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शिक्षा

कहीं गुजरात में भी एक और जेएनयू न बन जाए

Janjwar Team
30 April 2018 12:36 PM GMT
कहीं गुजरात में भी एक और जेएनयू न बन जाए
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सरकार और छात्रों के टकराव के मामले दिल्ली से लेकर हैदराबाद, चेन्नई, इलाहाबाद और लखनऊ तक फैले हुए हैं। मोदी सरकार विश्वविद्यालयों से उठने वाले विरोध के स्वरों से आजिज है और हर कीमत पर इसे बंद करने और दबाने की भरसक कोशिश कर रही है...

अनुराग अनंत की रिपोर्ट

जब से केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी है वो देश के शीर्ष संस्थानों और विश्वविद्यालयों के छात्रों और शिक्षकों से उलझती रही हैं या यूं कहें छात्रों और शिक्षकों का संघ मोदी सरकार से उलझता रहा है। मोदी को संसद में भले ही कमजोर विपक्ष मिला हो पर विश्वविद्यालयों में एक संगठित और सशक्त विपक्ष का सामना मोदी सरकार को करना पड़ा है।

मामला चाहे आईआईटी मद्रास के आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल का हो या हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला, नॉन नेट फ़ेलोशिप बंद करने का फ़रमान हो, सीट कट-फण्ड कट का मुद्दा हो या फिर जेएनयू के कन्हैया कुमार का प्रकरण हो।

इस बार मामला मोदी के गुजरात का है
ताजा मामला गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय का है। जहाँ विश्वविद्यालय प्रशासन ने मानव संसाधन मंत्रालय के इशारे पर वहां के 9 शिक्षकों को “कारण बताओ नोटिस” जारी किया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ़ प्रचार किया।

उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी अल्पेश ठाकोर, दलित नेता जिग्नेश मेवानी और पाटीदार आन्दोलन के नेता हार्दिक पटेल का समर्थन किया और भाजपा के विरोध में कैम्पेन किया। प्रशासन ने कारण बताओ नोटिस, उस शिकायती पत्र के आधार पर जारी किया है, जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) के लेटर पैड पर जारी किया गया है और इस पर शिकायतकर्ता के नाम की जगह 'स्टूडेंट्स ऑफ़ एबीवीपी ऑफ़ सीयूजी' लिखा हुआ है। हालांकि इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के अनुसार जब प्रदेश स्तर के पदाधिकारियों से जब इसके बाबत पूछा गया तो उन्होंने इस प्रकार का पत्र भेजने से इनकार किया।

मानव संसाधन मंत्रालय ने रोहित वेमुला काण्ड से कोई सबक नहीं लिया
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उठे आन्दोलन, विरोध और जनदबाव के चलते सड़क से लेकर संसद तक लानत-मलानत और मज़म्मत झेल चुके मानव संसाधन मंत्रालय ने उस घटना से कोई सबक नहीं सीखा है। स्मृति इरानी को इसी प्रकरण से उभरे विरोध के बाद अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी और प्रकाश जावडेकर उनके बाद कुर्सी पर बैठाए गए थे, पर प्रकाश जावडेकर भी विश्वविद्यालय की स्वायत्ता के अतिक्रमण के मामले में स्मृति ईरानी की ही राह पर हैं।

दरअसल जिस शिकायती पत्र के हवाले से शिक्षकों को नोटिस जारी किया गया था। वो विश्वविद्यालय के कुलपति की जगह सीधा मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर को संबोधित किया गया था। जिसमें सबूत के तौर पर राहुल गाँधी के साथ अहमदाबाद में एक रैली की तस्वीर लगाई गयी थी। इसके अलावा दो और तस्वीरें थीं जिसमें एक में एक प्रोफेसर को राहुल गाँधी के साथ बैठे हैं और दूसरी तस्वीर में फैकल्टी मेंबर दिल्ली से आये शिक्षकों के प्रतिनिधि मंडल के साथ बैठे हुए हैं।

इस शिकायती पत्र पर 17 नवम्बर 2017 की तारीख पड़ी है, जबकि कांग्रेस की नवसृजन ज्ञान अधिकार सभा, 24 नवम्बर 2017 को आयोजित की गयी थी। कुछ भी हो लेकिन लगभग 6 महीने के बाद इस पर मानव संसाधन मंत्रालय के निर्देश पर कुलपति ने प्रोफेसरों को नोटिस जारी किया है।

