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विमर्श

कश्मीर में मोहरे नहीं, बिसात बदलने की जरूरत

Janjwar Team
13 Aug 2017 10:37 AM GMT
कश्मीर में मोहरे नहीं, बिसात बदलने की जरूरत
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यदि शरद कुमार कश्मीर के गवर्नर बने तो वहां के पहले आईपीएस गवर्नर होंगे. उनका पलड़ा इसलिए भारी दिखता है क्योंकि हिंदुत्व आतंकी गिरोह के मुकदमों को कमजोर करने के एवज में उनका किसी न किसी रूप में पुरस्कृत किया जाना तय है...

वीएन राय, पूर्व आईपीएस

कश्मीर में अलगाववादी राष्ट्रवाद और संघी राष्ट्रवाद की नूरां कुश्ती में, केन्द्रीय सत्ता के पिटे हुए यथास्थितिवादी मोहरे राज्यपाल एनएन वोहरा की कश्मीर से विदाई पंद्रह अगस्त के बाद लगभग तय मानी जा रही है.

इस पैंतरेबाजी से यह सन्देश भी दिया जा सकेगा कि मोदी सरकार को राज्य में अलगाववादी गिरोह को लडडू खिलाने वाले हाथ नहीं चाहिए. अन्यथा, कांग्रेसियों के लगाये वोहरा, तीन वर्ष से मोदी और मुफ्ती के बीच पुल बने हुये थे.

निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को मुस्लिम असुरक्षा का मुद्दा उठाने पर जी भर गरियाने वाला सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, कश्मीर में सुरक्षा के नाम पर अपने मोहरे एनआइए चीफ शरद कुमार को वोहरा की खाली कुर्सी पर देखना चाहेगा. इसके लिए पिछले दो महीने से घाटी में अलगाववादियों पर एनआइए रेड का सिलसिला चलाकर माहौल बनाया जा रहा है.

दूसरी तरफ, महबूबा मुफ़्ती ने इस नूरां कुश्ती के बीच में दांव पेंच बढ़ाते हुए यहाँ तक कह दिया कि कश्मीर के विशेष दर्जे वाली संविधान की धाराओं 35ए या 377 से कोई छेड़छाड़ की गयी तो घाटी में कोई तिरंगा उठाने वाला नहीं मिलेगा. हड़बड़ी में वे मोदी से भी मिल आयीं.

वोहरा की छुट्टी होने की सूरत भांपकर तमाम जनरलों और नौकरशाहों ने अपनी अर्जियां आगे बढ़ा रखी हैं.साथ ही, जब से जनरल बिपिन रावत वरिष्ठों को फलांग कर सेनाध्यक्ष बने हैं, संघी सत्ता केन्द्रों की गणेश परिक्रमा भी चल निकली है. लेकिन पलड़ा शरद कुमार का इसलिए भारी दिखता है क्योंकि हिंदुत्व आतंकी गिरोह के मुकदमों को कमजोर करने के एवज में उनका किसी न किसी रूप में पुरस्कृत किया जाना तय है.

2007 के अजमेर शरीफ हमले के मामले में एनआइए द्वारा अपने ही गवाहों को तोड़ने के बावजूद, दो संघी आतंकियों को सेशन अदालत से आजीवन कारावास की सजा हो चुकी है. लेकिन इसी कड़ी के समझौता ट्रेन मामले में एनआइए ने लगभग सभी अभियोजन गवाह बैठा दिये हैं और इसका पूरा श्रेय शरद कुमार को दिया जा रहा है.

हिंदुत्व गिरोह के हैदराबाद मक्का मस्जिद और महाराष्ट्र मालेगांव आतंकी केसों में भी एनआइए की यही भूमिका रही है. मालेगांव मामले में तो अभियोजक ने अपने ऊपर दबाव का आरोप मीडिया के सामने भी खुल कर लगाया था.

स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने सीबीआई डायरेक्टर की चयन समिति के अध्यक्ष के रूप में, जिसके अन्य सदस्य सीजेआई और नेता प्रतिपक्ष लोकसभा होते हैं, तर्क दिया कि शरद कुमार की एनआइए में जरूरत है लिहाजा सीबीआई के लिए उनके नाम पर विचार न किया जाये. इसकी पुष्टि ढाई साल पहले हुयी चयन समिति की बैठक के मिनिट्स से की जा सकती है.

वैसे शरद कुमार दो वर्ष पहले आईपीएस से भी रिटायर हो चुके हैं, लेकिन उन्हें ‘उपयोगी’ पाकर मोदी सरकार उनका कार्यकाल दो बार बढ़ाया है. भारतीय पुलिस के इतिहास में यह अपनी तरह का पहला मामला है, जहाँ एक रिटायर हो चुके अधिकारी को आपराधिक अनुसन्धान की नियमित शक्तियां मिली हुयी हैं. यदि वे कश्मीर के गवर्नर बने तो वहां के पहले आईपीएस गवर्नर होंगे.

