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संस्कृति

अलका सरावगी की कहानी 'एक पेड़ की मौत'

Prema Negi
27 Jan 2019 1:41 PM GMT
अलका सरावगी की कहानी एक पेड़ की मौत
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आज से करीब बीस साल पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अलका सरावगी हिंदी की प्रमुख कथाकारों से एक हैं। वह कृष्णा सोबती के बाद दूसरी लेखिका थीं जिन्हें यह पुरस्कार पाने का गौरव हासिल है। अपने पहले उपन्यास कलि कथा वाया बाईपास से साहित्य की दुनिया में सिक्का जमाने वाली अलका सरावगी किस्सागोई में सिद्धहस्त हैं।वह सहज सरल एवं प्रांजल भाषा में अपनी बात पाठकों तक पहुंचा देती हैं। इस बीच उनके कई उपन्यास और कहानी संग्रह आये। हर बार वह अपनी रचना से साहित्य को कुछ नया देती हैं। उनकी हर कृति का लोग बेसब्री से इंतेज़ार करते हैं। सौम्य एवं विनम्र व्यक्तित्व की धनी अलका सरावगी की कहानी 'एक पेड़ की मौत' केवल एक वृक्ष की कहानी नही है बल्कि इस कहानी के नायक की भी कहानी है। प्रकृति से मनुष्य का संबंध सदियों से है, लेकिन सभ्यता के विकास के क्रम में यह संबंध छिन्न भिन्न भी हुआ है। अलका जी ने एक कवि दृष्टि के साथ यह खूबसूरत कहानी लिखी है। वाकई एक पेड़ की मौत कितनी दर्दनाक घटना है, जिसकी तरफ हम बहुधा ध्यान भी नहीं देते। अलका जी ने इस कहानी में मनुष्य की इस संवेदनशीलता को बचाये रखा है।उन्होंने पेड़ के माध्यम से जो एक रूपक बनाया है, वह कहानी को एक नई अर्थवत्ता प्रदान करता है। आइये पढ़ते हैं अलका सरावगी की कहानी एक पेड़ की मौत —विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि

एक पेड़ की मौत

अलका सरावगी

कहानियाँ कई बार शीर्षक लगाकर ही पैदा होती हैं और चूँकि यह एक ऐसी ही कहानी है, इसके साथ यह खतरा जुड़ा हुआ है कि आप समझ लें कि आप इसे पहले ही भाँप सकते हैं और खारिज कर दें। यों भी पेड़–और वह भी कलकत्ता जैसे महानगर में तो मरते ही रहते हैं और किसे पड़ी है कि यहाँ–वहाँ सड़कों पर पेड़ों तले टूटे–फूटे बरतन–भाँड़ों के साथ गृहस्थी जमाए मरते–जीते लोगों के शहर में, एक पेड़ की मौत का मातम मनाए? लेकिन जिस व्यक्ति से हमने यह कथा सुनी, उसी की शैली में हम आपको कथा सुनाने से पहले ही यह बता देना चाहते हैं कि इस पेड़ की मौत में कुछ ऐसा है कि आप चकरा जाएँगे और कथा के अंत में जो सवाल आपसे पूछा जाएगा, उसका उत्तर आप जो भी देंगे, वह न सिर्फ आपको खुद अपने बारे में कुछ जानकारी दे जाएगा, बल्कि आपको इस शक में डाल देगा कि क्या आप पूरी तरह सही हैं?

जगन्नाथ बाबू हमारे पुराने पड़ोसी हैं और उन्हें कथाएँ–किस्से सुनाने का बेहद शौक है। उनमें खासियत है कि वे हर उम्र और हर किस्म के व्यक्ति को ऐसी कथा सुना सकते हैं कि वह ऊब ही नहीं सकता। शायद उनसे ज्यादा कोई यह बात नहीं जानता कि हर आदमी की पसंद की कहानी अलग होती है और कोई ऐसी कहानी नहीं हो सकती जो सबको पसंद आए।

जगन्नाथ बाबू के पास इतने कहानी–किस्से होना और उससे भी ज्यादा उन्हें सुनाने की ऐसी इच्छा होना–दोनों ही उन्हें जान लेने के बाद कोई अनोखी बातें नहीं हैं। एक तो जगन्नाथ बाबू ने आज तक छ: साल से ज्यादा कभी भी एक जगह नौकरी नहीं की है और पचास के पास पहुँचते–पहुँचते अब तक तीस–चालीस नौकरियाँ बदल चुके हैं। जिंदगी में इस तरह दफ्तर बदलनेवाले लोग एकाध नहीं तो, कम–से–कम दुर्लभ तो होते ही होंगे। जहाँ सारा जमाना इस फिराक में हो कि जैसे–तैसे–कैसे जूते खाकर भी एक जगह टिकने के फायदों को उठाकर जिंदगी को सहा जाए, वहीं जगन्नाथ बाबू का जब सुनो, तभी दफ्तर बदल जाता है।