कुलपति एस.ए. बारी ने कहा है कि विश्वविद्यालय ने मानव संसाधन मंत्रालय, गुजरात मुख्य चुने अधिकारी और राज्य शिक्षा विभाग के निर्देशों के तहत ही कार्य किया है। उन्होंने कहा चूंकि वो स्वयं शिक्षकों की तरफ से कोई जवाब नहीं दे सकते इसलिए उन्हें एबीवीपी द्वारा की गयी शिकायत के परिपेक्ष में “कारण बताओ नोटिस” जारी करना पड़ा।

शिक्षकों को बताया सेन्ट्रल सिविल सर्विस (कंडक्ट) रूल्स तोड़ने का दोषी
विश्वविद्यालय ने एक प्रोफेसर, एक एसोसिएट प्रोफेसर और सात असिस्टेंट प्रोफेसर को सेन्ट्रल सिविल सर्विस (कंडक्ट) रूल्स के नियम 5 अनुसार किसी राजनीतिक पार्टी का हिस्सा होने या किसी पार्टी के खिलाफ या समर्थन में प्रचार में भाग लेने का दोषी मान कर “कारण बताओ नोटिस” जारी किया है। पर शिक्षकों का मानना है कि वो जिस प्रोग्राम का हिस्सा बने थे वो गुजरात में शिक्षकों की समस्या पर केंदित था। वो कोई राजनितिक कार्यक्रम नहीं था और इस तरह के कार्यक्रम में भाग लेना किसी भी प्रकार से सेन्ट्रल सिविल सर्विस (कंडक्ट) रूल्स का उल्लंघन नहीं है। उस कार्यक्रम का ये मतलब कतई नहीं है कि वो कांग्रेस के लिए या बीजेपी के खिलाफ प्रचार कर रहे थे।

एबीवीपी, बीजेपी और संघ के पास नैतिक आधार ही नहीं ऐसी शिकायतें करने का
एबीवीपी, संघ और बीजेपी के पास इस शिक्षकों के खिलाफ इस तरह की शिकायत करने का कोई नैतिक आधार ही नहीं है, क्योंकि एबीवीपी में नेशनल प्रेसिडेंट और वाइस प्रेसिडेंट या स्टेट प्रेसिडेंट का पद शिक्षकों के पास ही रहता है। यहाँ तक कि एबीवीपी के मुख्य संगठक ही 1958 में प्रोफेसर यशवंत राव केलकर रहे हैं।

इस समय भी एबीवीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रोफेसर डॉ। सुब्भिया हैं जो डिपार्टमेंट ऑफ़ ऑन्कोलॉजी के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट हैं, किलपाउक मेडिकल कालेज, चेन्नई में। चाहे उनसे पूर्व हिमाचल यूनिवर्सिटी के डॉ। नागेश ठाकुर हों, जो हिमाचल यूनिवर्सिटी के फिजिक्स डिपार्टमेंट के शिक्षक हैं। ऐसे ही उदाहरण भरे पड़े हैं संघ, बीजेपी और एबीवीपी में। एबीवीपी के शिकायती पत्र में गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय उन सभी नौ शिक्षकों के राजनीतिक जुड़ाव और अतीत के बारे में जांच करने को कहा गया है। तो क्या सरकार इस बात की भी जांच करेगी कि देश के कितने विश्वविद्यालय में कौन—कौन शिक्षक और कुलपति संघ की साखाओं में जाते रहे हैं। एबीवीपी और बीजेपी से जुड़े रहे हैं। कौन कौन से कार्यक्रम में, किस किस तरह से शिरकत करते रहें हैं। आरएसएस भाजपा के लिए राजनीतिक जमीन बनाने, समर्थन जुटाने और चुनाव जितने में सहयोगी है ये बात कौन नहीं जानता।

बीएचयू के पुर्व कुलपति तो खुद को बड़े गर्व से संघ का स्वयंसेवक कहते थे। तो क्या ये राजनीति नहीं है। या फिर सिर्फ एक ख़ास तरीके की राजनीति पर ही लगाम लगेगी। नकेल कसी जाएगी।

एबीवीपी की इस समय के कार्यकारणी में कितने डॉ. साहेब लोग हैं इसका आप देख सकते हैं राष्ट्रीय उपाध्याक्ष्यों की सूची में
डॉ. धर्मेन्द्र कुमार साही (देहरादून उत्तराखंड)
डॉ. सी.एन. पटेल (मेहसाना, गुजरात)
डॉ. उमा श्रीवास्तव (गोरखपुर, उत्तरप्रदेश)
डॉ. उदय पालीवाल (उदयपुर, राजस्थान)
डॉ. बसंत कुमार (मैसूर, कर्नाटका)

