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संस्कृति

ज़ैनुल आबेदिन की 'घाट पर प्रतीक्षा'

Prema Negi
13 Aug 2018 12:45 PM GMT
ज़ैनुल आबेदिन की घाट पर प्रतीक्षा
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ज़ैनुल आबेदिन उन चित्रकारों में प्रमुख थे जिन्होंने अपने चित्रों में ऐसे साधारण से लगने वाले विषयों पर असाधारण चित्र बनाकर, दर्शकों को चित्रकला की नयी संभावनाओं के साथ परिचित कराया

अशोक भौमिक, वरिष्ठ चित्रकार और लेखक

चित्रकला इतिहास में कुछ ऐसे चित्र भी हैं जो महज अपनी सरलता के चलते हमारे मन को छू जाते हैं। ऐसा ही एक चित्र है ज़ैनुल आबेदिन का बनाया हुआ 'घाट पर प्रतीक्षा' ज़ैनुल आबेदिन उन विरल चित्रकारों में से एक हैं, जिनके चित्रों की 'भव्यता' उनके सहज होने के कारण ही है।

उनके चित्रों के माध्यम भी प्रायः उनके चित्रों के विषयों के सामान ही साधारण है। 'घाट पर प्रतीक्षा' चित्र में एक पिता अपने बेटे के साथ एक नदी किनारे बैठे नाव के आने की प्रतीक्षा कर रहा है। ज़ैनुल आबेदिन ने इस चित्र में एक ओर बेहद सीमित रंगों का प्रयोग किया है, तो दूसरी ओर तमाम सूक्ष्म विवरणों को चित्र में दर्ज़ किया है, जो इस चित्र को देखते हुए हमारे सामने क्रमशः खुलते हैं।

चित्र में पिता और पुत्र दोनों ने चादर से अपना शरीर और सर ढँक रखा है। कहना न होगा की ये गाँव के गरीब लोग हैं। गौर से देखने पर हमें दोनों के बेतरतीब बाल दिखते हैं साथ ही बच्चे के चादर पर लगे पैबंद को भी हम देख पाते है।

ये दोनों नदी किनारे के एक कच्चे घाट पर बैठे हैं जहाँ सीढ़ियाँ नहीं है, बल्कि केवल एक खूँटी ही लगी है जहाँ नावों को बाँधा जाता है। बच्चे के बगल में जमीन पर एक कतार में बने पैरों के निशान भी चित्र का एक गौरतलब पहलू है, जो चित्रकार की पैनी नज़र से अछूती नहीं रह गयी है।

यह चित्र, हाट से शाम को घर वापस लौटते, नाव का इंतज़ार करते एक पिता और पुत्र का है। पिता के बगल में रखे खाली टोकरी से हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस टोकरी में शायद सब्ज़ी या कुछ लेकर उसे बेचने, ये दोनों हाट में आये थे और अब दुकानदारी ख़त्म कर खाली टोकरी, दो तेल की शीशियों और एक हाँडी को साथ लिए अपने घर वापस जाने के लिए नदी किनारे बैठे नाव का इंतज़ार कर रहे हैं। ज़ैनुल आबेदिन ने गाँव-देहातों में तेल की शीशियों को लटकने के लिए शीशी के गर्दन के पास बाँधें जाने वाले रस्सी के छल्लों को भी दिखाया है।

चित्र में एक खामोशी है साथ ही शाम के वक़्त नदी किनारे के बढ़ते ठण्ड को भी हम अनुभव कर पाते हैं। चित्र में विशाल नदी का दूसरा तट भी दिखता है। क्षितिज को स्पष्ट करने के लिए चित्रकार ने सफ़ेद रंग का बेहद संतुलित प्रयोग किया है।

सदियों से चित्रकला में ऐसे सहज-सरल लोगों की जिन्दगियों से जुड़े साधारण विषयों पर कभी किसी ने चित्र बनाने की जरूरत नहीं समझी। ज़ैनुल आबेदिन उन चित्रकारों में प्रमुख थे जिन्होंने अपने चित्रों में ऐसे साधारण से लगने वाले विषयों पर असाधारण चित्र बनाकर, दर्शकों को चित्रकला की नयी संभावनाओं के साथ परिचित कराया।

ज़ैनुल आबेदिन (1914 -1976) का जन्म अविभाजित भारत के किशोरगंज जिले (अब बांग्ला देश) में हुआ था। 1931 में उन्होंने कलकत्ता के सरकारी कला विद्यालय में दाखिला लिया था, बाद में इसी विद्यालय के वे शिक्षक भी बने। बांग्ला देश में चित्र कला शिक्षा के प्रसार और कला महाविद्यालय की स्थापना में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान था, जिसके कारण बांग्ला देश में वे 'शिल्पाचार्य' के नाम से जाने जाते हैं। 1943 के बाद चित्तप्रसाद, कमरुल हसन, सोमनाथ होड़ आदि के साथ साथ ज़ैनुल आबेदिन ने भारतीय चित्रकला में प्रगतिशील और जनपक्षधर धारा की नींव रखी थी।

ज़ैनुल आबेदिन के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण चित्र श्रंखला के रूप में हम 1943 के महा अकाल के दौरान बनाये गए उनके काले-सफ़ेद चित्रों को पाते हैं, जिसमें उन्होंने अकाल पीड़ित लोगों के अविस्मरणीय चित्र बनाये थे। उन्होंने बांग्ला देश के मुक्ति युद्ध (1971) और प्राकृतिक आपदाओं पर भी अनेक यादगार चित्र बनाये थे।

इस आलेख के साथ लगा चित्र हमें शिल्पाचार्य के सुपुत्र मैनुल आबेदिन के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।

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