कहते हैं कि शहर में उनका नाम है कि उनके जैसा मुनीम होना मुश्किल है; बड़े–बड़े ऑडिटर और एकाउंटेंट तक उनके आगे फेल हैं–किसी भी कंप्यूटर या कैलकुलेटर से जल्दी वे हिसाब कर सकते हैं और उनके पास अपने ईजाद किए हुए ऐसे–ऐसे फार्मूले हैं कि वे किसी भी गलती को पकड़ने में दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगाते।

जगन्नाथ बाबू बेशक गुणी तो हैं ही कि दफ्तर बदलने में उन्हें दिक्कत न हो, सबसे बड़ी बात यह है कि शादी न करने के कारण उनके पास कोई बीवी भी नहीं, जो आम दुनियावी औरतों की तरह एक जगह टिके पड़े रहने की कायल हो और प्रोविडेंट फंड, ग्रैच्युटी आदि के नुकसान की बातें उन्हें समझा सके। नतीजा यह कि जगन्नाथ बाबू मानो कहानी–किस्से बटोरने के लिए ही दफ्तर–पर–दफ्तर बदलते जाते हैं। कहीं न टिकना जैसे उनका स्वभाव है। न जाने कैसे उन्हें समझ में आ जाता है कि यहाँ काम पूरा हो गया और अब जिंदगी को दूसरे खाँचे में डाल देना है। उन्हें अपनी जिंदगी के सारे टुकड़े अलग–अलग नौकरियों में काटी जिंदगियों की तरह पूरे–पूरे याद हैं और वे अक्सर अपनी बात इसी तरह शुरू करते हैं कि ‘यह उन दिनों की बात है जब मैं फलाँ जगह काम करता था।’

संभवत: कहानी सुनाने की इच्छा भी और–और दूसरी आदतों की तरह रक्त में अपने पूर्वजों से चली आती है–कम–से–कम जगन्नाथ बाबू के साथ तो यही सच है। दरअसल जगन्नाथ बाबू की कहानियों में उनके अपने जीवन की कहानी भी बार–बार चली आती है और उन्हें सुनते–सुनते उनके नजदीक के लोग अब उन बातों को एक फिल्म के हिस्से की तरह देख सकते हैं। जगन्नाथ बाबू के ऐसा कुछ कहते ही सब लोग अपनी–अपनी फिल्में देखने लगते हैं। सबने जगन्नाथ बाबू की बातों से अपनी–अपनी कल्पना में अलग–अलग शक्ल–सूरतों के पात्र अलग–अलग मकानों–इलाकों में बैठा रखे हैं और यह कोई कैसे जान सकता है कि सबकी फिल्म एक–दूसरे से कितनी अलग है–भले ही वह एक ही कहानी के आधार पर बनी हो।

सबकी फिल्मों में जगन्नाथ बाबू के पिता कलकत्ता के श्याम बाजार के इलाके में एक बंद गली–या अंधी गली, जिसके आगे कोई रास्ता नहीं फूटता और वहीं से वापस लौट आना होता है–के अंतिम मकान में एक व्हील–चेयर पर बैठे हुए कहानियाँ बुनते रहते हैं। वे हर आनेवाले को देखकर प्रसन्न होते रहते हैं, जबकि उनकी माँ सिर झुकाए आम की गुठलियाँ सुखाती रहती है। उनकी माँ के चेहरे पर कभी हँसी का लेश भी नहीं रहता। वह एक कड़े चेहरेवाली मर्दाना–सी औरत है, जो अपने संकल्प की बिलकुल पक्की है।

अपने जीवन में आ पड़ी दरिद्रता, बीमारी और अपाहिजपन से लड़ने का उसका संकल्प ऐसा दृढ़ है कि वह एक मिनट खाली नहीं बैठती। हर वक्त काम में जुटी रहती है। उसके लिए पति–सेवा– और वह भी एक अपाहिज पति की सेवा–एक ऐसा कर्त्तव्य है जो मानो खुद ईश्वर ने उसके हाथों में थमाया है। उसके पालन में वह एक क्षण का आलस नहीं करती, एक क्षण के लिए भी नहीं थकती और कभी किसी काम में एक क्षण की देर नहीं करती। संभवत:–जैसा कि जगन्नाथ बाबू ने एक बार कहा–अपाहिजपन से जूझनेवाले लोग बहुत बार जिंदगी को एक घोर कर्त्तव्य की तरह ही जी पाते हैं।

जगन्नाथ बाबू की दोनों बड़ी बहनें हर समय नाच–गान के ट्यूशन देने और सिलाई–बुनाई में लगी रहती हैं। इन दोनों कामों से फुरसत मिलने पर वे एक चौकी पर चॉक से हिंदी की सारी वर्णमाला अ, आ, से क्ष, त्र, ज्ञ तक लिखकर–यानी एक प्लेनचेट बनाकर–उस पर एक कटोरी को उलटाकर उस पर अँगुली रखकर न जाने किस–किस की आत्मा का आह्वान करती रहती हैं। उन्हें खासतौर से गाँधीजी की आत्मा को बुलाने का शौक है, हालाँकि उन्हें ठीक समझ नहीं पड़ता कि गाँधीजी की आत्मा कटोरी में इतनी चुप क्यों बैठी रहती है।

