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आंदोलन

आत्मबोधानंद के लिए यह समय संन्यासी से संग्रामी बनने का है प्राण त्यागने का नहीं

Prema Negi
21 April 2019 5:48 AM GMT
आत्मबोधानंद के लिए यह समय संन्यासी से संग्रामी बनने का है प्राण त्यागने का नहीं
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जल क्या प्राण भी त्याग दें संन्यासी आत्मबोधानंद तो नहीं सुनेगी मोदी सरकार

हिंदू उन्माद को संरक्षण देती मोदी सरकार को 180 दिनों से गंगा बचाने के लिए भूख हड़ताल पर बैठे युवा संन्यासी की मौत से नहीं पड़ेगा कोई फर्क, जानिए नदियों की सफाई के दुनियाभर के अनुभव क्या कहते हैं...

महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक

हरिद्वार में युवा संन्यासी आत्मबोधानंद गंगा की अविरलता और निर्मलता को लेकर अनशन कर रहे हैं, उनके अनशन को 180 दिन से अधिक हो चुके हैं। मानवता के प्रति उनके संघर्ष और त्याग की अदम्य इच्छाशक्ति को हम सलाम करते हैं। मगर मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों को भी बखूबी वाकिफ हैं। वह संग्रामी संघर्ष से तो झुकेगी, लेकिन किसी संन्यासी के प्राण त्याग देने से नहीं। यह वक्त आत्मबोधानंद के लिए संन्यासी से संग्रामी बनने का है और देश भी यही चाह रहा है। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर गंगा और पर्यावरणीय आंदोलनों का अगुवा बनना चाहिए।

अभी तक न तो उनकी सुध किसी ने ली और न ही किसी सरकारी आश्वासन का कोई पत्र उनके पास आया। गंगा की दुर्गति होते जा रही है, वह पहले से अधिक मैली हो गयी है और अब तो हरिद्वार में भी रेत माफिया सरकारी संरक्षण में सक्रिय हो गए हैं।

सरकारी अकर्मण्यता से दुखी होकर अपने अनशन के 178वें दिन, यानि 19 अप्रैल को स्वामी आत्मबोधानंद प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर 27 अप्रैल से जल त्यागने की घोषणा कर चुके हैं। मगर आत्मप्रशंसा में विभोर इस सरकार में उनके पत्र पर कोई भी ध्यान दिया जाएगा, इसकी उम्मीद तो न ही आत्मबोधानंद को होगी और न ही किसी और को। जिस सरकार में अकेले हिन्दू-उन्माद में, जिसे पूरी तरह सरकारी संरक्षण प्राप्त है, ही अनेक लोग मार दिए जाते हैं, वह सरकार भला एक संन्यासी की मौत पर क्यों ध्यान देगी?

जिस दिन से सरकारें किसी भी विषय पर प्रायोजित खबरें प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में निकालने लगे, प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री तक किसी विषय पर अपनी ही पीठ थपथपाने लगें और सम्बंधित सरकारी संस्थान मंत्रियों के बयान के अनुसार उल्टे-सीधे आंकड़े प्रस्तुत करने लगें तब समझ जाना चाहिए कि जो भी समस्या है वह कभी दूर नहीं होने वाली है।

गंगा नदी के बारे में ऐसा ही हो रहा है। प्रधानमंत्री से लेकर गडकरी जी और उमा भारती तक सभी अपने दावों में गंगा को साफ़ करते जा रहे हैं। इनके भाषणों को सुनिए तो और भी आश्चर्य होता है, क्योंकि इनका काम गंगा की सफाई तक कभी पहुंचता ही नहीं है बल्कि घाट बनाने तक ही सीमित रहता है। घाट बनाने से कोई नदी कैसे साफ़ हो सकती है यह तो यही नेता जानते होंगे। दूसरी तरफ, इन नेताओं के बयान पर केन्द्रीय प्रदूषण जैसे संस्थान या तो चुप रहते हैं या फिर इनके दावों के अनुसार रिपोर्ट प्रस्तुत करते रहते हैं।

मीडिया तो सरकार को खुश करने के अलावा आजकल कुछ करती ही नहीं है। कुछ महीने पहले हिंदुस्तान टाइम्स के लखनऊ संस्करण में कानपुर में गंगा सफाई के बारे में एक कचरा खबर छपी थी जिसे पीएमओ ने अपने वेबसाइट पर भी साझा किया था। इस खबर को यदि किसी स्कूल के विद्यार्थी को भी पढ़ाया जाता तब वह भी अनेक गलतियां ढूँढ लेता। कुछ सप्ताह पहले इकनोमिक टाइम्स ने इसी तरह की खबर से बनारस की गंगा को साफ़ कर दिया था।

ऐसा नहीं है कि नदियों को साफ़ करना असंभव है या फिर दुनिया में कहीं भी प्रदूषित नदियाँ साफ़ नहीं की गयीं हैं। 1980 के दशक में लन्दन के बीचोंबीच बहने वाली थेम्स नदी प्रदूषण का पर्याय बन गयी थी, पर इसे लगभग पांच वर्षों के भीतर ही साफ़ कर लिया गया। चीन की नदियों में प्रदूषण के स्तर में दो वर्षों के भीतर ही 40 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गयी है।

जर्मनी की एल्बे नदी का पानी केवल प्रदूषित ही नहीं पर विषैला भी था, इसे तीन वर्षों के भीतर ही प्रदूषणमुक्त कर लिए गया। दरअसल सरकारी इच्छाशक्ति और जन-भागीदारी से कोई भी समस्या हल की जा सकती है। हमारे देश में किसी भी सामाजिक सरोकार के लिए न तो सरकारी इच्छाशक्ति है और न ही जनता की भागीदारी। गंगा का उदाहरण ही देखिये, सरकार के लिए यह मात्र एक वोटबैंक है और जनता के लिए यह समस्या है ही नहीं। शायद ही विश्व में कहीं भी किसी समस्या को लेकर इतना लंबा अनशन चला हो और एक के बाद एक लोगों की अनशन करते हुए मौत होती हो, पर जनता की भागेदारी फिर भी नहीं है।

कुल मिलाकर गंगा सरकारी तौर पर साफ़ हो गयी है, पर यदि आपको गंगा मैली दिख रही तो यह आपकी समस्या है। जैसे नोटबंदी से भले ही आजतक जनता परेशान हो, पर सरकार इसे सफलता ही मानती है। समस्या और विकट हो जाती है जब सरकार पानी को अपनी मर्जी से नियंत्रित करने लगती है।

अर्धकुम्भ के समय इलाहाबाद में यही किया गया था, ऊपर के बैराज से पानी को छोड़कर नदी में पानी की उपलब्धता तो बनायी गयी, पर नदी के सामान्य बहाव से खूब छेड़छाड़ की गयी। लोगों को नहाने को पानी तो मिला, पर नदी को कितना नुक्सान पहुंचा इसका जिक्र भी किसी ने नहीं किया।

गंगा का नाम जपते रहने का एक सबसे बड़ा फायदा है, देश की और दूसरी नदियों की चर्चा नहीं होती। इसीलिए सरकार कभी भी इस नदी को साफ़ नहीं करना चाहेगी। सरकार की नजर में साफ़ गंगा का मतलब है, इसमें क्रूज की सवारी का आनंद, भव्य गंगा आरती, मालवाहक पोतों की आवाजाही और नदी किनारे सीढ़ियां।

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