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जनज्वार विशेष

बाढ़ पीड़ितों की लाशों पर दक्षिणा बांट लौट जाती हैं सरकारें

Janjwar Team
29 Aug 2017 11:33 AM GMT
बाढ़ पीड़ितों की लाशों पर दक्षिणा बांट लौट जाती हैं सरकारें
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बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र फारबिसगंज व जोगबनी से महेंद्र यादव की रिपोर्ट

बिहार में बाढ़ कोई नई बात नहीं है, पर आधुनिक होने व विकसित होने की होड़ में यह सभ्यता उन प्रकृति प्रदत्त घटना को विकराल व भयावह बना दिया है। 2008 की बाढ़ जो राष्ट्रीय आपदा घोषित हुई उस विकास की परिणति ही नहीं थी, पूरी तरह सरकारी विफलता और मानवकृत त्रासदी थी।

21 अगस्त 2017 को मैं अररिया शहर से फारबिसगंज व जोगबनी गया। बाढ़ आने के बाद से सुपौल मधेपुरा में अपने साथियों से सम्पर्क, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के दौरे, छोटी—मोटी बैठकें प्रशासन से निराकरण की मांग इत्यादि करने क्रम में आगे बढ़ता अररिया में दो रातों से था।

अररिया शहर को छोड़ने व फारबिसगंज आने में एक समानता दोनों कस्बाई शहरों की थी कि इनमें सड़ चुके अनाजों के दुर्गन्ध वहाँ गुजरी तबाही की गवाही हवाओं के माध्यम से बिखेर रही थी। रास्ते में सड़क किनारे NH पर जगह जगह पॉलीथिन की छोटी सीट लटकाकर मवेशियों के साथ—साथ बाल बच्चों को समेटे पीड़ित, सरकारी राहत शिविरों के आंकड़ों को ललकार रहे थे।

फारबिसगंज में भी पानी कम होने से बाजार की दिनचर्या शुरू होने लगी थी। पानी हटने जाने के बाद तबाही को भूलने की कोशिश करते लोग बर्बाद घरों, टूटे बिखरे सामानों, मलबों की सफाई करते पुनः जीवन शुरू करने की जद्दोजहद में लगे थे। इसके अलावा घरों में पानी के निशान को निहारते, अपने दुःस्वप्न भरे दिनों की यादों को ताजा करते अपनों की खैर की ख्वाहिश के लिए मोबाईल का बटन बार-बार दबाते इधर-उधर नेटवर्क की तलाश करते-करते खराब नेटवर्क पर कोसने लगते थे।

जन प्रतिनिधि, ब्लॉक और सरकारी दफ्तरों पर लोग झोंझ लगाये अपने-अपने आदमी के जुगाड़ में थे। जिनके घरों में पानी था वे बाहर ही अब भी टकटकी लगाए अपने घरों से पानी घटने की इंतजारी में थे।

बस स्टैंड से भजनपुर की तरफ जल्दी से बढ़ा। यह वही भजनपुर है जो 2011 में पुलिस की गोली से 4 निर्दोष लोगों की बर्बरता से हुई हत्या के बाद चर्चा में आया था और सरकार पुलिस कम्पनी भ्रष्टाचारी नेता बिचौलियों के तमाम प्रलोभनों के बाद भी गरीब लोग साहस से अपने इंसाफ की लड़ाई लड़े और अधूरा न्याय हासिल किया।

फोर लेन पर जीवन
भजनपुर गाँव में पहली बार बाढ़ आयी थी, यहां 1987 में भी बाढ़ नहीं आई थी। यहाँ के लोग फोर लेन पर शरण लिए थे, दो दिन पहले घरों को लौट गए थे। कुछ जो पहचानते थे हमें देखते ही उनकी खुशी इन दुःख भरे दिनों में भी परवान पर थी कि कोई अपना जानने वाला खैरियत पूछने चला आया।

पानी घुसने के भागने का दर्द साझा करते-करते, पास के नहर कटने की गाथा सुनाई, तो चोरों के आतंक से घर की रखवाली के बहादुरीनामा की चर्चा हुई। फोर लेन पर चूड़ा शक्कर मुखिया ने बांटा था, खिचड़ी भी दो दिन बनी थी। प्रखंड व मुख्यालय से महज एक दो किमी की दूरी पर स्थित इन लोगों की शरणस्थली पर पदाधिकारियों को उनकी सुध नहीं आई और वे लावारिश पड़े रहे।

