विमर्श

मुस्लिम शासकों ने नहीं ​मोदी सरकार ने रचा संस्कृतियों को खत्म करने का षड्यंत्र

Prema Negi
9 Dec 2018 9:56 AM GMT
मुस्लिम शासकों ने नहीं ​मोदी सरकार ने रचा संस्कृतियों को खत्म करने का षड्यंत्र
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योगीजी-मोदीजी किसी का नाम छीनना सिर्फ उसकी पहचान छीनना भर नहीं उस समाज की स्मृतियों पर हमला करना भी होता है...

सुशील मानव की रिपोर्ट

जनज्वार। किसी भी देश, शहर, इमारत का नाम महज़ एक संबोधनसूचक शब्द भर नहीं होता। उस नाम के साथ वहाँ के समाज की साझी स्मृतियाँ, देश-काल, समय और इतिहासबोध भी उससे जुड़ा होता है। किसी का नाम छीनना सिर्फ उसकी पहचान छीनना भर नहीं उस समाज की स्मृतियों पर हमला करना भी होता है।

स्मृतियों पर हमला करने के पीछे का मकसद समाज की चेतना से यथार्थबोध का ध्वंस करना होता है। आर्यों ने जब इस देश पर हमला किया तो उन्होंने सबसे पहले इस देश का नाम बदलकर पहले ब्रह्मवर्त और फिर आर्यावर्त कर दिया। ऐसा उन्होंने यहाँ की मूलनिवासी समाज और सभ्यता की स्मृतियों को नेस्तनाबूत करने के उद्देश्य से किया। ये एक नस्लवादी विदेशी समुदाय की मूल निवासी समाज पर सबसे बड़ा और बर्बर हमला था।

आज सत्ता पाते ही खुद को उन आर्यों का वंशज कहने वाले हिंदुत्ववादी लोग उसी नस्लवादी एजेंडे के तहत नाम बदलनें के हिंसक अभियान में लगे हुए हैं। तमाम ऐतिहासिक शहरों के बदलने की भाजपा सरकार के इस कदम की तुलना विदेशी आक्रांता आर्यों द्वारा सिंधु घाटी की सभ्यता और उसके इतिहास को नष्ट करके द्रविड़ समाज और संस्कृति को पागल बनाने की हजारों साल पुरानी उस बर्बरतापूर्ण कृत्य से की जा सकती है।

बोमियान की ऐतिहासिक बौद्ध मूर्ति और ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद तोड़ने वाले एक ही मानसिकता के हैं। अगर इनमें कोई समाज या समुदाय हिंदू-मुस्लिम का विभेद करके एक के कृत्य को सही ठहराता है तो जान लीजिए वो समाज वो समुदाय पागल हो चुका है।

कोई सरकार सत्ता में आते ही क्यों इतिहास की पुस्तकों से लेकर शहरों इमारतों के नाम सारे मुस्लिम नामों को बदलने पर पर एकदम से उतारू हो गई है। इसे समझने के लिए हमें साझी स्मृतियों और स्मृतियों की राजनीति को भलीभाँति समझना होना। एक सामान्य व्यक्ति की तुलना में पागल के पास क्या नहीं होता, स्मृतियों के सिवाय। अपनी स्मृतियां खोकर एक सामान्य व्यक्ति पागल हो जाता है।

जिस तरह किसी व्यक्ति के सामान्य़ होने लिए उसके पास अपनी स्मृतियों का होना आवश्यक है, उसी तरह किसी भी समाज और सभ्यता और संस्कृति के सामान्य होने के लिए उसकी स्मृतियों का होना अपरिहार्य है। इतिहास समाज और सभ्यता और संस्कृति की स्मृतियाँ होती हैं।

