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राजनीति

किसानों ने 1 साल में दिया 23 हजार करोड़, 55 फीसदी को नहीं मिला बीमा दावा

Janjwar Team
14 Aug 2017 8:31 AM GMT
किसानों ने 1 साल में दिया 23 हजार करोड़, 55 फीसदी को नहीं मिला बीमा दावा
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सूदखोरों और महाजनों से कर्ज लेने वाले सिर्फ 10 फीसदी किसान करते हैं आत्महत्या, 90 फीसदी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के कारण देते हैं जान

राजेश रपड़िया, वरिष्ठ पत्रकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2015 को स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में बड़ी हसरतों के साथ कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि एवं किसान कल्याण रखने की घोषणा की थी। इसके बाद से किसानों का कल्याण तो नहीं, उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला जरूर बढ़ा है।

तब उन्होंने कहा था कि किसान कल्याण भी कृषि विकास जैसा ही महत्वपूर्ण है। बदले नाम को सार्थक करने के लिए जनवरी 2016 में किसानों की आर्थिक हताशा को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का आगाज किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अब तक जितनी योजनाएं थी, उनकी विशेषताओं को समाहित करती है और उनकी जो कमियां थीं उनका प्रभावी समाधान करती है।

18 फरवरी 2016 को मध्य प्रदेश के सीहोर में एक बड़े किसान सम्मेलन में इस योजना के लिए विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए। इस आयोजन में उन्होंने कहा कि किसान जिन समस्याओं से जूझते हैं, यह स्कीम उनका समाधान है। हमारा पहला उद्देश्य किसानों का विश्वास जीतना है।

इसमें कोई दोराह नहीं है कि यह योजना पहले की फसल बीमा योजनाओं से बेहतर और व्यापक है। इसमें फसल मुआवजे का दायरा बढ़ाया गया है और मुआवजे की राशि बढ़कर तीन गुना हो गई है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञ इस फसल बीमा के प्रारूप से उत्साहित थे कि प्राकृतिक आपदाओं से फसली नुकसान के त्वरित और समयबद्ध भुगतान से किसानों को राहत मिलेगी।

इस योजना में बीमा प्रीमियम दर बेहद कम कर दी गई। अब खरीफ फसल के लिए बीमाकृत राशि का दो फीसदी, रवि फसल के लिए 1.5 फीसदी और वाणिज्यिक फसलों के लिए 5 फीसदी प्रीमियम किसानों को देना होता है। प्रीमियम की बाकी राशि केंद्र और राज्य सरकार बराबर से बीमा कंपनियों को देती हैं। इसमें सीमांत किसानों, काश्तकारों और गैरऋणी किसानों को अधिकाधिक शामिल करने का अहम लक्ष्य भी रखा गया।

त्वरित मुआवजे के लिए हर स्तर पर समय सीमा निर्धारण किया गया। त्वरित मुआवजा भुगतान के लिए नई तकनीक से फसल नुकसान के आंकलन को तरजीह दी गई। स्थानीय, प्राकृतिक आपदाओं जैसे जलभराव, अति ओलावृष्टि से हुई फसल मुआवजे को इसमें शामिल किया गया। इसमें प्राइवेट बीमा कंपनियों को पहली बार शामिल किया गया।

किसान बेहाल, बीमा कंपनियां मालामाल

पर जमीन पर यह अनूठी योजना किसानों का विश्वास जीतने में असमर्थ रही। बल्कि ये फसल बीमा उनके गले की हड्डी बन गया है।

कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2016 की खरीफ फसल में 40 फीसदी अधिक किसानों ने फसल बीमा कराया। 10 करोड़ हेक्टेयर से अधिक जोतों का बीमा हुआ। 2015 की तुलना में बीमाकृति राशि से 104 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। 25 फीसदी से ज्यादा किसानों के फसल बीमा हुए, जिसे 2019 तक 50 फीसदी तक लेते जाने का लक्ष्य सरकार का है।

इस शानदार प्रदर्शन की बदौलत बीमा प्रीमियम संग्रह में भारी इजाफा हुआ, जो बढ़कर तकरीबन 22,500 करोड़ रुपये हो गया। पर बीमा कंपनियां समय रहते किसानों के मुआवजा दावों को निपटाने में विफल रहीं।

कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2016-17 में फसली नुकसान के 55 फीसदी मुआवजे अटके हुए हैं। बीमा कंपनियों के पास 12,409 करोड़ रुपये के क्षतिपूर्ति दावे आए। लेकिन मात्र 45 फीसदी किसानों को ही मुआवजा मिल पाया है।

"डाउन टू अर्थ" पत्रिका के मुताबिक 2016 की खरीफ फसल से बीमा कंपनियों से 9041 करोड़ रुपये प्रीमियम आय हुई। तकरीबन 4270 करोड़ रुपये के क्षतिपूर्ति दावों पर भुगतान किया गया महज 714 करोड़ रुपये का। यह हिसाब-किताब केवल 2016 की खरीफ फसल का है। अप्रैल 2017 तक इन बीमा कंपनियों की फसल बीमा से 15,891 करोड़ रुपये की प्रीमियम आय हुई, पर मुआवजा दिया गया 5692 करोड़ रुपये का। यानी तकरीबन 10 हजार करोड़ रुपये का सीधा मुनाफा बीमा कंपनियों को फसल बीमा प्रीमियम से हुआ।

