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समाज

पिता के ईलाज के लिए मजदूर ने लिया 30 हजार का कर्ज तो सूदखोर ने जिंदगी बना दी जहन्नुम

Prema Negi
19 March 2019 1:58 PM GMT
पिता के ईलाज के लिए मजदूर ने लिया 30 हजार का कर्ज तो सूदखोर ने  जिंदगी बना दी जहन्नुम
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वास्तविकता में जनता लोकतंत्र में कहीं नहीं होती, बस उसकी याद सत्ता को और सत्ता पर आँख गडाए लोगों को मतदान के दिनों में आती है

सूदखोरी के जाल में फंसा राजा कहता है जब से फाइनेंसर से पैसे लिए हैं, तभी से परेशानी है। पैसे लिए करीब डेढ़ साल हो चुका है, और अब तक 30 हजार का 54 हजार रुपए ब्याज दे चुके हैं, मगर मूल तो छोड़िये यहां अभी ब्याज भी चुकता नहीं हुआ है....

सूदखोर के जाल में फंसे रोहतक के गरीब कारीगर की तकलीफ साझा करती राजकुमार तर्कशील की रिपोर्ट

हरियाणा। राजा को जानते हो? शायद हम नहीं जानते, यह कोई जानी मानी या नामचीन हस्ती का नाम नहीं है! यह आम आदमी है, जो रोहतक शहर में चांदी की पायल बनाते हैं, एक कारीगर हैं!

मैं उनसे अक्सर मिलता रहता हूं। काफी दिनों से वह परेशान निराश चल रहा था। मुझे भी लगा की वह परेशान है। जब मैंने उनसे परेशानी का कारण पूछना चाहा तो उसने कुछ नहीं बताया।

काफी देर बात करने और कुरेदने पर जो उसने बताया उसे सुनकर मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। 30000 कर्ज का वह अब तक 54 हजार रुपया ब्याज डेढ़ साल में भर चुका है, मगर मूल अभी भी शेष है।

सूदखोरों में फंसने की यह कहानी अकेले राजा की नहीं है, यहां का हर गरीब, मजदूर राजा की तरह फाइनेंसरों के जाल में फंसने को मजबूर है।

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राजा बताता है, उसकी परेशानी की वजह फाइनेंसर से लिया गया कर्ज है और यह कर्ज उसने अपने पिता की बीमारी में लिया था। उनके इलाज के लिए मजबूरी में उसने कर्ज उठाया था।

कितने पैसे कर्ज लिए थे? पूछने पर राजा ने बताया कि तीस हजार रुपए लिये थे। ये रकम तो आप इधर उधर से भी जुटा सकते थे? पूछने पर राजा रुआंसा होकर कहते हैं, भाई हम परदेसियों को कौन पैसा देगा। मैंने सबके आगे हाथ फैलाए, लेकिन सब इंकार करते गए!

अपनी परेशानी साझा करते हुए राजा ने कहा, जब से पैसे लिए हैं, तभी से परेशानी है। पैसे लिए करीब डेढ़ साल हो चुका है, मूल को छोड़िये यहां तो ब्याज भी नहीं चुकाया जाता।

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लगा शायद 500-600 रुपए महीना ही बनता होगा, तो इसमे परेशानी वाली कौनसी बात है! लेकिन उसका जवाब स्तब्ध करने वाला था। उसने कहा, कोई ढाई तीन रुपए सैकड़ा नहीं पूरे दस रुपए सैकड़ा के हिसाब से 3000 रुपये महीना ब्याज देता हूं। डेढ साल में 54000 रुपए ब्याज के जा चुके हैं और उसका मूल यानी 30000 रुपए तो बकाया हैं।

अपनी तकलीफ साझा करते हुए राजा रोने लगा। निशब्द हो गया, वह कह रहा था कि यहां पर जो जितना गरीब होगा, जितना मजबूर होगा, उसको उतना ही ज्यादा ब्याज चुकाना पडेगा, सबकुछ नीलाम करवा देने के बाद भी फाइनेंसरों का कर्जा नहीं उतरेगा। यहां पर हर रोज के हिसाब से ब्याज लगता है। अगर फाइनेंसर से 100 रुपये भी ले लिये जांए, तो 10 रुपए प्रतिदिन का ब्याज देना पड़ता है, यहां कौन इनका शिकार नहीं रिक्शा वाले, रेहड़ी लगाने वाले, फेरी लगाने वाले, फल बेचने वाले, दिहाड़ीदार मजदूर, दुकानदार सभी फाइनेंसरों के जाल में फंसे हुए हैं।

राजा बता है, साहब लगता है ताउम्र ये कर्जा उतरेगा ही नहीं। अगले वर्ष बेटी का स्कूल से नाम कटवाना पडेगा या बेटे का।

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उसकी बात सुनकर मुंशी प्रेमचंद की कहानी गोदान याद आ गई, गोदान ही क्यों गुलामी, दो बीघा जमीन, साहूकारों के जुल्म सब आंखों के सामने तैरने लगे, जो आज जिंदा हैं।

सवाल उठता है कि क्या भारत ने सूदखोरी का उन्मूलन कर दिया है? बैंक छोटे व्यवसायी या गरीब के लिए क्यों उपलब्ध नहीं, सूदखोरी के फलने फूलने और बदलने के क्या मायने हैं?

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भारत की आज जनता आज सिर्फ हिंदू, मुसलमान, गाय, गोबर में उलझी हुई है। मगर दूसरी तरफ न जाने कितने राजा हैं, जिनके चेहरों की मुस्कान, प्यार, खुशी सत्ता प्रायोजित सूदखोरों द्वारा छीन ली गई है?

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