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संस्कृति

छठ पर्व : डूबते सूर्य को प्रणाम करने का दिन

Janjwar Team
25 Oct 2017 11:03 AM GMT
छठ पर्व : डूबते सूर्य को प्रणाम करने का दिन
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भले ही बिहार व यूपी से चलकर यह पर्व देशभर में प्रचलित हो गया हो लेकिन इस अवसर पर गाये जाने वाले गीत भोजपुरी में ही रचे गए हैं, जो कि बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं...

चक्रपाणि ओझा

यूं तो उगते हुए सूर्य को पूरी दुनिया प्रणाम करती है। लेकिन पूर्वांचल (बिहार, उत्तर प्रदेश) की धरती के लोग न सिर्फ उगते सूर्य को प्रणाम व स्वागत करते हैं, बल्कि अस्ताचलगामी सूर्य को भी पूरी आस्था, श्रद्धा व विश्वास के साथ प्रणाम करते हुए पुनः उदय होने की कामना करते हैं। यह दिन छठ पर्व के रूप में आज लगभग देश के बडे हिस्से में मनाया जा रहा है।यह पर्व पूर्णतः सूर्योपासना का है।

इसकी ऐतिहासिकता से अलग अगर इसकी बढती लोकप्रियता की बात करें तो यह पर्व बिहार के अलावा पूर्वी उत्तर के बिहार से सटे जनपदों में बहुत अधिक लोकप्रियता से मनाया जाता है।

जानकारों के मुताबिक बिहार राज्य में छठ पर्व खासा लोकप्रिय है। आज जब हम इस पर्व की लोकप्रियता की ओर नजर डालते हैं तो हमें देश की राजधानी नई दिल्ली, मुंबई समेत देश के विभिन्न भागों में इसकी बढती लोकप्रियता दिखाई पडती है।

आज यह पर्व महापर्व का रूप ग्रहण कर चुका है। यह लोकपर्व श्रद्धा, पवित्रता और और विश्वास के वातावरण में महिलाएं मनाती हैं। व्रत करने वाले को यह पूरा विश्वास होता है कि छठी मईया जरूर उसकी मनोकामना पूरी करेंगी।

गोरखपुर के रामगढताल घाट पर पूजन की तैयारी करने पहुंची संगीता देवी बतााती हैं कि छठ का त्योहार महिलाओं के लिए कामना पूर्ति का त्योहार है। अक्सर नई दुल्हनें पुत्र प्राप्ति के लिए छठ पूजा करती हैं। ऐसा भी होता है कि किसी किसी घर में छठ पूजन नहीं होता है तो महिलाएं अपने मायके जाकर छठ का पूजन करती हैं और मन वांक्षित फल प्राप्त होने की दशा में अगले वर्ष छठ के दिन पूरे उत्साह और मनोयोग से कोसी भरती हैं।

सूरज कुण्ड की रहने वाली रजनी का कहना है कि वे पिछले पांच वर्ष से छठ व्रत रख रही हैं। उनकी मनोकामना पूरी हुई हैं। वे कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि केवल महिलाएं ही यह व्रत रखती हैं पुरूष भी अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए यह पूजा करते हैं।

छठ पर्व सादगी और पवित्रता के साथ मनाया जाता है। इस पर्व पर कुछ वर्ष पूर्व तक बाजार का प्रभाव काफी कम था, लेकिन बढ़ते बाजार ने इस लोकपर्व में भी अपनी सेंध लगा दी है। बावजूद इसके अभी भी यह लोक पर्व पूरी तरह गांवों में उपलब्ध सामानों से ही संपन्न हो जाता है। इसमें बांस की बनी टोकरी,सूप मिटटी के दीये, गुड,गन्ना, चावल, आंटे का ठेकुआ प्रमुख है।

हालांकि बाजार मेंछठपूजा के सामानों की भरमार है।लोग अपनी आर्थिक हैसियत की मुताबिक अनेक तरह के महंगे फलों व सामानों की खरीदारी करते हैं। लेकिन जो आमजन हैं वह पूरी सादगी व श्रद्धा के साथ इस लोकपर्व को मानाने की तैयारी में सपरिवार जुटे रहते हैं।

यह पर्व अमीर और गरीब दोनों को ही एक ही घाट पर खड़ा कर देने वाला है। पूजा का सामान खरीदने बाजार पहुंची कुसम्ही बाजार निवासी बादामी देवी कहती हैं कि छठी मईया के सामने कोई बडा या छोटा नहीं होता सब बराबर होते हैं। सबकी पूजा एक ही जगह होती है।

इस पर्व की खास बात यह है कि यह बिना पंडित, पुजारी के सहयोग के होने वाला पूजा कर्म है। लोग स्वतःस्फूर्त तरीके से यह सूर्योपासना करते हैं। कुल मिलाकर यह सामूहिक प्रयास से संम्पन्न होने वाला उत्सव है। सामूहिकता का बोध कराने वाला यह पर्व हर तरह के भेद-भाव से उपर उठकर सामूहिकता, पवित्रता व विश्वास की परंपरा को आगे बढाते हुए अपनी लोक संस्कृति को बचाये रखने वाला है।

भले ही बिहार व यूपी से चलकर यह पर्व देशभर में प्रचलित हो गया हो लेकिन इस अवसर पर गाये जाने वाले गीत भोजपुरी में ही रचे गए हैं, जो कि बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। जैसे-

‘केलवा जे फरेला घवद से,ओह पर सुगा मडराय,
‘सेवेली चरन तोहार हे छठी मईया,महिमा तोहर अपार'
‘कांच ही बांस के बहंगिया,बहंगी लचकत जाय,बात जे पूछेले बटोहिया बहंगी केकरा के जाये़!, तू त आन्हर हउए रे बटोहिया, बहंगी छठी मईया के जाय'।
कुल मिलाकर यह प्रत्यूषा और उषा के अभिवादन, वंदन और प्रतिष्ठा का यह अद्भुत पर्व लोक मंगल की भावना को स्थापित करने वाला है।

(लेखक पतहर पत्रिका के सहायक संपादक हैं।)

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