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आंदोलन

करोड़पतियों को बंगाली मज़दूर ही क्यों चाहिए

Janjwar Team
19 July 2017 1:19 PM GMT
करोड़पतियों को बंगाली मज़दूर ही क्यों चाहिए
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फैक्ट फाइंडिंग टीम की पड़ताल में यह उभरा तथ्य इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अभी कुछ ही दिन ही पहले बंगाली मजदूरों को बंग्लादेशी कहकर उनकी वाजिब मांगों का हाशिए पर डालने की कोशिश की जा रही थी...

यह दक्षिण एशिया में स्वयंभू सुपर पॉवर और दुनिया में सबसे तेज ‘विकास’ कर रहे भारत देश की संसद से महज 35 किलोमीटर यानी एक घंटे की दूरी पर स्थित इलाक़ा है. ये इलाक़ा नोएडा सेक्टर 78 कहलाता है, जोकि अधबसे विश्वस्तरीय शहर ग्रेटर नोएडा और अभी बसने की खानापूर्ति में अधर में लटके ग्रेटर नोएडा एक्सटेंशन (नोएडा एक्सटेंशन नाम से पॉपुलर) से लगभग सटा हुआ है.

यहां असंख्य हाईराइज़ इमारते हैं. पुराने शहरों के मुहल्ले और गांव वालों को बेशक लग सकता है कि वो किसी दूसरे देश में आ गए हैं.

इन्हीं सोसाइटियों में से एक महागुन मॉडर्न में 11 जुलाई 2017 को फ्लैट नंबर 102, जिसमें कोई शेट्टी परिवार रहता है, एक महिला ज़ोहरा बीबी हर रोज़ की तरह काम करने गई. आम तौर पर दोपहर 11-12 बजे तक काम ख़त्म करने के बाद लोग अपनी झुग्गी में लौट आते हैं और फिर शाम चार बजे के बाद जाते हैं. लेकिन उस दिन ज़ोहरा नहीं लौटी.

उनके पति अब्दुल भी मज़दूरी करते हैं, जब वो शाम को लौटते हैं तो उन्हें ज़ोहरा नहीं मिलती हैं. काफ़ी छानबीन के बाद वो और उनका बेटा राहुल 11 बजे महागुन मॉडर्न सोसाइटी के गेट पर स्थित रिसेप्शन के सुरक्षा गार्डों से पूछते हैं. गार्ड जब उन्हें टालने की कोशिश करते हैं, तो वो 100 नंबर पर पुलिस को फ़ोन करते हैं.

दो सिपाही आते हैं. अब्दुल और उनके बेटे को लेकर सोसाइटी के 102 नंबर फ्लैट में पहुंचते हैं. सिपाही उन्हें गेट के बाहर ही रोक देता है और खुद अकेले अंदर दाखिल होता है. कुछ देर बाद वो लौट आता है और बताता है कि ज़ोहरा बीबी वहां नहीं हैं. वो गुमशुदगी की शिकायत सेक्टर 49 में स्थित संबंधित थाने में देने को कहकर चला जाता है. वो लोग रात में थाने जाते हैं, शिकायत दर्ज कराते हैं और तस्वीर आदि सुबह दे जाने की बात कह कर लौट आते हैं.

पूरी रात ज़ोहरा बीबी का पता नहीं चलता. 12 जुलाई, 2017 को सुबह फिर अब्दुल अपने बेटे राहुल को लेकर सोसाइटी गेट पर पहुंचते हैं. वहां गार्ड से वो एंट्री, एक्ज़िट का रजिस्टर दिखाने को कहते हैं, जिसमें ज़ोहरा का एक्ज़िट दर्ज़ नहीं होता है. अब्दुल अड़ जाते हैं कि उनकी बीबी सोसाइटी में ही है. उन्हें ये भी शक होता है कि ज़ोहरा के साथ कोई अनहोनी तो नहीं हो गई.

इसी बीच घरों में काम करने के लिए घरेलू कामगार आना शुरू कर देते हैं. गेट पर अब्दुल की हुज्जत से एंट्री का काम रुक जाता है और फ्लैटों में काम करने वाले सफ़ाई कर्मचारी, माली, मेंटेनेंस, बिजली, चौका बर्तन करने वाली महिलाएं इकट्ठा होती जाती हैं. अब्दुल अपनी बस्ती से भी आठ दस लोगों को बुला लेते हैं. शोर शराबे के बीच लोग मांग करते हैं कि या तो ज़ोहरा बीबी को खोजा जाए या फिर उन्हें अंदर जाने दिया जाए.

इस बीच नौबत धक्का मुक्की की आ गई, मौके पर मौजूद लोगों के अनुसार, इसे नियंत्रित करने के लिए ‘गार्ड एक के बाद एक तीन हवाई फ़ायर’ किये. भीड़ उग्र हो गई. लोग पथराव करने लगे. इस पथराव में रिसेप्शन का एक तरफ़ का शीसा पूरी तरह टूट गया. 500 की भीड़ से कुल जमा इतना नुकसान दिखाई देता है.