वह जैसे हमेशा कुछ सोच में डूबी निस्पंद पड़ी रहती है। लेकिन वह महात्मा–यानी एक महान आत्मा–होने के कारण दोनों बहनों को कभी डराती नहीं। उन्हें मालूम है कि वह उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाएगी। एक बार बड़ी बहन ने एक अखबार में कहीें एक लेख देखा था जिसका शीर्षक था–‘गाँधीजी की आत्मा आज रो रही है’। तब जाकर उन्हें समझ में आया था कि गाँधी की आत्मा चुप क्यों रहती है। उस दिन व्हील–चेयर पर बैठे जगन्नाथ बाबू के पिता ने इसी शीर्षक की एक कहानी बुनी थी।

कई बार आत्माएँ हिंसक होती हैं और वे बुलानेवाले के शरीर में कुछ तकलीफ पैदा कर देती हैं–गला घुटने लगता है, कान सूँ–सूँ करने लगते हैं, आदि–आदि। तब ऐसे मौकों पर आत्मा से हाथ जोड़कर बहुत दीन होकर प्रार्थना करनी पड़ती है कि वह उन्हें माफ कर दे और अपने स्थान पर वापस लौट जाए। कई बार आत्माओं को–खासकर नजदीकी लोगों की आत्माओं को–इतना संसार से मोह हो आता है कि वे वापस जाना नहीं चाहतीं। जगन्नाथ बाबू की बड़ी बहनें ऐसे मौकों पर रो–रोकर माँ का डर दिखाकर इन आत्माओं से लौट जाने की प्रार्थना करती हैं।

हम लोगों की फिल्मों में जगन्नाथ बाबू के परिवार से जुड़े ऐसे और बहुत सारे अद्भुत ब्यौरे हैं, जिन्हें कहने से हमें बचना पड़ेगा क्योंकि कहानी का पहले से लगा शीर्षक फिर हमें याद दिला रहा है कि यह कहानी का मूल कथ्य नहीं है। न कभी जगन्नाथ बाबू के साथ ऐसा हुआ और न कभी व्हील–चेयर पर बैठे–बैठे कहानियाँ बुनते–सुनाते उनके पिता के साथ–कि उन लोगों ने कहानी कुछ सुनानी शुरू की हो और सुना कुछ और गए हों। वे हमेशा ठीक–ठीक कहानी कहनेवाले लोग रहे हैं और उन्हें हमेशा मालूम रहता है कि कहानी कितनी सुनानी है, किस तरह सुनानी है और सबसे बड़ी बात कि कहाँ क्या कहना है और किस तरह कहना है।

हाँ, तो जगन्नाथ बाबू इस पिछली नौकरी में पूरे–पूरे छह वर्ष टिके। सब कोई हैरत में थे कि क्या जगन्नाथ बाबू को कोई साँप सूँघ गया है या उन्होंने ही किसी साँप को सूँघ लिया है। अब देखिए, साँप का बिंब भी हमारी कथा में जगन्नाथ बाबू के कारण ही चला आया है। दरअसल जगन्नाथ बाबू की छोटी बहन सर्प–नृत्य में बहुत कुशल थी और कहते हैं कि वह नाचते समय बिलकुल साँप की तरह ही लचीली और गति–थिरकन से युक्त हो जाती थी। ऐसे लगता था कि उसमें किसी नागिन की आत्मा प्रविष्ट हो गई हो। उसने इस नृत्य में न जाने कितने पुरस्कार जीते थे। अंत में यही नृत्य करते–करते एक दिन उसकी एक पसली टूटकर उसके फेफड़ों में घुस गई और वह स्टेज पर ही मर गई।

बहरहाल, कहने का आशय यह था कि जगन्नाथ बाबू का एक नौकरी में छह साल तक टिक जाना उन्हें जानने वालों को अचंभे में डालने के लिए बहुत था और सब समझ सकते थे कि इसका कारण कुछ–न–कुछ अद्भुत ही होगा। क्या जगन्नाथ बाबू किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए थे? – सबसे पहले लोगों को ऐसा शुबहा हुआ। आखिरकार स्त्रियाँ दफ्तरों में खिले हुए कमल के फूलों की तरह होती हैं जिन पर पुरुष भँवरों की तरह मँडराने के लिए मजबूर होते हैं।

अभी हाल में कलकत्ते में बैंक ऑफ अमेरिका ने अपनी शाखा खोली है और वहाँ कटे हुए छोटे–छोटे झूलते रेशमी बालोंवाली लड़कियों को देखकर ऐसा लग ही रहा था कि कलकत्तेवालों के सारे खाते यहीं खुल जाएँगे कि दो बड़े पुराने विदेशी बैंकों के अपना कार्यालय बंद करने की घोषणा अखबार में आ गई। इसी तरह कलकत्ते में जब दिल की बाइपास सर्जरी करनेवाला पहला–पहला अस्पताल खुला, तभी कंप्यूटरों के बटन दबाती, चमकीली आँखोंवाली तन्वंगी लड़कियों को देखकर ही हमें समझ में आ गया था कि अस्पताल वालों का सौंदर्य–संग्रह–बोध रंग लाएगा। सुना है कि वहाँ बाइपास सर्जरी कराने के लिए कई बार महीने–महीने इंतजार करना पड़ता है क्योंकि अक्सर बहुत लंबी ‘क्यू’ लगी होती है।

