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जनज्वार विशेष

एचआर वाली लड़कियों को ऐसे नहीं मिलता मोटा पैसा

Janjwar Team
19 Sep 2017 5:43 PM GMT
एचआर वाली लड़कियों को ऐसे नहीं मिलता मोटा पैसा
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मुझे घर पहुंचने में आठ बजने से 5 मिनट भी फालतू होते नहीं कि सबके सवालों की झड़ियां शुरू हो जातीं। ताने कुछ यूं होते कि पता नहीं कहां से गुलछर्रे उड़ाकर आ रही हूं...

'हाउस वाइफ' कॉलम में पढ़िए इस बार गाजियाबाद से मिताली शुक्ला को

मेरी शादी को 12 साल बीत चुके हैं। शादी से पहले से ही मैं नौकरी करती थी। पापा और भैया से बहुत मिन्नतें करने के बाद एचआर में एमबीए किया था, सो चाहती थी कि शादी के बाद भी अपनी नौकरी जारी रखूं।

मैं मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती थी, तो पापा ने मां के न चाहने के बावजूद पाई—पाई जोड़कर मेरी पढ़ाई पर खर्च किया था। मां की तमन्ना हमेशा भाइयों को पढ़ाने और मेरी शादी को लेकर रहती थी।

एचआर से एमबीए करने के बाद नौकरी करते हुए अभी सालभर भी नहीं बीता था कि घरवालों से ज्यादा रिश्ते—नातेदारों को मेरी शादी की चिंता होने लगी। पापा—मम्मी से रिश्तेदार कहते, देख लीजिए शर्मा जी, लड़की नौकरी करने लगी है। कहीं पंख न लग जाएं इसे, कहीं ढंग का लड़का देखकर शादी क्यों नहीं करवा देते इसकी। पता चला कि आपकी नाक ही न कटवा दे।

पापा कहते कि अभी तो नौकरी करते हुए उसे कुछ दिन भी नहीं हुए हैं, शादी थोड़ा रुककर करेंगे। मगर मां की जिद और रिश्तेदारों से तंग आकर आखिरकार उन्होंने मेरे लिए रिश्ते ढूंढ़ने शुरू कर दिए। मेरे लिए एक रिश्ता अविनाश का आया। वो एचआर से ही एमबीए थे। तो पापा को लगा कि सेम प्रोफेशन होगा, तो बिटिया को अच्छी तरह समझेगा। नौकरी को भी रुकावट नहीं समझेगा।

मैं खुद अच्छा—खासा सेलरी पैकेज पाती थी, बावजूद उसके मेरे पापा ने अपनी हैसियत से बढ़कर मेरी शादी में खर्च किया, मेरे न चाहने के बावजूद खूब दहेज दिया कि ससुराल में ताने न सुनने पड़ें।

मगर पापा यहां पर अविनाश को समझने में गच्चा खा गए थे। शादी से पहले तो मेरे सास—ससुर और पति अविनाश ने मेरे नौकरी करने को लेकर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की, मगर शादी के बाद का माहौल मेरे लिए अकल्पनीय था।

नई—नई शादी के बाद कुछ दिन तो घर में नौकरानी थी, मगर दो महीने बाद ही सासू मां ने नौकरानी को विदा कर दिया, यह कहते हुए कि घर की रसोई में तो बहू ही शोभा देती है। ये मेरे उत्पीड़न की अभी शुरुआत थी। सुबह 4 बजे से उठकर मैं घर के काम निबटाती, सास—ससुर का नाश्ता, लंच बनाकर रख जाती। अपना और अविनाश का नाश्ता—लंच तैयार कर पैक करती।

इस अफरातफरी में कब निकलने का टाइम हो जाता, पता ही नहीं चलता। उस पर भी सासू मां मीन—मेख निकालतीं कि तुम्हें मां ने खाना बनाना नहीं सिखाया क्या, ऐसे ही रहते हैं ससुराल में। ऐसा वो तब कहतीं जबकि कुकिंग मेरा शौक रहा है और वो खुद शुरू में मेरे बनाए खाने की तारीफ करते नहीं थकती थीं।

खैर, मैं उनके तानों पर तड़पकर रह जाती। क्योंकि हर काम बहुत मन से करने के बावजूद मुझे ताने ही मिलते। सुबह मुझे 9 बजे आॅफिस पहुंचना होता था। आॅफिस गुड़गांव में था और ससुराल गाजियाबाद में। अविनाश को आॅफिस भी गुड़गांव में ही था। शुरू में तो वो मुझे आॅफिस ड्राप कर देते, मगर बाद में कुछ न कुछ बहाना बनाकर मुझसे निकलने से पहले चल देते।

शुरुआत में तो ससुराल में सूट पहनती थी और आॅफिस भी सलवार—सूट ही पहनकर जाती, मगर मेरा वर्क प्रोफाइल ऐसा था कि मुझे जींस या कोट—पैंट पहनना होता था। थोड़े दिन बाद जब मैं कोट—पैंट पहनकर आॅफिस के लिए निकलने को हुई, तो जैसे घर में महाभारत ही छिड़ गया। ससुरजी ने कहा किस कुलक्षिणी को ब्याहकर ले आए, इसमें तो शर्म—हया नाम की चीज ही नहीं है। नाक कटवायेगी हमारी।

मेरे पति अविनाश मेरी प्रोफेशनल जरूरतों को अच्छी तरह जानते थे, मगर उन्होंने मां—बाप के आगे चूं तक नहीं की। हां एक बात और, मेरे ससुर जी को लोग आधुनिक विचारों का प्रणेता मानते थे। दूसरों के आगे वे ज्ञान बघारते रहते थे कि लड़कियों को आगे बढ़ाने में सहयोग करना चाहिए। और सास खुद स्लीवलैस सूट—साड़ी पहनती थीं।