सवाल बनता है,शरद कुमार को पुरस्कारस्वरूप कश्मीर का गवर्नर लगवा कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकार वहां हासिल क्या कर पायेंगे? उनके इस पैंतरे से देश के लिए कश्मीर की कड़वी सच्चाई बदलने नहीं जा रही. पहले भी कश्मीर में इस तरह की तमाम पहल, मूर्खता और दुस्साहस का अधकचरा नमूना ही सिद्ध हुई हैं.

ध्यान कीजिये, वाजपेयी-आडवाणी के 6 वर्ष के सत्ता दौर में भारत-पाक सीमा पर बॉर्डर फेंसिंग का काम शुरू किया गया था. इसमे देश के हजारों करोड़ लग चुके हैं, लेकिन न इससे आतंकी घुसपैठ रुकी है, न ड्रग तस्करी.

अंतर्राष्ट्रीय नियमों के मुताबिक जीरो लाइन पर कोई सुरक्षात्मक स्ट्रक्चर खड़ा नहीं किया जा सकता. लिहाजा यह फेंसिंग सीमा से 150 गज भीतर बनाई गई है. यानी कश्मीर से गुजरात तक भारत को अपनी हजारों किलोमीटर जमीन की 150 गजचौड़ी पट्टी लावारिस छोड़नी पड़ी है, जो पाकिस्तानी घुसपैठियों के बेरोक-टोक विचरण के काम आती है.

इसी प्रकार कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाली मोदी सरकार की मामले में एक इंच प्रगति भी नजर नहीं आती. जबकि, फिलहाल पाकिस्तान सीमा पर लगातार अंधाधुंध गोलीबारी के चलते जम्मू और पंजाब के हजारों भारतीय परिवार बेघर होकर अरसे से विस्थापित का जीवन जीने पर मजबूर हैं. कुछ दिन मीडिया में उनकी ख़बरें आयीं, पर अब पंडितों की तरह उनकी भी बात नहीं की जाती.

दरअसल, कश्मीर में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भाजपाई एजेंडा राजनीतिक-सामरिक दलदल में बुरी तरह फंसा हुआ है और उनका बड़बोलापन बगलें झांकता घूम रहा है. केंद्र में काबिज और राज्य की सत्ता में भागीदारी के बावजूद, उत्तरोत्तर मात्र सैन्यवाद पर निर्भरता के चलते, कश्मीरियों का विश्वास भी वे खो चुके हैं.

सैन्य बल आतंकी घुसपैठियों के विरुद्ध घाटी में आज विशेष सक्रियता दिखा रहे हैं. सेना का दावा है कि इससे वहां पत्थरबाजों का आयोजन ढीला पड़ा है. हालाँकि,इसमें नया कुछ नहीं है और आंकड़ों में सफल दिखने के ऐसे राष्ट्रवादी दौर पहले भी आये-गये हैं. देखा जाये तो कश्मीरी अनिश्चितता को लेकर मूल सवाल कुछ और बनते हैं.

कश्मीर के विशेष दर्जे का सम्मान होगा या नहीं? क्या अलगाववाद को खत्म किया जा सकेगा? क्या कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को सुरक्षा और न्याय के आधार पर उलटा जा सकेगा? सबसे बढ़कर, क्या कश्मीर को लेकर भारत-पाक के बीच शांति बहाली के प्रयासों में दूरगामी सफलता मिलेगी?

वोहरा के हटने या शरद कुमार के गवर्नर लगने के बावजूद, दुर्भाग्य से, इन सब सवालों के जवाब ‘न’ में ही देने होंगे. कश्मीर में किसी सार्थक पहल के लिए परजीवी अलगाववादी और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दोनों ही असंगत हो चुके हैं.

दरअसल कश्मीर की कुंजी भारत के विदेश मंत्रालय और पाकिस्तान के सेना संस्थान के हाथ में है. उनके गहरे निहित स्वार्थ इस मुद्दे से जुड़े हुए हैं. वर्षों पहले से यह दो पक्षीय मामला भी नहीं रह गया, जैसा कि भारत आज तक दोहराता चला आ रहा है.वार्ताओं और युद्धों के कितने ही असफल दौर सभी ने देख लिए हैं.

न इसे किसी तटस्थ मध्यस्थता से सुलझाया जा सकता है, जो पाकिस्तान का स्टैंड रहा है. जितनी जल्दी हो सके, भारत और पाकिस्तान को कश्मीर को एक भू-राजनीतिक मसला मानकर वहां के स्थायित्व में अमेरिका, चीन और रूस के सम्मिलित सहयोग को मान्यता देनी चाहिए.

मोहरे नहीं, कश्मीर में बिसात बदलने की जरूरत है.

(पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा और रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।)

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