जगन्नाथ बाबू के एक दफ्तर में टिके होने का कारण किसी सुंदरी की उपस्थिति होना इसलिए भी समझ में आ रहा था क्योंकि जगन्नाथ बाबू का यह दफ्तर एक ‘पॉश’ इलाके की एक बहुमंजिली इमारत के नौवें तल्ले पर था और वहाँ ऐसे किसी आकर्षण के उपस्थित होने की संभावना आमतौर से कहीं अधिक थी। आखिर पैसे का आकर्षण ही तो सुंदरता के लिए चुंबक का काम करता है। लोगों का यह सोचना कि जगन्नाथ बाबू प्रेम में पड़ गए हैं, और भी पक्का हो चला, जब जगन्नाथ बाबू अचानक चिड़ियों की बातें करने लगे। लोग ‘चिड़ियों’ का अर्थ लड़कियाँ लगाते और जगन्नाथ बाबू की बातों पर बड़ी भेद–भरी मुसकराहट लिये मुसकराते। खासकर जगन्नाथ बाबू एक लाल चोंचवाली पीली–काली चिड़िया की जब बातें करते, जो ‘क्या कहूँ’ ‘क्या कहूँ’ बोलती है, तब लोगों के लिए हँसी दबाना मुश्किल हो जाता।

जगन्नाथ बाबू के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा तत्त्व था कि लोग उनकी ओर सहज आकर्षित होते थे। शायद यह जिंदगी को एक कहानी की तरह देख पाने से अन्तस् से उपजी प्रसन्नता ही होगी जिसकी तरफ आदमी खिंचे बिना नहीं रहता था। जगन्नाथ बाबू को कभी किसी ने दुखी नहीं देखा था–यहाँ तक कि अपने अपाहिज पिता, आम की गुठलियाँ सुखाती माँ और स्टेज पर मर जानेवाली बहन की बातें भी वे इस तरह बताते थे जैसे जीवन को रहस्य की तरह देख पाने के कारण भीतर–ही–भीतर बहुत आनंदित हों।

अलबत्ता उनकी बड़ी बहन का क्या हुआ, यह बात उन्होंने कभी किसी कहानी में नहीं बताई। उनकी माँ ने विधवा होने के बाद अनाज, नमक और चीनी खाना और चप्पल पहनना छोड़ दिया था। जिस लगन से उन्होंने अपने पति की सेवा की थी, उससे भी अधिक दृढ़ता से उन्होंने अपने कुल की कई सौ साल पहले हुई एक सती–जमुली सती–के प्रचार–प्रसार में अपना जीवन लगा दिया था।

वे उनका जुलूस लेकर सैकड़ों मीलों की कई बार पैदल यात्राएँ कर चुकी थीं और उनका यह साध्वी रूप इतना प्रभावशाली था कि जमुली सती दादी की तसवीरें घर–घर में लग गई थीं और उनका मंदिर भव्य से भव्यतर होता चला गया था। एक बार जगन्नाथ बाबू ने ही बताया कि जमुली सती दादी के आदेश से ही उनकी माँ ने अपने इकलौते बेटे–यानी जगन्नाथ बाबू–की शादी न करने की इच्छा को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया था।

जगन्नाथ बाबू में छिपी एक विचित्र आकर्षण–शक्ति को जाननेवाले लोगों को इस बात में कोई पोल नहीं लगी कि कोई काली–पीली साड़ी पहनने वाली लड़की इस कदर उनके प्रेम में पड़ गई है कि ‘क्या कहूँ’, ‘क्या कहूँ’ कहती रहती है। लोग भीतर–ही–भीतर बहुत प्रसन्न हुए। कहीं तो इस आदमी के अंदर अकेलापन और उदासी छिपी होगी–क्या ऐसा संभव है कि कोई ऐसा आदमी हो, जिसके अंदर यह सब न हो और वह धरती पर साँस लेता हो? चलो, इस उम्र में ही सही, इसने मनुष्य का शरीर धारण कर मिलने वाली इस अमूल्य वस्तु यानी प्रेम का अनुभव तो किया। क्या पता इसीलिए यह शख्स दफ्तर–दर–दफ्तर भटकता रहा कि इस अनुभव से गुजर सके।

जगन्नाथ बाबू ने ही एक बार एक कहानी में बताया था कि प्रेम ही आदमी की एकमात्र ऐसी सच्ची अनुभूति है जिसमें उसका ‘स्व’ किसी दूसरे के सामने विलीन हो जाता है और उसका अहंकार लुप्त हो जाता है। वे अपनी माँ के लिए अपने पिता की मृत्यु के बाद जमुली सती की उपस्थिति की जरूरत के बारे में बताते हुए कह गए थे कि धर्म के सारे नकली कर्मकांड और ताम–झाम किसी सच्ची–मुच्ची के प्रेम–पात्र के न होने पर पैदा होते हैं। आदमी के अंदर ऐसे अनुभव की गहरी चाह कभी मरती नहीं, जहाँ उसका अहंकार मटियामेट हो जाए। और कुछ नहीं होता, तो वह धर्म की शरण में जाता है।