कोई दूसरी संस्था भी नहीं पहुंची यहां। भजनपुर में लगभग 400 परिवार हैं। लिस्ट बनाकर फूड पैकेट लेने के लिए जनप्रतिनधि कल डटे थे, पर सीओ व एसडीओ ने कहा कि यह पैकेट राशन वितरण दुकानदार 2011 के खाद्य सुरक्षा के लिए बनी सूची से बांटेंगे, पर कुछ लोग व जनप्रतिनिधियों ने आपत्ति की कि अनेक पीड़ित परिवार वंचित हो जाएंगे।

पूरे दिनभर की जद्दोजहद के बाद तय हुआ कि अब सभी परिवारों का विवरण को पुनः एक फॉर्मेट में भर के लाना होगा और महिलाओं के नाम से वितरित होगा। आज फिर पता चला कि सूची का आधार 2011 का सर्वे ही रहेगा और आज भी फ़ूड पैकेट नहीं बंटा।

यहां के बारे में एक बात और बतानी है कि फारबिसगंज प्रखंड की अनेक पंचायतें बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं। इसी प्रखंड के जोगबनी मीरगंज में इस त्रासदी में हुई मौतें और नदी में गाड़ियों से लाकर लाश फेंकने की घटना के समाचार सुर्खियों में थे।

बाढ़ की तबाही का मंजर सुखा देता है आंखों को
चाचा इलियास अंसारी को सारथी बनाकर मोटरसाइकिल से 3 बजे के लगभग जोगबनी के लिए रवाना हुआ। रास्ते में बथनाहा के समीप साइफन के पास कोशी पूर्वी मेन कैनाल पानी के दबाव में टूट गयी थी, जिसने अब बड़ी नदी का आकार ले लिया है। उस कटान पर केले की नाव पर लोग पार हो रहे थे, उस पार प्लास्टिक डालकर लोग नहर किनारे शरण लिए थे।

केले की नाव पार कर आई एक महिला ने बताया, वहाँ कोई शिविर नहीं चलता है, न ही खाना पहुंचाया गया। वे लोग भदेश्वर पंचायत के थे। मुखिया ने एक दो दिन खाना बनावाया, बाकी कुछ नहीं पहुंचा है। आगे नहर के आखिरी तक देखने के बाद पुनः बथनाहा बाजार की तरफ चल पड़े। सड़क टूटी—फूटी, लोग अभी भी पन्नी में जीवन को समेटे शरणार्थी बने दिख रहे थें उनकी दशा ही हमारे सवालों का जवाब था और हमारे लिए सवाल भी।

समौना पंचायत पीड़ित मीरगंज चौक पर शिविर की सुविधाओं को लेकर 30 -40 की संख्या में सरपंच व समिति को घेरे हुए थे। बार बार दिलासा देकर जनप्रतिनिधि भाग निकलने की फिराक में थे, कुछ नौजवान लड़के अपने मोबाईल में उस दृश्य को कैद कर रहे थे। हम लोग भी सरपंच की तरफ बढ़े और सवाल दागे कि इनके लिए क्या सुविधायें हैं।आफत में फंसी जान से छुटकारा पाने को बेचैन सरपंच ने अपनी मोटरसाइकिल चालू करते हुए बताया कि यहां तीन शिविर चल रहे हैं, दोनों समय खाना बनता है। पूछने पर खाली छोटे आकार के टेंट की तरफ इशारा किया।

कोई कहता चीन ने छोड़ा पानी तो कोई कुछ और
पीड़ितों ने हम लोगों को पर्चे लेने के लिए घेर लिया। एक एक कर हम लोग भी लोगों को पर्चा देते रहे, इतने में जनप्रतिनिधि गण फुर्र हो गए थे। जल्दी से हम लोग रामपुर पुल की तरफ बढ़े, जहाँ लाशें ट्रेक्टर पर लादकर फेंकी जा रही थीं, पूछने पर कुछ लोगों ने बताया, यदि प्रशासन ऐसा नहीं करता तो दुर्गन्ध से हम लोग बीमार हो जाते।

मृतकों के बहने के कुछ अनुभवों को सुनकर जोगबनी की तरफ बढ़े। रास्ते में वही तबाही का मंजर था। रेलवे लाइन के नीचे से नदी की धारा बहने के कारण पटरियों में सीमेंट के कसे स्लीपर जगह—जगह लटक रहे थे। नदी का पानी थम रहा था, विध्वंस के चिन्ह चारों तरफ बिखरे थे। 11 लोगों के डूबने की कहानियां पूछे जाने पर लोग सोच में डूब जाते हैं। ये बाढ़ इतनी भयावह क्यों आयी? पूछने पर अधिकतर लोगों ने कहा चीन ने पानी छोड़ दिया।