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा धड़ाधड़ नाम बदलकर समाज, सभ्यता और संस्कृति को पागल बनाने की जबर्दस्त कवायद चलाई जा रही है। शहरों, इमारतों, जिलों, मंडलों का सिर्फ नाम नहीं बदला जा रहा बल्कि समाज को स्मृति-ध्वंस किया जा रहा है। जो समाज अपनी स्मृतियों को बचाने के लिए खड़ा नहीं हो सकता, उसके अस्तित्व को दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती।

बता दें कि गुड़गांव, इलाहाबाद, फैजाबाद और मुगल सराय समेत भाजपा की केंद्र सरकार ने पिछले एक साल में कम से कम 25 नगरों और गांवों के नाम बदलने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी है, जबकि नाम बदलने के कई प्रस्ताव अभी लंबित भी पड़े हुए हैं जिसमें पश्चिम बंगाल का नाम बदलने का भी प्रस्ताव है।

आखिर समाज और मनुष्यता के लिए क्यों जरूरी हैं स्मृतियां और स्मृतियों के राजनीतिक मायने क्या हैं। किस तरह ताकतवर लोग या सत्ता संरचनाएं स्मृतियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। आखिर क्यों जब भी सरकारें बदलती हैं, सबसे पहले इतिहास से छेड़छाड़ की कोशिश होती है।

दरअसल स्मृतियों का एक वस्तुनिष्ठ पक्ष होता है, लेकिन उनके अनुकूल या प्रतिकूल अर्थ निकाले जाने की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। स्मृतियाँ किसी देश का निर्माण कर सकती हैं तो उसे नष्ट भी कर सकती हैं। वे समाज को प्यार और सदभाव के रास्ते पर भी ले जा सकती हैं और दंगे, मार-काट और अराजकता में भी धकेल सकती हैं।

सत्ता हमेशा देश की स्मृतियों को कब्जे में लेने का अभियान छेड़ती हैं क्योंकि उसे पता होता है कि उनकी अपने पक्ष में व्याख्या लम्बे समय तक सत्ता में टिके रहने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। जगहों के नाम बदलना, पाठ्यक्रम बदलना या नायकों के जीवन दर्शन के नए अर्थों को स्थापित करना इसी अभियान के हिस्से हैं। आजकल स्मृतियों को खतरनाक हथियार के रूप में इस्तेमाल करके एक ख़ास तरह के अधिनायकवाद की नींव मजबूत करने का अभियान चल रहा है।

भाषा भी स्मृति का ही हिस्सा है। भाषा के सहारे भी कई बार स्मृतियों पर हमला किया जाता है। याद कीजिए कैसे संस्कृत को कंपलसरी विषय के तौर पर स्कूलों और अकादमियों के जरिए भविष्य के नागरिकों पर थोपने का तानाशाही फरमान केंद्र सरकार सुना चुकी है। इतिहास समाज को कुछ न कुछ देता है, उसे बनाता है इसलिए इतिहास के प्रति हमें आदर रखना चाहिए।

इतिहास अच्छे और बुरे की साझा स्मृति है- इस तथ्य को स्वीकारे बिना हम आरएसएस की तरह अतीत में ही जीते रहने को अभिशप्त होकर इतिहास को मिटाने और बदलने के लिए मार-काट करते रहेंगे।

मशहूर जीवविज्ञानी कैरोलस लीनियस ने कहा था इतिहास स्वयं को दोहराता है। खुद को आर्यों का वंशज कहने वाले आज आर्यों के उसी बर्बरतापूर्ण इतिहास को अपने कामों में दोहरा रहे हैं। योगी सरकार ने सबसे पहले मुगलसराय का नाम पद्दू (पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय नगर) रखा, तभी बात साफ हो गई कि उनकी प्राथमिकता मुस्लिम नाम वाले शहरों के नाम बदलना है।