जगन्नाथ बाबू की इस तरह की बातों को सुनकर, उनकी कहानियाँ सुनते हुए लोगों के दिल में एक शूल–सा चुभ जाता था कि क्या जगन्नाथ बाबू अपने जीवन में इस तरह की कमी नहीं महसूस करते? क्या वे आदमी मात्र की इस चरम अभीप्सा के परे हैं? इसलिए अब लोगों के दिल में उनकी ‘क्या कहूँ’, ‘क्या कहूँ’ कहनेवाली ‘चिड़िया’ के प्रति एक सच्ची सदाशयता जागी और उनके कलेजे ठंडे पड़ गए कि जगन्नाथ बाबू के जीवन की यह अपूर्णता तो मिटी। जगन्नाथ बाबू न जाने लोगों की समझ के बारे में क्या समझ रहे थे। न उन्होंने लोगों की भेद–भरी मुसकराहट पर प्रकट रूप से कोई ध्यान दिया और न अपने तौर–तरीके बदले।

वे पूरे उत्साह से दूसरी ‘चिड़ियों’ के बारे में भी लोगों को बताने लगे कि एक लंबी पूँछवाली काली–सफेद–भूरी–मटियाली रंगवाली चिड़िया इस तरह बोलती है जैसे कोई दरवाजा खुल और बंद हो रहा हो; लाल सिरवाली हरी चिड़िया हुड़ुक–हुड़ुक बोलती है और नीली चिड़िया खाली तभी नीली दिखती है जब वह उड़ने के लिए अपने पंख खोलती है।

जगन्नाथ बाबू की इन बातों ने लोगों के दिल को धक्का–सा पहुँचाया। उन्हें यह काली–पीली साड़ी वाली प्रेमिका के प्रति गैर–वफादारी का रुख लगा और उनके दिलों में जगन्नाथ बाबू के प्रति किंचित् रोष भी उत्पन्न हुआ। इधर जगन्नाथ बाबू ने अचानक चिड़ियों की बातें करनी कम कर दीं, जैसे अब उनकी दिलचस्पी कहीं और मुड़ गई हो और पेड़ों की बातें करने लगे। वे गुलमोहर, अमलतास, पलाश, सेमल आदि पेड़ों के नाम इस तरह लेते, जैसे ये सब उनके कितने पुराने बंधुओं के नाम हों।

उनकी हर कहानी में घूम–फिरकर कोई–न–कोई पेड़ चला आता। कभी वे बहाने से कहते कि यह उस समय की बात है कि जब पलाश फूल रहा था; कभी कहते कि उम्र बीत चली और अब जाना कि हर पेड़ का पतझड़ और वसंत अलग समय पर होता है। फिर एक दिन अचानक वे सबको भूलकर एक पेड़ की बात करने लगे, जिसका कोई नाम नहीं था।

जगन्नाथ बाबू ने बताया कि उनका वह पेड़, जिस पर वे चिड़ियों को देखा करते हैं, वसंत के मामले में सबसे ढीला है। उसमें तब वसंत आता है, जब और सारे पेड़ों के पत्ते पुराने पड़ जाते हैं। उसका नाम उन्होंने ‘चिड़ियोंवाला पेड़’ रख दिया क्योंकि उन्हें किसी तरह उस पेड़ का नाम पता नहीं चल रहा था। न जाने कैसे उनमें यह परिवर्तन आया कि उन्होंने कहानियाँ तक बुननी–सुनानी छोड़ दीं और दफ्तर के बाद वृक्षों पर लिखी हुई ढेर सारी किताबों को लाकर उनमें मगजमारी करने लगे। लोग हैरान थे कि उन्हें क्या हो गया है। अब जाकर लोगों को मानना ही पड़ा कि जगन्नाथ बाबू की चिड़ियाँ सचमुच की चिड़ियाँ थीं और उनके पेड़ सचमुच के पेड़ हैं।

जगन्नाथ बाबू वृक्षों वाली किताबों के पन्ने इस कदर उलटते–पलटते रहते, जैसे न जाने किस पन्ने में कोई चीज दबाकर भूल गए हों और उसे ढूँढ़ रहे हों। जब लोगों ने बहुत बार पूछ लिया कि वे क्या खोज रहे हैं, तो जगन्नाथ बाबू ने जैसे मजबूर होकर बताया कि दरअसल वह पेड़, जिस पर सब नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियाँ आती हैं, एक विचित्र पेड़ है, जिसका नाम कहीं खोजे से भी नहीं मिल रहा है। वह पेड़ सौ साल पहले अंग्रेजों के द्वारा कलकत्ते में बनाई गई सैकड़ों एक–जैसी पीले रंग की एक–मंजिली कोठियों में से उनके दफ्तर के पिछवाड़े में बनी एक ऐसी ही कोठी में न जाने किसके द्वारा कहाँ से लाकर लगाया गया पेड़ है।