महागुन मॉडर्न में जब ये हंगामा बाहर चल रहा था तो फ्लैट मालिकों में भी एक बात को लेकर मतभेद पैदा हो गया था. शायद मीटिंग इसीलिए बुलाई गई क्योंकि सभी एकमत नहीं थे कि इन बंगाली महिला घरेलू कामगारों से बिल्कुल भी काम न लिया जाए. दरअसल इसके पीछे भी मुनाफ़ा और पूंजी का तर्क काम कर रहा था. यहां आम तौर पर न्यूक्लियस फ़ैमिली वाले घरों में हाउस कीपिंग का खर्च अभी पांच हज़ार के आसपास है.

ज्यादातर फ्लैट मालिक सर्विस क्लास के हैं यानी उन्हें नव धनाढ्य कहा जा सकता है. कर्ज चुकाने, अन्य खर्चों और बचत की चिंता में उन्हें बंगाली मज़दूर सस्ते पड़ रहे हैं. अगर ये काम किसी हाउस कीपिंग एजेंसी से कराए जाएं तो ये खर्च सीधे दो गुना या तीन गुना तक जा सकता है. कुछ फ्लैट मालिक गुड़गांव की तरह की व्यवस्था चाहते हैं, जहां हाउस कीपिंग सेवा देने वाली एजेंसियों के मार्फत घरेलू कामगार मुहैया कराते हैं और इसके बदले 20-20 हज़ार तक वसूलते हैं.

यूनियन के कार्यकर्ता आलोक कुमार का कहना है कि, ‘बंगाली मज़दूर बाज़ार भाव से सीधे आधे दामों पर काम करते हैं. अगर एजेंसियों की तरफ़ से मेड रखा जाए तो उसकी कुछ शर्तें होती हैं, उसे सर्वेंट क्वार्टर में रखेंगे तो उसके खाने का भी खर्च उठाना पड़ेगा.’

फ्लैट मालिकों का ये अंतरविरोध जेएलएल जैसी बड़ी पूंजी का एक प्रोटोटाइप भर है. बंगाली मज़दूर इसलिए सस्ते में काम कर लेते हैं कि वो अप्रवासी हैं, लोकल नहीं. लोकल उस तरह की स्थितियां सहन नहीं कर सकते जैसा एक माइग्रैंट लेबर कर सकता है.

दूसरे ये अप्रवासी मज़दूर उन स्थानीय गांव वालों की कमाई का एक बड़ा ज़रिया हैं, जिनकी ज़मीनें अधिग्रहित कर अट्टालिकाएं तो खड़ी कर दी गईं लेकिन उनके रोज़गार का कोई इंतज़ाम नहीं किया गया. ये गांव वाले इन मज़दूरों को किराए पर कमरे देते हैं, उन्हें राशन देते हैं, इसी वजह से उनकी दुकानें चलती हैं और सबसे बड़ी बात कि, उन मज़दूरों से वे दबदबे के साथ तीन का तेरह वसूल सकते हैं.

इसलिए माइग्रैंट मज़दूर यहां के निचले स्तर की अर्थव्यवस्था की जान भी हैं. वैसे भी ग़रीबी के समंदर के बीच अमरी के ये छोटे छोटे द्वीप इन्हीं वजहों से चमकते दिखते हैं. हर पॉश कॉलोनी के ईर्द गिर्द झुग्गी झोपड़ी या अम्बेडकर कॉलोनी इसीलिए बसने दी जाती हैं.

महागुन मॉडर्न का मामला इससे अलग नहीं है. घरेलू कामगारों की कितनी फौज यहां काम करती है अगर देखना हो तो सुबह छह बजे महागुन या अंतरिक्ष अपार्टमेंट या ऐसे ही किसी बहुमंजिली रिहाइशी इमारत के सामने खड़े हो जाएं, आप देखेंगे कि फैक्ट्रियों में सुबह आठ बजे जिस तरह लाइन लगा कर मज़दूर अंदर जाते हैं, वही हाल यहां का है. बस फैक्ट्री मज़दूरों की तरह इनके वो अधिकार नहीं हैं, न इनका पीएफ़ कटता है, न मेडिकल की सुविधा होती है और पीरियड्स की छुट्टी, महिला सुरक्षा, रात की ड्यूटी और गर्भधारण जैसी छुट्टिओं की तो यहां कोई सोच भी नहीं सकता.

ऐसा लगता है कि जैसे इस देश में लेबर कैंप बना दिए गए हों. जैसे जैसे अमीरी गरीबी की खाई बढ़ती जाएगी लेबर कैंपों की संख्या भी बढ़ेगी और असंतोष. आखिर वो भी इसी आज़ाद भारत के नागरिक हैं और अट्टालिकाओं में रह रहे किसी नागरिक से उनका मानवाधिकार कम नहीं है!

जब थानाध्यक्ष परशुराम ये सवाल किया गया कि ‘क्या क़ानून की नज़र में शेट्टी परिवार और ज़ोहरा बीबी में कोई अंतर है?, उनकी भी आवाज़ कांप गई थी.’ पर सच्चाई सभी जानते हैं.

फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य
डॉ सिद्धार्थ, कमलेश कमल, नन्हे लाल और संदीप राउज़ी

(नोएडा में घरेलू कामगारों और फ्लैट निवासियों के बीच संघर्ष की पड़ताल : एक रिपोर्ट का संपादित अंश। रिपोर्ट के अगले महत्वपूर्ण हिस्से कल प्रकाशित किए जाएंगे।)

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