इलाहाबाद और फैजाबाद का नाम बदलने के बाद कई और जिले जिनके मुस्लिम नाम हैं उन्हे बदलने की हिंदुत्ववादियों की माँग तेज हो गई है। अब जिन 13 और शहरों का नाम बदलने की फिराक में है योगी सरकार उनके नाम हैं- लखनऊ, सुल्तानपुर, अकबरपुर, फर्रुखाबाद, ग़ाज़ियाबाद, मुजफ्फ़रनगर, ग़ाज़ीपुर, अलीगढ़, फ़िरोज़ाबाद, शाहजहांपुर, मुरादाबाद, मिर्जापुर, आज़मगढ़ और फ़तेहपुर सीकरी। एक नजर भाजपा सरकार द्वारा बदले गए या बदले जाने के लिए प्रस्तावित शहरों के इतिहास पर भी डाल लेते हैं-

मुग़लसराय

सन, 1555 में हुमायू के शासनकाल के दौरान शेरशाह सूरी ने इस जिले में अलीनगर और गल्ला मंडी नाम से दो सराय बनवाये थे। इसी से इसका नाम मुगलसराय हो गया। अलीनगर में मुगल शासनकाल में ठहरने के लिए मुगल चक भी बनाया गया था। तो वही गंगा नदी के होने के कारण सेना को रखने के लिए पड़ाव बनाया गया था जो आज सभी पड़ाव नाम से ही चर्चित हैं। 18 वीं शताब्दी में जब अंग्रेज अफसर मिस्टर ओवन यहां आए तो उन्होंने इसका नाम बदलकर ओवेनगंज रखा, लेकिन मुगल सराय लोगों की ज़बान से नहीं उतरा।

इलाहाबाद

मुगल सम्राट अकबर ने सन्‌ 1574 ईसवी के लगभग यहाँ पर किले की नींव डाली तथा एक नया नगर बसाया इसका नाम उसने इलाहाबाद रखा। इस बात की पुष्टि वर्तमान भूमि के अध्ययन से भी होती है। इलाहाबाद शहर संगम पर बने किले की रक्षा के हेतु अकबर ने बेनी तथा वक्सी बाँध बनवाए। इन बाँधों के बनने से शहर के कछार का अधिकांश भाग सुरक्षित हो गया।

फ़ैज़ाबाद

इस शहर की स्थापना 1730 में अवध के नवाब सादत अली ख़ाँ ने की थी और इसे अपनी राजधानी बनाया था।

गाजियाबाद

गाजियाबाद शहर को ग़ाज़ी-उद-दीन ने 1740 में बसाया था। उसने शहर में एक विशाल ढांचे का निर्माण करवाया जिसमे 120 कमरे और इंगित मेहराबें थीं। अब इस निर्माण का सिर्फ् कुछ हिस्सा ही बचा है, जिसमे फाटक, चार दीवारी के कुछ भाग और चौदह फ़ीट ऊँचा एक विशाल स्तंभ। अब इस परिसर का प्रयोग लोगों द्वारा रिहाइश के लिये किया जा रहा है। ग़ाज़ी-उद्-दीन का मकबरा अभी भी शहर में मौजूद है।

फर्रुखाबाद

इतिहास के मुताबिक नवाब मोहम्मद खां बंगश ने फर्रुखाबाद की स्थापना की थी। मुस्लिम नाम के चलते ये जिला भी योगी सरकार के निशाने पर है, आने वाले दिनों में इस जिले का नाम भी बदल सकता है।