जब मैंने सास से कहा कि ये मेरी नौकरी की जरूरत है तो वो और ज्यादा भड़क गईं और मैंने अविनाश की तरफ उम्मीद से देखा कि वो सफाई में कुछ कहें तो उन्होंने कंधे उचकाकर और मुझे नहीं पता तुम्हारे आॅफिस में क्या होता है कहकर पल्ला झाड़ लिया। उस दिन आॅफिस नहीं गई। खूब रोई।

अविनाश से जब इस बारे में बात की तो उन्होंने साफ—साफ कह दिया कि वो नहीं चाहते मैं नौकरी करूं। कहा, मुझे खूब पता है एचआर फील्ड में लड़कियां कैसी होती हैं। ऐसे ही इतना मोटा पैकेज नहीं मिलता उसकी कीमत चुकानी पड़ती है उन्हें। गुलछर्रे उड़ाती रहती हैं, इसीलिए तो इतना बन—ठनकर और वेस्टर्न आउटफिट के साथ आॅफिस जाती हैं। मेरी कलीग को मैंने ऐसा करते देखा है, तुम कौन सा उनसे अलग होगी।

मेरे तो जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई। जिसे मैं खुले विचारों वाला और पापा ने ये सोचकर शादी की थी कि नौकरी में बाधा नहीं बनेगा, उसकी सोच तो एकदम ही गई—गुजरी निकली।

अब तो आॅफिस जाने से पहले और आॅफिस से आने के बाद तानों की बौछार तैयार रहती थी मेरे लिए। हां, सेलरी जरूर अविनाश मुझसे लेकर अपनी मां को थमा देते थे। उसमें से मेरी पॉकेट मनी भी सासू मां देतीं। मेरी बैंक पासबुक, चैकबुक, एटीएम सबपर अविनाश ने कब्जा कर लिया।

सुबह—शाम घर में खटती और दिन में आॅफिस में काम करती, डिप्रेशन में जा रही थी मैं धीरे—धीरे। सोचा इस बारे में पापा से ही बात कर लूं। पापा से बात की तो उन्होंने अविनाश को समझाने की कोशिश की, मगर पापा की बात समझने के बजाए अविनाश ने इसे अपने अहं पर चोट समझा और घर में रार मचाकर रख दी।

मुझे घर पहुंचने में आठ बजने से 5 मिनट भी फालतू होते नहीं कि सबके सवालों की झड़ियां शुरू हो जातीं। ताने कुछ यूं होते कि पता नहीं कहां से गुलछर्रे उड़ाकर आ रही हूं। इसी तरह शादी का एक साल पूरा हो गया। पर मेरे लिए जीवन दिन—ब—दिन कठिन होता जा रहा था। अपनी मर्जी से सांस तक नहीं ले पाती थी। मायके तक नहीं जाने दिया जाता।

अविनाश को मेरा पैसा तो चाहिए था, मगर बीवी ऐसी चाहिए थी जो संस्कारी हो, मुंह से चूं तक न करे, उनके हर आदेश का पालन करे। इंसान ही थी मैं, कब तक सहती। मुंह खोला तो तलाक की धमकी मिली और कहा कि शायद तुम्हें कोई और भा गया होगा।

इस बार जब मैं मायके गई तो सोचा फिर लौटकर उस जहन्नुम मैं वापस नहीं जाउंगी अपनी लाइफ अपनी शर्तों पर जिउंगी। पर कहां बदा था ये मेरी किस्मत में। पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं। मां—पापा ने लोक—लाज और समाज का डर दिखाकर फिर वापस भेज दिया।

गर्भवती होने के 7 महीने तक नौकरी की, फिर नौकरी छोड़ दी। बेटी को जन्म दिया, वो भी शायद मेरी ही किस्मत लेकर पैदा हुई जिसे प्यार कम उलाहने ज्यादा नसीब हुए। सास ने कभी उसे प्यार से गोदी तक नहीं लिया, दादू के प्यार के छटपटाती मेरी बेटी और पापा के दर्शन तो उसे हफ्ते में एक दिन होते। और बाकी टाइम जब उसका सामना अपने पापा से होता तो उनका रूप कुछ और ही होता कि वो सहमकर चुपचाप बिस्तर में दुबक जाती।

जिंदगी यूं ही गुजरती गई और मैंने भी वक्त से समझौता कर लिया। अब मैं सबकी जरूरतें पूरी करने वाली मशीन हूं। कांफिडेंस इतना डगमगा गया है कि बेटी के स्कूल में पीटीएम के वक्त मैडम से भी ठीक से बात नहीं कर पाती।

कई बार सोचती हूं कि बेटी अब 10—11 साल की हो गई है, अब फिर से बाहर की दुनिया में निकलूं मगर फिर पहले के हालातों को याद कर कांप जाती हूं। हां, मगर ये जरूर ठाना है कि अपनी बेटी को अपनी जैसी जिंदगी नहीं झेलने दूंगी। मेरे मां—पापा की तरह समाज के डर से दब्बू नहीं बनूंगी, उसकी जिंदगी मैं अगर मेरी जैसी स्थिति आए तो ढाल बनकर खड़ी होउंगी उसके लिए।

बेटी का भला चाहने वाली भारत की शायद हर मां ऐसी ही होती होगी जो अपने जैसी अपनी बेटी को नहीं बनने देना चाहती होगी। यह कैसी अभागी बात है। पर है!

Janjwar Team

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