कुछ ने कहा कोसी बैराज के 56 फाटक खुल दिए गए थे। यहां यह बात गौरतलब है कि दोनों ही बातें झूठ अफवाह थी, पर सचेतन ढंग से मोदी की प्रशंसा और सरकार की विफलता को छुपाने के लिए फैलाई गई थी। पर उसी में कुछ लोग बताने लगे कि परमान नदी के साथ, केसलिया, मुत्वा, ख़दीम इत्यादि का संगम मीरगंज में होता है। नदी की जल निकासी के मार्ग तंग व संकरे होते जा रहे हैं। तेज वर्षा से पानी रुकने के कारण पानी तेज गति में तोड़फोड़ करके विध्वंस करते निकलता है। भजनपुर और फारबिसगंज के लोग भी मानते हैं कि वहां की भयावहता को सीता धार जो पुरानी कोसी के नाम से जाना जाता है, उसमें बने अनेक भवन, व्यावसायिक गोदाम व संकरे जल निकासी मार्ग ने तबाही को दावत दी है।

अब हम लोग भारत—नेपाल सीमा गेट पर खड़े थे। अंधेरा अपने आगोश में लेने लगा था। हम लोगों के सामने भी अँधेरा छाने लगा था, यह अंधेरा पीड़ितों तक सरकार द्वारा राहत नहीं पहुंचाने का था, आपदा से बड़ा आपदाग्रस्त तंत्र का था, तबाही के असली कारणों पर वोट व देश में अंधविश्वास से फैलायी गई अफवाहों का था। तमाम नियमों के बावजूद मृतकों को नदी में फेंक देने की असंवेदनशील अमानवीय घटना का था यह अंधेरा। इन सभी के बावजूद बदलाव भटकते रास्ते का था। गहराते व गहन होते इन अंधेरों के बीच अधिकारों को बताने वाला पर्चा हाथ में समेटते हम वापस चल पड़े।

बिहार में आयी बाढ़ क्षेत्रफल, हानि व पानी की दृष्टि से बहुत बड़ी, विकराल व भयावह है। राज्य सरकार राहत व बचाव में पूरी तरह विफल साबित हुई है। आपदा पूर्व तैयारी के दावे और आपदा न्यूनीकरण के सभी रोडमैप तो पहले ही असफल थे। सरकार अपने ही द्वारा तय मानक दर को लागू करने में असमर्थ साबित हो रही है।

बिहार को दिया प्रधानमंत्री का दिया दक्षिणा
ऐसी बदहाल स्थिति में देश के प्रधानमंत्री द्वारा बाढ़ पीड़ितों के हवाई सर्वेक्षण के बाद सिर्फ 500 करोड़ की राशि का आवंटन बिहार के पीड़ितों के साथ भयानक मजाक है। राज्य सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि राज्य के लगभग आधे जिलों के एक करोड़ इकहत्तर लाख से अधिक लोग बाढ़ से पीड़ित हैं। भारी पैमाने में लोगों की जानें गयी हैं। पशु, घर, गृहस्थी की तबाही, फसलें, सड़क, पुल-पुलिया इत्यादि की अकूत बर्बादी हुई है। यह बर्बादी 2008 की कुशहा त्रासदी से बहुत बड़ी है।

उस समय 5 जिलों में लगभग 40 लाख लोग प्रभावित थे, जिसे तत्कालीन केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था और एक हजार करोड़ से अधिक की राशि राहत कार्य के लिए दी थी। उस राशि में भी सभी पीड़ितों का राहत कार्य ठीक ढंग से नहीं हो पाया था। यदि उसके अनुसार अभी आयी बाढ़ की बढ़ी महंगाई के मद्देनजर तुलना की जाए तो प्रधानमंत्री द्वारा दी गयी 500 करोड़ की राशि तो दक्षांश के बराबर सिर्फ खानापूर्ति लग रही है, ऐसे में भला कैसे राहत कार्य होगा। यह तो पीड़ितों के साथ घिनौना मजाक है।

बाढ़ आने के बाद पानी में घिरे अधिकांश पीड़ितों तक प्रशासन नहीं पहुँच पाया। जो जोग जान बचाकर किसी ऊँचे स्थल पर गये, उन तक किसी तरह एक—दो समय खिचड़ी इत्यादि मुखिया के सहयोग से दी गयी। कहीं-कहीं सरकारी शिविर खोले गये, परन्तु वहां भी मानक दर के अनुसार सुविधायें नदारद थीं।