इस पेड़ का नाम उन्हें शहर के सबसे जानकार वनस्पति–शास्त्री भी नहीं बता सके हैं। यह पेड़ बहुत पुराना है और ऐसा मालूम होता है कि सब चिड़ियों को पीढ़ी–दर–पीढ़ी इस पेड़ के बारे में मालूम रहता है। इस पेड़ में दूर–दूर से आनेवाली चिड़ियों के लिए जैसे एक आकर्षण है। न जाने कहाँ–कहाँ से यह चिड़ियों को अपनी ओर खींच लेता है और उस पेड़ पर बैठने के लिए ही शायद वे दूर–दूर का सफर तय करती हैं।

जगन्नाथ बाबू की इन बातों से लोग बहुत चकित हुए। चकित ही नहीं, मुग्ध भी हुए। कितनी सुंदर बात है कि कोई ऐसा पेड़ हो, जो पीढ़ी–दर–पीढ़ी चिड़ियों को अपने पास बुला सकता हो। ऐसा पेड़ तो शायद स्वर्ग की कल्पना में ही कभी किसी ने देखा–सोचा हो। असलियत में ऐसा पेड़ हो सकता है, यह तो कल्पना के परे है। लेकिन जगन्नाथ बाबू की कहानियाँ सुननेवाले लोगों में हर तरह के लोग थे, जैसे कि दुनिया में हर जगह हर समय मौजूद रहते हैं।

उनमें से कुछ को यह बात नितांत असंभव लगी कि एक भीड़–भाड़वाले शहर में बहुमंजिली इमारतों से घिरे एक पुराने मकान में ऐसा कोई अद्भुत, अनोखा पेड़ मौजूद हो, और जगन्नाथ बाबू के सिवाय किसी और को उसके बारे में पता तक न हो। यदि सचमुच कोई ऐसा पेड़ होता, तो क्या अब तक सारे संसार में यह खबर सुर्खियों में नहीं आ जाती? क्या अब तक अमेरिका के वैज्ञानिक हाथ–पर–हाथ धरे बैठे रहते, और इस पेड़ के रहस्य का पता न लगा लेते?

बाकी लोगों ने सहज रूप से जगन्नाथ बाबू की बातों को सच ही नहीं माना, बल्कि उतनी ही सहजता से उस पेड़ को देखने की इच्छा व्यक्त की। जगन्नाथ बाबू ने तब उन्हें सालिम अली नामक एक चिड़िया–विशेषज्ञ की किताबों में उन नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियों की तस्वीरें भी दिखार्इं, जिन्हें वे उस पेड़ पर देखते आ रहे थे। उन्होंने बताया कि अब सालिम अली के सहारे वे न सिर्फ उन चिड़ियों के नाम जान गए हैं, बल्कि उन चिड़ियों को उनकी बोली से भी पहचानने लगे हैं।

बिना देखे भी उन्हें पता चल जाता है कि उस पेड़ पर फलाँ चिड़िया आई है। जगन्नाथ बाबू ने सब लोगों को आश्वासन दिया कि एक–एक करके ‘लंच’ के समय उनमें से हरेक व्यक्ति को दफ्तर बुलाकर वह पेड़ दिखा देंगे–अलबत्ता मुश्किल यह रहेगी कि उस बेला में प्राय: चिड़ियाँ दिखाई नहीं पड़तीं। वे अक्सर दोपहर तीन बजे के आसपास आनी शुरू होती हैं।

जगन्नाथ बाबू के ‘पॉश’ इलाके के शानदार दफ्तर में उनके सारे लोग एक–एक करके अपने सबसे अच्छे कपड़े धारण करके पहुँचे और वहाँ उपस्थित शानदार लोगों के बीच अपने–आपको निहायत घटिया महसूस करते हुए वह पेड़ देख आए। लेकिन इस ‘देखा–देखी’ ने उनके और जगन्नाथ बाबू के बीच जैसे कुछ बदल डाला। यों तो जगन्नाथ बाबू के सुदर्शन व्यक्तित्व और आंतरिक प्रसन्नता के कारण उनके सभी साधारण वस्त्र हमेशा असाधारण रूप से शानदार दिखते थे, पर अब उनके दफ्तर में जाकर लोगों के मन में यह भ्रम पैदा हो गया कि जगन्नाथ बाबू ने उन लोगों पर मानो तरस खाकर ही उन्हें अपना मित्र बना रखा है। क्या हैसियत का इतना बड़ा फर्क मन को आच्छादित होने से रोक सकता है?