बीमा कंपनियां समय पर मुआवजा देने पर विफल रही हैं। इससे किसानों का विश्वास टूटा है। समय पर मुआवजा नहीं मिलने से अगली बुवाई पर पर असर पड़ता है, क्योंकि किसान के हाथों में पैसे नहीं होते हैं। बीमा कंपनियां, राज्य और केंद्र सरकारें इसका दोष एकदूसरे पर मढ़ रही हैं। पर यह फसल बीमा योजना भी समय पर मुआवजा दिलाने के उद्देश्य और पहले की फसल बीमा योजनाओं की तरह नाकाम रही है।

इस योजना का एक बड़ा मुख्य उद्देश्य सीमांत किसानों और काश्तकारों को भी सुरक्षा कवच मुहैया कराना था। पर इस उद्देश्य को को पूरा करने में ये योजना ये योजना कारगर साबित नहीं हुई है। कुल कृषि उत्पादन में ऐसे किसानों का योगदान तकरीबन 80 फीसदी है। पर फसल बीमा के दायरे को तमाम प्रयासों के बावजूद 10 फीसदी सीमांत किसान और काश्तकार शामिल हो पाए हैं।

इस अनूठी फसल बीमा की साख गिराने में बैंकों और वित्तीय संस्थानों की भूमिका भी कम नहीं है। असल में फसली कर्ज देने वाली बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने इस योजना को महज कर्ज बीमा में तब्दील कर दिया है। यह संस्थान फसली कर्ज के वितरण से पहले ही उनके खातों में से बीमा प्रीमियम काट लेते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें किसानों को मालूम नहीं है कि उनके पास फसल बीमा पॉलिसी है। नतीजतन उन्होंने क्षतिपूर्ति के लिए दावे ही पेश नहीं किए हैं। यह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना खराब क्रियान्वयन का नायाब नमूना बनकर रह गया है।

बढ़ता किसान असंतोष

कृषि मंत्रालय का नाम बदलने में किसानों का कितना भला हुआ है, इसके कोई प्रमाण नजर नहीं आते हैं। पर किसानी का नया पहलू अवश्य सामने आया है कि अच्छी फसल पैदावार के बावजूद देश में बड़े पैमाने पर किसानों में असंतोष और आक्रोश बढ़ा है। मध्य प्रदेश इसका सटीक उदाहरण है।

अरसे से मध्य प्रदेश का किसान असंतोष, आंदोलनों से दूर रहा है। पिछले कई सालों से मध्य प्रदेश में कृषि प्रगति की मिसाल रही है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सीहोर में फसल बीमा पर 18 फरवरी 2016 को आयोजित महा सम्मेलन में कृषि में बेमिसाल प्रगति के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की तारीफ के पुल बांध दिए थे। पर जून महीने में ही सीहोर जिले में आर्थिक तंगी से 10 से अधिक किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आ चुकी हैं।

मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के मंदसौर जिले में 6 जून को पुलिस की गोलीबारी से 5 आंदोलनकारी किसान मारे गए थे। इससे मध्य प्रदेश में किसान कल्याण की कलई खुल गई थी। महाराष्ट्र से किसान आंदोलन की खबरें मार्च महीने में ही आना शुरू हो गई थीं। इन राज्यों के किसान आंदोलन का चौंकाने वाला पहलू यह है कि यह आंदोलन वर्षों से आपदा झेल रहे महाराष्ट्र के विदर्भ, मराठवाड़ा या मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड से शुरू नहीं हुए, ना ही वहां आंदोलन की कोई धमक सुनाई दी।

यह आंदोलन मध्य प्रदेश के संपन्न मालवा और पश्चिम महाराष्ट्र से शुरू हुए। इन आंदोलनों से साफ है कि अच्छी पैदावार भी अब किसानों के लिए जी का जंजाल बन गई है।

80 प्रतिशत किसान करते हैं कर्ज के कारण आत्महत्या

किसानों की आत्महत्याओं को लेकर भाजपा के केंद्रीय या प्रदेशों के मंत्री अजीबोगरीब तर्क देते रहते हैं कि अधिकांश किसान आत्महत्याओं का कारण शराब खोरी है या प्रेम प्रसंग। पर हाल में आई नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ने ऐसे तर्कों पर विराम लगा दिया है।

इस रिपोर्ट के अनुसार बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थानों के कर्ज बोझ के कारण 80 फीसदी किसान आत्महत्याएं होती है। ब्यूरो ने पहली बार कर्ज स्रोत के आधार पर किसान आत्महत्याओं को श्रेणीबद्ध किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार महाजनों, सूदखोरों से कर्ज लेने वाले किसानों में आत्महत्याओं का प्रतिशत 10 फीसदी से कम है, जबकि ज्यादा से ज्यादा किसान इनसे महंगी ब्याज दरों पर कर्ज लेते हैं।

इससे बेखौफ निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महाजनों की कर्ज वसूली से बैंकों और वित्तीय संस्थानों की कर्ज वसूली ज्यादा निर्मम और सख्त है। यह देश के आर्थिक नियंताओं के लिए खतरनाक संदेश है।

(वरिष्ठ पत्रकार राजेश रपड़िया आर्थिक मामलों के विश्लेषक हैं।)

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