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विमर्श

धर्म और लाशों की राजनीति करती स्वार्थी सरकारें और धर्मांध समाज

Prema Negi
23 Oct 2018 5:36 AM GMT
धर्म और लाशों की राजनीति करती स्वार्थी सरकारें और धर्मांध समाज
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विज्ञान और तकनीक के इस दौर में इस बात की क्या आवश्यकता है कि हम रावण जैसे मिथक को हर साल जलाएं...

चक्रपाणि ओझा का विश्लेषण

जनज्वार। अमृतसर में दशहरे के मौके पर आयोजित रावण दहन कार्यक्रम में मची भगदड़ में ट्रेन के नीचे आने से सैकड़ों लोगों की मौत ने व्यवस्था की लापरवाही और भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास की समस्या को एक बार फिर उजागर किया है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। देश में हर वर्ष कहीं न कहीं इस तरह के धार्मिक अवसरों या स्थलों पर भगदड़ मचने से लोग मरते रहे हैं। एक तरफ हमारी सरकारें विकास का नारा दे रही हैं, वहीं दूसरी ओर समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कूप मंडूकता वाली परंपराओं को रोकने का काम न करके बल्कि बढ़ावा देने का ही काम कर रही हैं।

न जाने इस देश में रावण को जलाने की परंपरा कितने सालों से जारी है, लेकिन उसका कोई सार्थक परिणाम आज तक देखने को नहीं मिला। लोग रावण को तो जलाते हैं, लेकिन खुद के भीतर और समाज में बैठे रावण को जलाने का कभी प्रयास नहीं करते। आज रावण को जलाने के चक्कर में सैकड़ों परिवार शोकाकुल हैं, पूरा देश इस हृदय विदारक घटना से स्तब्ध है, लेकिन सत्ताधारी पार्टियां अपनी जिम्मेदारी से मुकर रही हैं।

केंद्रीय रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा ने तो इस दुखद समय में यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि इसमें रेलवे की कोई जिम्मेदारी नहीं है। यह कितना हास्यास्पद सा लगने वाला बयान है जो दिखाता है कि हमारी सरकारें किस हद तक संवेदनहीन हो गई हैं। जब इस देश का हर नागरिक इस घटना से दुखी है, तब यह आरोप प्रत्यारोप का घृणित राजनीतिक खेल खेलना इस व्यवस्था की संवेदनहीनता को ही दर्शाता है।

कितना आश्चर्यजनक है कि रेलवे ट्रैक पर हजारों लोग खड़े हों और रेल प्रशासन तथा कर्मचारियों को यह पता ही न हो कि उनका रेल पथ बाधित है और ट्रेन को बिना रोके जाने दिया गया। यह इस देश की जनता को बेवकूफ बनाने के अलावा और कुछ नहीं है।

सवाल यह है कि पिछले चार दशकों से रावण दहन उसी स्थान पर होता रहा है। लिहाजा सुरक्षा की जिम्मेदारी भी स्थानीय प्रशासन की बनती है, अगर पर्याप्त सुरक्षा होती तो शायद इतनी बड़ी घटना को रोका जा सकता था, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर विज्ञान और तकनीक के इस दौर में इस बात की क्या आवश्यकता है कि हम रावण जैसे मिथक को हर साल जलाएं।

हमें इस तरह के अवैज्ञानिक और कूप मंडूक माहौल को खत्म करना चाहिए, ताकि एक तर्कशील, प्रगतिशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस नागरिक तैयार हो सकें, लेकिन जब देश की सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे लोग ही रावण के पुतलों में आग लगाएंगे। धार्मिक व अंधविश्वास वाले अवसरों को संस्कृति और धर्म के नाम पर बढ़ावा देंगे, तब देश की जवान होती पीढ़ी को हम कैसे समझा पाएंगे कि रावण का पुतला जलाने से रावण नहीं मरता।

हमें समाज में मौजूद रावण जैसे गलत कार्यों को करने वालों व बुरे लोगों व बुरे आचरण को रोकने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें यह भी बताना होगा कि रावण व राम दोनों में कुछ बुराइयां व अच्छाइयां भी हैं। हमें उनसे भी प्रेरणा लेनी चाहिए, लेकिन हमारा पढ़ा लिखा सभ्य समाज अपनी युवा होते पीढ़ी को यह समझाने की जरूरत नहीं समझता।

न तो इस देश के युवाओं को ठीक से राम का चरित्र समझाया जाता है, न ही रावण का न दुर्गा का आज का युवा इन मिथकीय चरित्रों से कुछ भी प्रेरणा नहीं ग्रहण नहीं करता और न ही कुछ जानने व समझने को तैयार है हमारा सभ्य समाज भी उन्हें सिर्फ धार्मिक और सांप्रदायिक बनाने की सोच रखता है।

दुर्गा का नौ दिनों तक मूर्ति रखकर हर चौराहे बाजारों में अश्लील गीतों के साथ नृत्य करना कौन सा धर्म है, ऊंची आवाजों में दोअर्थी गीत और शराब के नशे में मस्त युवा आखिर किस धर्म और संस्कृति के रक्षक बनेंगे, लेकिन हमारा पढ़ा लिखा समाज इन्हें न तो रोकता है और ना ही इन्हें सही रास्ते पर जाने की सीख देता है।

अगर कोई यह कह दे कि लाउडस्पीकर की आवाज थोड़ी धीमी करके बजाओ ध्वनि प्रदूषण होता है तो उसे धर्म विरोधी कहकर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। यह किसी एक धर्म की बात नहीं है। हर धर्म में यह धार्मिक अंधविश्वास आज बड़े पैमाने पर मौजूद है। झाड़-फूंक, टोने-टोटके वाले समाज में लोग आए दिन हादसों की भेंट चढ़ते रहते हैं और हमारी सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ती रहती हैं।

ऐसे में जरूरत है कि हम अपने दिमाग से अंधविश्वासपूर्ण कार्रवाइयों को बाहर निकालें तथा वैज्ञानिक सोच विकसित करें अच्छे बुरे का फर्क तर्क और विज्ञान की दृष्टि से करें न कि अन्य किसी अंधविश्वास के सहारे।

कुल मिलाकर अमृतसर में घटी इस भीषण हादसे ने हर संवेदनशील नागरिक को बेचैन कर दिया है इसका मुकाबला हमें साहस के साथ करना है, लेकिन अब समय आ गया है कि देशवासी अंधविश्वासों से ऊपर उठें। अन्यथा देश की व्यवस्था आपके मौत पर ऐसे ही आरोप—प्रत्यारोप लगाकर अपनी संवेदनहीनता दिखाती रहेगी।

(चक्रपाणि ओझा मुक्त विचारधारा अखबार के संपादक हैं।)

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