लोगों ने पहली बार पाया कि जगन्नाथ बाबू के प्रति उनके हृदय में गाँठ–सी पड़ गई है। इसी गाँठ के चलते लोगों ने पाया कि उन्हें वह पेड़ कलकत्ता शहर के हजारों–लाखों पुराने पेड़ों की तरह एक मामूली पेड़ लगा, जिस पर न उनकी कल्पना के ‘कल्पतरु’ की तरह कोई अद्भुत रंग के फूल खिले थे और न ही उनसे कोई दिव्य सुगंध उठ रही थी। दोपहर के वक्त रंगीन चिड़ियों की जगह एकाध कौवे, गौरैया और मैना जैसी आम और मामूली चिड़ियाँ ही वहाँ बैठी नजर आईं।

आश्चर्य को नियोजित करना प्रकृति का शायद एक खेल है, जिसे एक खेल की तरह से न देख सकने वाले ‘संयोग’ कहकर पुकारते हैं। इसी संयोग से जगन्नाथ बाबू की इस अद्भुत पेड़ की कहानी पर रत्ती–भर भी विश्वास न करनेवाले हमारे ही इलाके के बैरिस्टर निमाईसाधन घोष ठीक तीन बजे जगन्नाथ बाबू के दफ्तर की उसी इमारत की छत पर दरबान को दस रुपए घूस खिलाकर अकेले पहुँचे और उन्होंने अपने साथ ली हुई दूरबीन से न सिर्फ नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियाँ देखीं, बल्कि आधे शरीर में जेबरा जैसी धारियों और आधे शरीर में गेरुआ रंगवाली एक शानदार किलंगीवाली चिड़िया भी देख ली।

उस शाम हमारे इलाकेवालों को एक अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ा। बैरिस्टर निमाईसाधन घोष जगन्नाथ बाबू के पैरों के पास जमीन पर बैठे थे और किसी तरह उनके बगल में सोफे पर बैठने को तैयार नहीं हो रहे थे। उन्होंने जगन्नाथ बाबू को अपना गुरु घोषित कर दिया था और सालिम अली की किताबों के पन्ने इस कदर धीरे–धीरे पलटकर श्रद्धापूर्वक उस किलंगीवाली चिड़िया को खोज रहे थे, जैसे किसी वेद–उपनिषद के पन्ने उलट रहे हों। अंतत: उन्होंने एक किलकारी–सी मारी और सबको पता चला कि उस चिड़िया का नाम ‘हूपू’ है।

इस चिड़िया को आज तक जगन्नाथ बाबू ने भी नहीं देखा था। बाद में किसी विशेषज्ञ से पता चला कि उस चिड़िया का कलकत्ते में दिखाई पड़ना भी अपने–आप में एक आश्चर्य है, क्योंकि यह चिड़िया प्राय: अधिक सूखे प्रदेशों में दिखाई पड़ती है।

आगे की कथा पेड़ों, चिड़ियों और अद्भुत किस्सों से दूर जिंदगी के यथार्थ की कथा है। जगन्नाथ बाबू, जो खुद किसी दफ्तर में आज तक इतने बरस नहीं टिके थे, अब एक पेड़ के प्रेम में बँधे हुए उसी दफ्तर में टिके रहना चाहते थे। लेकिन अचानक दफ्तर के मालिक ने उन्हें सारे दिन खिड़की के बाहर देखते रहने के कारण दफ्तर के हिसाब में हुई भूलों के कारण बरखास्त कर दिया।

यह तो लोगों को बाद में ही मालूम पड़ा कि जगन्नाथ बाबू को इसके पहले कई बार चेतावनी दी जा चुकी थी। प्रेम का सबसे बड़ा दुर्गुण यह है–जगन्नाथ बाबू ने यह कहानी सुनाते हुए कहा–कि वह व्यक्ति के जीने के ढंग को उलट–पलटकर रख देता है। आदमी अपने पर नियंत्रण खो बैठता है और चकरघिन्नी हो जाता है। उसके संस्कार, उसकी मान्यताएँ, उसकी धारणाएँ और उसकी आदतें–सब रातोंरात हवा हो जाते हैं।

‘लेकिन’–जगन्नाथ बाबू ने एक लंबी साँस छोड़कर कहा–‘यह कोई नहीं कह सकता कि यह कोई फायदेवाली बात है या नुकसानवाली। सच तो यह है कि कोई नुकसान सचमुच कोई नुकसान नहीं है और यह फायदे–नुकसानवाली भाषा ही गड़बड़ है।’

यह सब कहने के बावजूद लोगों ने देखा कि जगन्नाथ बाबू उदास रहने लगे। तीन दिन तक दफ्तर के क्रम से निजात पाकर उनके पास काफी समय था कि वे पच्चीसों कहानियाँ बुन लेते, लेकिन वे जैसे किसी गम में घुले जा रहे थे। अंत में उनके शिष्य बने हुए निमाईसाधन वकील बाबू ही उनके काम आए। निमाई बाबू ने उनके घुलने का कारण ढूँढ़ने के क्रम में–क्योंकि उसके बिना जगन्नाथ बाबू का पहले जैसा हो जाना संभव नहीं था–बंगाल के वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस की ‘अव्यक्त’ नाम की पुस्तक प्राप्त की और जगन्नाथ बाबू को उसमें से पढ़कर सुनाया ...वृक्ष क्या कभी बोलते हैं?

लोग बोलेंगे कि भला यह क्या प्रश्न है? लेकिन गाछ मूक भले ही हो, क्या यह निस्पंद है? नहीं, यह तो हमारा मूक संगी है जो जीवन के गंभीर मर्म की कथा हमारे लिए भाषाहीन करके लिपिबद्ध कर रहा है। मैंने कभी यों ही बिना सोचे–समझे लिखा था कि वृक्ष–जीवन मानव–जीवन की छाया है, आज देख रहा हूँ कि मेरा वह स्वप्न आज जागरण में भी सच हो गया है...