तो क्या इन डॉ. साहेबो,, शिक्षकों की भी संघ और भाजपा के नेताओं के साथ की तस्वीरें इनके लिए “कारण बताओ” वाले फरमान का सबब बनेंगी? और क्या वाकई एबीवीपी के पास वो नैतिक मेरुदंड है जिसपर तानकर वो शिक्षकों को राजनीति से दूर रहने की बात कर सके, शिकायती स्वर बुलंद करे।

मसला गुजरात का “सीयूजी” नहीं दिल्ली का “जेएनयू”
दरअसल एबीवीपी द्वारा मानव संसाधन मंत्रालय को भेजे गए शिकायती पत्र में शिक्षकों द्वारा कांग्रेस के पक्ष में प्रचार करने से ज़्यादा गुजरात में एक और जेएनयू बनाए जाने की शिकायत की गयी है। शिकायत की गयी है कि ये शिक्षक गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय को दूसरा “जेएनयू” बना देना चाहते हैं। एबीवीपी आरोप लगता है कि पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर सी।आर। काले चूंकि जेएनयू से थे इसलिए उन्होंने ज्यादातर शिक्षक जेएनयू से वामपंथी विचारधारा के भर लिए हैं। एबीवीपी का आरोप है कि 10-15 शिक्षक हैं जो कैम्पस में कर्मचारियों और बच्चों को भ्रष्ट कर रहे हैं और विश्वविद्यालय के विकास में बाधा डाल रहें हैं।

तो कुल मिलाकर दिक्कत ये है कि बीजेपी और संघ का जैसा संगठित अकादमिक विपक्ष दिल्ली में है वैसा गुजरात की राजधानी गांधीनगर में नहीं पनपने देना चाहती एबीवीपी। एक विरोधी विचार को ध्वस्त करने के लिए सरकारी कदम है। विश्वविद्यालय की स्वायत्ता को लांघते हुए अपनी वैचारिक जरूरत के हिसाब से विश्वविद्यालय के कुलपति के विवेक को निर्देशित करके अपने मुफीद परिसर की राजनीति गढ़ना चाहते हैं।

जहाँ तक जेएनयू के शिक्षकों की ज्यादा भर्ती होने का सवाल है तो देश में सामाजिक विज्ञान की पढाई और शोध के लिए पूरे विश्व में जो संस्थान जाना जाता है वहां से ज़्यादा शिक्षक होना। बच्चों के भविष्य के साथ न्याय ही है। और दूसरी बात इस देश में सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में अगर अकेले जेएनयू के पढ़े-लिखे शिक्षकों का अनुपात देखें तो हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में ज्यादा ही पाया जाता है।

और तीसरी बात जेएनयू महज़ एक विश्वविद्यालय नहीं है, वो एक विचार है। और ये विचार संघ परिवार के विचार का धुर विरोधी है इसलिए भी जेएनयू के खिलाफ एक ख़ास तरह का प्रचार किया गया। जेएनयू को देशद्रोही सिद्ध कर दिया गया, जबकि अबतक दिल्ली पुलिस अपनी चार्जशीट भी नहीं जमा कर पाई है। एक आरोप लगने के बाद पहली न्यायिक प्रक्रिया है। जो भी पूरी नहीं हुई है। जबकि उसके बाद जिरह-बहस और ऊँची अदालतों में जाने और चुनौती देने के प्रक्रिया होती है न्याय के लिए और जांच के बाद वीडियो के साथ छेड़छाड़ की बात भी आई है।

तो आखिरी में आप जो ये रिपोर्ट पढ़ रहे हैं, बस इतना जान लीजिये कि ख़बर की ख़बर ये है कि संघ और बीजेपी को इस बात की ख़बर है कि विश्वविद्यालयों में वैचारिक लडाइयां जीते बिना इस देश के विमर्श को नहीं साधा जा सकता। इसीलिए वो प्रगतिशील और अपनी वैचारिक शत्रुओं के खिलाफ हर लड़ाई अंजाम तक पहुँचाना चाहते हैं। कभी नियम के नाम पर, कभी देश, कभी सेना तो कभी स्वदेशी नायकों के सम्मान के नाम पर। फिर चाहे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का अतिक्रमण करना पड़े या फिर बिना नाम के शिकायती पत्र के नाम पर विश्वविद्यालय प्रशासन के विवेक को निर्देशित करना पड़े। (इंडियन एक्सप्रेस से इनपुट के साथ।)

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