सुल्तानपुर

सुल्तानपुर शहर को खिलजी वंश के सुल्तान ने बसाया था।

मिर्जापुर

सन 1735 में लार्ड मर्क्यूरियस वेलेस्ले नाम के एक अंग्रेज अफसर ने मिर्ज़ापुर नगर बसाया था। मध्य भारत में अपना व्यापार फ़ैलाने की गरज से अंग्रेज अफसरों ने गंगा के रास्ते में पड़ने वाले लगभग सभी नगरीय क्षेत्रों का गहन अध्ययन किया था। और तमाम क्षेत्रों में विंध्याचल एवं गंगा के बीच में फैला विंध्यक्षेत्र अंग्रेजी अफसरों को पसंद आया। मिर्ज़ा शब्द अंग्रेजी शब्दकोश में 1595 ईसवी से जुड़ा जिसका शाब्दिक अर्थ है "राजाओं का क्षेत्र" इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘अमीर’ (अंग्रेजी) एवं ‘ज़ाद’ (पारसी) को मिलाकर बनाए शब्द ‘अमीरजादा’ से हुयी। अतः अंग्रेज़ों ने अपने क्षेत्र विस्तार के समय मिर्ज़ा शब्द को उपाधि की तरह उपयोग किया तथा क्षेत्र का नाम "मिर्ज़ापुर" रख जिसका अर्थ हुआ राजाओं का क्षेत्र।

अहमदाबाद

यूपी के मुख्यमंत्री योगी के देखादेखी गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने भी अहमदाबाद का नाम बदलकर कर्णवती नाम करने का विचार कर रही है । जबकि अहमदाबाद शहर का नाम सुल्तान अहमद शाह पर पड़ा है। बता दें कि अहमदाबाद शहर की बुनियाद सन 1411 में सुल्तान अहमद शाह द्वारा डाली गयी थी।

संघ और भाजपा सरकारों द्वारा लगातार इतिहास को गलत तरीके से पेश किया जाता रहा है। यहाँ एक बात ध्यान देने कि है कि जिन मुस्लिम नामों को लगातार निशाने पर रखकर इतिहास को मुस्लिम शासकों से आक्रांत बताया जा रहा है उसकी हक़ीक़त ये है कि ये सारे शहर मुस्लिम शासकों द्वारा ही बयाए गए हैं। एक अलीगढ़ को छोड़कर किसी भी शहर या नगर का नाम मुस्लिम शासकों ने नहीं बदले हैं।

इतिहास बताता है कि कई नए शहर मुस्लिम शासकों द्वारा ही बसाये गए हैं। आर्य आक्रांताओं की तरह मुगलों या सुल्तानों के मन में कभी भी इस देश और समाज की संस्कृति, स्मृति और इतिहास को मिटाने की कोशिश नहीं की। न ही उनकी कोशिश कभी हिंदुस्तान में इस्लाम की स्थापना की रही वरना वो इस देश को हिंदुस्तान नाम कभी नहीं देते।

मुस्लिम शासकों ने कभी भी इस मुल्क और यहाँ के नगरों के नाम नहीं बदले। उन्होंने जो भी नये नाम रखे नए शहर नए नगर बसाकर रखे। उन्होंने चोरो-लुटेरों की तरह कभी भी नाम के बहाने यहाँ के समाज की स्मृतियों और संस्कृतियों को नेस्तनाबूत करने का दुष्चक्र नहीं चलाया।

नस्लवादी सत्ता संरचनाएं हमेशा देश की स्मृतियों पर नियंत्रण की कोशिश करती हैं। उन्हें पता होता है कि इनकी अनुकूल व्याख्या कर वे अपनी नींव मजबूत कर सकती हैं। मुस्लिम नामों वाले शहरों के नाम बदलकर हिंदू बोध वाले नाम करना दरअसल स्मृतियों के एकपक्षीय बनाने का ही राजनीतिक दुष्चक्र है।

ऐतिहासिक और ठोस आधार वाले नामों को छीनकर हमसे हमारी जमीन (स्मृति, चेतना और यथार्थबोध) छीना जा रहा है और बदले में जो मिथकीय नाम इन शहरों व स्थानों के रखे जा रहे हैं, वो एक भ्रम को जबर्दस्ती यथार्थ बनाकर लोगों के मस्तिष्क में भरकर एक काल्पनिक चेतना का विकास किया जा रहा। जो वर्तमान पीढ़ी के जरिए एक खोखली और छद्म स्मृति को जेनरेट करके आने वाली कई पीढ़ियों को गुलाम और प्रतिगामी बनाए रखने में कारगर साबित होगा।

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