निमाई बाबू ने देखा कि जगन्नाथ बाबू यह सुनकर कुछ प्रकृतिस्थ हुए हैं और उनकी प्रसन्नता कुछ वापस लौटती–सी लग रही है। निमाई बाबू ने पुस्तक बंद कर दी और कहीं से भी वकील जैसी न लगनेवाली भाषा और स्वर में बोले– ‘जगन्नाथ बाबू, बचपन में कहानी सुनी थी कि बुद्ध को एक पीपल के वृक्ष के नीचे निर्वाण प्राप्त हुआ था–तब समझ में नहीं आया था कि इस बात का उस वृक्ष से क्या संबंध है। लेकिन अब सोचता हूँ तो लग रहा है कि हम सभी एक ही अस्तित्व के तो हिस्से हैं–ये वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ रहे हैं, तो हम श्वास ले रहे हैं; हम श्वास छोड़ रहे हैं, तो उसी कार्बन–डाइऑक्साइड से ये वृक्ष श्वास ले रहे हैं; और हमारे अंदर वही तो रस है जो इनमें है–जो घास में है–जो फूल में है। आपने हमारे और इनके बीच की लय का अनुभव कर लिया है, जगन्नाथ बाबू।’

जगन्नाथ बाबू का चेहरा दमक उठा। न जाने वकील बाबू ने ऐसा क्या कहा और न जाने जगन्नाथ बाबू ने क्या समझा, लेकिन लगा कि जगन्नाथ बाबू अपने में लौट आए हैं। अब निमाई बाबू लगभग एक तीर्थयात्री की तरह जगन्नाथ बाबू को साथ लेकर ठीक तीन बजे दोपहर अपने उसी परिचित दरबान की मारफत उसी दफ्तर की इमारत की छत पर पहुँचे। लेकिन वहाँ जाकर उन दोनों को ऐसा धक्का पहुँचा कि उनकी बोलती बंद हो गई। वहाँ कोई पेड़ ही नहीं था। वह पेड़ इस तरह गायब हो गया था, जैसे वह कभी वहाँ था ही नहीं।

जगन्नाथ बाबू के मन में इस पेड़ की मौत ने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसका उत्तर शायद किसी के पास कभी नहीं होगा–क्या वह पेड़ भी उनसे प्रेम करता था और उनके वियोग में देह–त्याग का संकल्प करके उसने तीन दिनों में ही अपने को कटवा दिया? क्या वह पेड़ बरसों से–दशकों से किसी का इंतजार कर रहा था? चूँकि यह कोई मनगढ़ंत कथा नहीं है, जैसा कि जीवन में सहज विश्वास करनेवाले जान रहे होंगे, निश्चय ही वे भी इस अबूझ प्रश्न से जगन्नाथ बाबू की तरह ही जूझेंगे।

जगन्नाथ बाबू ने उस पेड़ की द्वादशी का श्राद्ध किया। इस संसार में प्रियजनों की मौतें होती हैं तो हमारे यहाँ बारह दिन की बैठकें होती हैं, जिनमें मातमपुरसी करनेवालों की आवभगत, घर की सफाई, पूजा, विधि–विधान और भोजन का प्रबंध करने में सब मशगूल रहते हैं। जगन्नाथ बाबू ने इन बारह दिनों में न कुछ खाया, न पीया। उनकी आँखें एक क्षण के लिए भी सूखी नहीं दिखीं।

जगन्नाथ बाबू के साथ के लोगों ने भी मौन रहकर उनके दुख में उनका साथ दिया। सभी जगन्नाथ बाबू के प्रश्न से ही जूझ रहे थे और किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। यदि वह पेड़ कटना ही था, तो पिछले छह वर्षों के दो हजार दिनों में क्यों नहीं कटा? वह उन्हीं तीन दिनों में क्यों कटा, जब जगन्नाथ बाबू को वहाँ से निकाल दिया गया। क्या वह पेड़ भी जगन्नाथ बाबू को देखा करता था अपने को देखते हुए?

बहुत सारे लोग इक्कीसवीं सदी के मुँह पर वृक्ष–पूजन जैसी इस तरह की आदिम बातों से कुढ़ सकते हैं। वृक्षों में संवेदना है, यह तो विज्ञान भी मानता है। यह बात और है कि हमें पता नहीं कि वह किस हद तक जीवित और क्रियाशील है। बहरहाल, जगन्नाथ बाबू इन पक्ष–विपक्ष के तर्कों से आगे निकल आए हैं। उनके नए दफ्तर के दो तल्ले से बिलकुल सटा हुआ एक सेमल का वृक्ष है।

जगन्नाथ बाबू का मानना है कि वे सारी चिड़ियाँ, जो उस अनाम पेड़ से उसी तरह बँधी हुई थीं जैसे कि वे खुद, अब इसी सेमल के वृक्ष पर उनके बिलकुल नजदीक आती हैं।

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