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विमर्श

आज का आंदोलन दलितों, शूद्रों और अल्पसंख्यकों के उभार की नई बयार

Janjwar Team
2 April 2018 9:36 PM GMT
आज का आंदोलन दलितों, शूद्रों और अल्पसंख्यकों के उभार की नई बयार
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भारत की विचित्र कहानी यह है कि यह दुनिया में एकमात्र ऐसा अभागा मुल्क है जहां दस प्रतिशत से कम सवर्ण द्विज अल्पजनों ने नब्बे प्रतिशत से अधिक बहुजनों ओबीसी, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों को नारकीय जीवन में फंसा रखा है...

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दो अप्रैल के भारत बंद की यह सफलता एक बड़ी घटना है। दलितों आदिवासियों के लिए बने ‘अत्याचार निवारण एक्ट’ की धार कम करने के विचित्र और बहुजन विरोधी निर्णय के प्रति यह जो असंतोष उभरा है इसके व्यापक सामाजिक राजनीतिक निहितार्थ हैं।

यह भारत बंद उम्मीद से कहीं अधिक सफल रहा है। अक्सर ही ओबीसी, दलितों, आदिवासियों और सिखों या मुसलमानों की वैध मांगों पर बुलाये गये भारत बंद या आन्दोलन इतने प्रभावी नहीं होते हैं। वहीँ किसी फिल्म या किताब के काल्पनिक या मिथकीय कथानक से उभरे मान अपमान के मुद्दों पर देश को जलाने वाले दंगेनुमा सवर्ण द्विज आन्दोलन खासे सफल होते देखे जाते हैं।

यह अंतर इस देश के सनातन दुर्भाग्य के बारे में बहुत कुछ बताता है।

दलितों बहुजनों द्वारा बुलाये गये भारत बंद की सफलता दलितों बहुजनों और वृहत्तर भारत के सबलीकरण की दिशा में एक निर्णायक संकेत है। सबसे महत्वपूर्ण बात यहाँ यह है कि यह आन्दोलन स्वतः स्फूर्त रहा है। कोई एक दलित बहुजन नेता या पार्टी ने इसे अंजाम नहीं दिया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि यह आन्दोलन भारत के हजारों साल से सताए गये दलितों शूद्रों और अल्पसंख्यकों की बदलाव की इच्छा का सामूहिक प्रतिनिध बनकर उभरा है। यह किसी भी लोकतंत्र के लिए एक अच्छा लक्षण है।

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भारत की विचित्र कहानी यह है कि यह दुनिया में एकमात्र ऐसा अभागा मुल्क है जहां दस प्रतिशत से कम सवर्ण द्विज अल्पजनों ने नब्बे प्रतिशत से अधिक बहुजनों (ओबीसी, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों) को नारकीय जीवन में फंसा रखा है। इन बहुजनों में बदलाव की पुकार जब-तब मचलती रही है लेकिन उसे एक सांगठनिक और रणनीतिगत आधार नहीं मिल सका है। ठीक से देखा जाए तो इसके मूल में जो वैचारिक आधार है वह भी बहुत हद समस्त बहुजनों में स्वीकृति नहीं पा सका है।

लेकिन दो अप्रैल की इस सफलता से जो समाजशास्त्रीय नक्शा उभर रहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में सभी वंचित तबकों में हालिया राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घटनाकृम के प्रति भारी असंतोष निर्मित हुआ है। सभी बहुजनों में यह प्रतीति तीव्र हुई है कि मौजूदा सरकार और बहुत हद तक इसके पहले वाली सरकारें भी बहुजन विरोधी ही रही हैं। इसीलिये अब बहुजन विचारधारा पर आधारित सामाजिक राजनीतिक आन्दोलन को निर्मित और खड़ा किया जाए।

इस भारत बंद की अभूतपूर्व सफलता यह भी बताती है कि बहुजन समाज का आम जनमानस अब किसी प्रचलित सी दलित ओबीसी या आदिवासी राजनीति पर निर्भर नहीं रहना चाहता है। इस तरह की राजनीति का और इससे जुड़े अवसरवाद और अनिश्चय का खामियाजा उठाते हुए ही बहुजन आज इस हालत में पहुंचे हैं जहां किसान आत्महत्या कर रहे हैं और युवा बेरोजगार घूम रहे हैं और शिक्षा व्यवस्था लगभग जमींदोज हो चुकी है। इस पर भी तुर्रा ये कि सवर्ण द्विज हिन्दू राजनीति धर्म और दंगों की आड़ में पूरे देश को पाषाण युग में घसीटकर ले जाने की तैयारी में है।

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द्विज हिन्दुओं की यह राजनीति और यह समाजनीति अब बहुजनों और अल्पसंख्यकों को समझ आ रही है। और उनकी इस समझ का रणनीतिगत प्रमाण और सफलता के चिन्ह भी सामने आ रहे हैं। मुसलमानों ने जहां सारे उकसावों के बावजूद एक अभूतपूर्व राजनीतिक समझदारी का परिचय दिया है वहीँ दलितों बहुजनों ने फूले अंबेडकर और लोहिया के आदर्शों पर एक नयी किस्म की समावेशी सामाजिक राजनीतिक रणनीति को आकार दिया है। इसकी सफलता अब सुनिश्चित है।

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