात के विवादास्पद डीजीपी पीपी पांडे को पद छोड़ना पड़ा और डीजीपी के पद पर सरकार को आनन-फानन में गीता जोहरी को बैठाना पड़ा. ऐसे में सवाल पूछा जा सकता है कि एक बदनाम हत्यारोपी पुलिस अफसर को, योग्यता और वरिष्ठता के मानदंडों को दरकिनार कर, राज्य पुलिस का मुखिया बनाने के पीछे क्या राजनीतिक सन्देश छिपा हुआ था.

पांडे, अमित शाह के मोदी शासन में गुजरात के गृह राज्य मंत्री दौर में काफी समय तक राजनीतिक पुलिस मुठभेड़ों के लिए कुख्यात पुलिस अफसर वंजारा के वरिष्ठ रहे. बाद में इशरत जहान जैसे फर्जी मुठभेड़ कांडों में वे वंजारा के साथ गिरफ्तार किये गये और लम्बी जद्दोजहद के बाद जमानत मिलने पर कार्यवाहक डीजीपी बना दिए गये. जगजाहिर है कि आज तक भी गुजरात में शीर्ष पदों पर नियुक्तियां अमित शाह की मार्फत होती हैं. यानी प्रधानमंत्री मोदी की सुविधा को ध्यान में रखते हुए . पांडे को भी इस समीकरण के तहत ही डीजीपी बनाकर पुरस्कृत किया गया.

मोदी-शाह की जोड़ी चाहती तो पांडे की हिंदुत्व के एजेंडे पर जेल जाने की भरपाई और तरह से भी कर सकती थी. पांडे के जमानत पर छूटने तक मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे और शाह काबिज थे भाजपा के शक्तिमान अध्यक्ष के पद पर. उन्होंने यदि पांडे को तब भी राज्य पुलिस का मुखिया ही बनाना तय किया तो इस तरह वे अपने वफादारों के लिए दो संदेश दे रहे थे. पहला यह कि वे अपने वफादारों की सेवाओं को पुरस्कृत करना कभी नहीं भूलते, हालाँकि यह संदेश पांडे को सूचना आयुक्त या निगरानी आयुक्त या लोक सेवा आयोग में पदस्थापित कर भी दिया जा सकता था. लिहाजा,इस सन्दर्भ में मोदी-शाह का दूसरा सन्देश ज्यादा महत्वपूर्ण था. अंधवफादारी के आगे वरिष्ठता, योग्यता या नेकनामी का कोई महत्व नहीं है.

केंद्र में सत्ता मिलने के बाद से मोदी-शाह को कहीं बड़े गेम खेलने पड़े हैं. गुजरात प्रकरणों में कांग्रेस ने भी सीबीआई की मार्फत शाह को जेल में रखा था और मोदी के पसीने छुड़ा दिए थे. दरअसल, यूपीए दो के दौर में मनमोहन सरकार को सत्ता में रखने में सीबीआई की बड़ी भूमिका रही- मायावती और मुलायम को जब-तब जेल का डर दिखाकर और अपने शासन के तरह-तरह के स्कैम में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश वाली जांचों को मन मुताबिक निर्देशित कर.

इस दौर में कांग्रेस सरकार ने सीबीआई को एपी सिंह और रंजीत सिन्हा के रूप में सीबीआई इतिहास के दो सर्वाधिक ‘लचीले’ डायरेक्टर दिए। फिलहाल,सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से इन दोनों के भ्रष्ट आचरण की जांच स्वयं सीबीआई को ही करनी पड़ रही है. इसी क्रम में मोदी-शाह ने भी गुजरात के ही एक जूनियर पुलिस अफसर राकेश अस्थाना को सीबीआई का कार्यवाहक डायरेक्टर बनाकर रखा.

जाहिर है, पांडे जैसे ही इस ‘वफादार’ की मार्फत वे कांग्रेस से भी बढ़कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते रहे हों. सोचिये दांव पर कितना कुछ है कि यह सीनाजोरी तब की गयी जब भारत का मुख्य न्यायाधीश स्वयं सीबीआई का डायरेक्टर चुनने की समिति का हिस्सा होता है. अंततः उनका छद्म बहुत दिनों तक चला नहीं और सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद वरिष्ठता के आधार पर एक नया डायरेक्टर लगाना पड़ा.

‘वफादारी’ का यह खेल उन्हें बेशक कांग्रेस ने सिखाया हो पर मोदी-शाह के तौर-तरीके कहीं अधिक निरंकुश हैं. उन्होंने सीबीआई के अलावा एकमात्र अन्य केन्द्रीय जांच एजेंसी एनआइए को भी पूरी तरह अपनी जकड़ में ले लिया है. कांग्रेस राज में एनआइएनेमालेगांव,समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद,अजमेर शरीफ जैसे आतंकी मामलों में भगवा आतंक का हाथ सिद्ध किया था और तदनुसार संघ के असीमानंद और साध्वी प्रज्ञा समेत कई सदस्यों का अदालतों में चालान भी हुआ.

केंद्र में मोदी सरकार बनते ही इन मुकदमों में अभियोजन के गवाहों को तोड़ने, संघी अभियुक्तों को जमानत दिलाने और उन्हें डिस्चार्ज कराने व बरी कराने का जिम्मा एनआइए के डायरेक्टर शरद कुमार ने उठा लिया. तब से असीमानंद अजमेर शरीफ मामले में बरी हो चुका है और प्रज्ञा को जमानत पर छोड़ने की अभूतपूर्व गुहार,जो स्वयं अभियोजक एजेंसी एनआइए कर चुकी है, अदालत ने ख़ारिज कर दी है. पुरस्कार स्वरूप शरद कुमार का सेवा काल दो वर्ष से लगातार बढ़ाया जा रहा है.

मोदी-शाह को इसी स्तर की वफादारी चाहिए और इसलिए अपनी राजनीतिक साख की कीमत पर भी वे पीपी पांडे को गुजरात का एंटी करप्शन ब्यूरो के निदेशक बनाने से नहीं रुके. सोचिये, इस तरह उन्होंने शरद कुमार और राकेश अस्थाना जैसे कितने ही भावी ‘वफादारों’ को आश्वस्त किया होगा.

न पांडे जैसे पुलिस अफसर आसमान से टपकते हैं और न अमित शाह जैसे उनके राजनीतिक पैरोकार. उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने ठीक ही समाजवादी सरकार पर पुलिस थानों को पार्टी दफ्तरों के रूप में चलाने का आरोप लगाया था. हालाँकि वे भूल गए कि गुजरात में स्वयं उनकी पार्टी भी पुलिस का व्यापक दुरुपयोग करती रही है. आज स्वयं केंद्र में सीबीआई और एनआइए अमित शाह के इशारे पर चलने वाली जांच एजेंसियां बनी हुयी हैं. गुजरात पुलिस का तो कहना ही क्या!

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