अनेक शिविरों के तो सिर्फ बैनर थे और आंकड़ों में संख्या दिखा दी गयी। सामुदायिक रसोई का भी लगभग यही हाल था। पारदर्शिता के अभाव में शिविरों और सामुदायिक रसोई के आंकड़े सत्य से परे हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में स्थानीय समुदाय व जनसंगठनों ने भरपूर मदद किया है, परन्तु दुर्भाग्य है कि सरकार व प्रशासन, नागरिक संगठनों व स्थानीय समुदाय से संवाद करना भी मुनासिब नहीं समझा है।

मुख्यमंत्री को वही शिविर दिखाए जिसमें सुविधाएं रहीं
मुख्यमंत्री के शिविर निरीक्षण में उन्हीं शिविरों को दिखाया जाता है, जो जिला प्रशासन द्वारा पूरी ताकत झोंककर एक—दो जगह मॉडल स्तर पर बनाये जाते हैं। जबकि सभी बाढ़ पीड़ितों को उनकी हालात पर छोड़ दिया जाता है। यहाँ तक की दौरे के समय तो पशु शिविर भी चलने लगते हैं, परन्तु मुख्यमंत्री के जाने के 24 घंटे के अंदर अधिकांश शिविरों को बंद कर दिया जाता है।

पानी घटने के बाद जो लोग घरों को लौट रहे हैं, वहां समय से दवाओं का छिड़काव व खाने के पैकेट नहीं मिल पाए हैं। क्षतिपूर्ति व अन्य सहाता अनुदान वितरण की प्रक्रियाओं में देरी हो रही हैं। यदि बाढ़ पूर्व सूचना ठीक ढंग से प्रसारित होती तो तबाही और क्षति को कम किया जा सकता था सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जितनी मौतें दिखायी जा रही हैं, उन आंकड़ों से अधिक 400 से भी ज्यादा लोगों की मौतें हुई हैं।

प्रशासन के संरक्षण में अररिया जिले के मीरगंज पुल से गाड़ियों से लाकर लाशों को फेंकने की तस्वीरें तो मानवता को शर्मसार करती हैं। अररिया जिले के लक्ष्मीपुर पंचायत (कुर्साकांटा) का घर डूब गया। उनके घर में कुछ लाशें तैरती हुई घुस गयीं। वहाँ के ग्रामीण बताते हैं कि अभी तक कोई राहत नहीं मिला।

अररिया जिले के पलासी प्रखंड के चहटपुर पंचायत के मो0 अयूब कहते हैं कि उनके टोले के लोग पास के स्कूल में शरण लिए हुए हैं, लेकिन कोई सरकारी सहायता उन्हें नहीं मिली। पिछले साल बाढ़ क्षति के लिए सरकार की तरफ से 6000 रुपए आवंटित हुए थे। उस सूची में काफी गड़बड़ी थी, पैसा गलत व्यक्तियों को दिया गया। उस मामले को लेकर उन्होंने सीओ के कार्यालय में धरना दिया था। वह पैसा आज तक नहीं मिला और यह विपदा आ गयी। यदि मानक संचालन प्रक्रिया के तहत आपदा पूर्व तैयारियां हुई होतीं तो बचाव व राहत में यह सरकारी विफलता नहीं दिखती।

इस वर्ष बाढ़ के कारणों और सरकारी विफलता को ढकने के लिए यह प्रचार किया जा रहा है कि यह पानी चीन ने भारत के युद्ध से डरकर छोड़ा है या नेपाल ने छोड़ा है, जबकि यह पूरी तरह झूठ व अफवाह है। इस वर्ष की बाढ़ के कारण उत्तर बिहार की सभी छोटी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में हुई तेज वर्षा और उसके जल निकासी मार्ग में अवरोधक के रूप में खड़ी विकास की संरचनाएं हैं, जो पानी के निकलने में बाधक बनी।

पानी की तेज गति ने अनेक तटबंध, नहर, सड़क, पुल-पुलिया इत्यादि को तोड़ते हुए तबाही मचायी। बिहार जैसा हिमालय के समीप बसा राज्य मौसम बदलाव के दौर में वर्षा के बदलते पैटर्न के अनुसार अपनी जल निकासी की संरचना विकसित करना तो दूर, अभी पुराने जल निकासी मार्गों पर भारी अतिक्रमण और सरकारी उपेक्षा का शिकार है।

(लेखक बिहार के चर्चित सामाजित कार्यकर्ता हैं और एनएपीएम से जुड़े हैं।)

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