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विमर्श

कभी किसान बहनों की भी सुध ले लीजिए सरकार

Janjwar Team
11 March 2018 1:08 PM GMT
कभी किसान बहनों की भी सुध ले लीजिए सरकार
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एक तरफ हमारा समाज स्त्री को दासी कहता है, तो दूसरी तरफ उसकी देवी के रूप में पूजा करता है, लेकिन जैसे ही अधिकार की बात आती है, पुरुष सबसे पहले आ जाता है...

सियाराम मीणा गांगडया

आज देश के हर 10 किसानों पर 6 महिला किसान हैं यानी भारत के कुल किसानों की संख्या का 60% महिला किसान हैं।

फिर भी आज तक हमारी सरकारों ने इन महिला किसानों को किसान का दर्जा नहीं दिया है। नेताओं को सिर्फ चुनावों के वक्त किसान भाई ही याद आता है, कभी किसान बहिनें याद नहीं आती हैं।

इस बार केंद्रीय वित्तमंत्री ने वर्ष 2018 का बजट पेश करते हुए, 27 बार किसान भाई शब्द का इस्तेमाल किया, लेकिन एक भी बार महिला किसान शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। जबकि पिछले वर्ष 15 अक्तूबर को इसी सरकार ने महिला किसान दिवस मनाकर बड़े जोर शोर से महिला किसानों की बात की थी, बड़े लंबे चौड़े वायदे किए थे। उस कार्यक्रम में सरकार के बड़े—बड़े नेताओं ने अपने भाषणों में महिला किसान को अधिकार देने की बात कही, लेकिन यह सब एक तरह इन महिला किसानों के लिए छलावा मात्र ही निकला।

जब भी किसी चुनावी रैली में हमारे देश के नेता भाषण देते हैं बड़े जोर से कहते हैं, मेरे देश के किसान भारत की रीढ़ की हड्डी हैं, लेकिन कभी यह नहीं कहते हैं कि इस रीढ़ का हड्डी का 60 फीसदी हिस्सा महिला किसान हैं।

देश के खेतों में महिला ही सबसे अधिक काम करती नजर आती है, पुरुषों की तुलना में वह कृषि को अच्छी तरह से समझती है। अभी कुछ ही दिन पहले महिला दिवस गया है। वार्ड पंच से लेकर प्रधानसेवक यह सभी ने महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात की, कई बड़े बड़े कार्यक्रम करके महिलाओं को सम्मानित किया गया। लेकिन किसी भी व्यक्ति की नजर इन महिला किसानों पर नहीं गई कि कैसे महिलाएं जो अपने छोटे- छोटे बच्चों को गोद में लेकर दिन, रात, धूप, छांव, बरसात, सर्दी, गर्मी में भी खेतों में काम करती रहती हैं।

खेतों की निराई करती हाथों में कुदाली और खुरापा लेकर दिनभर खेतों में लगी रहती हैं, महिलाएँ खेतों में हल चलाती हैं, बीज बोती और फसल काटती हैं और पुरुषों से मदद के बगैर अपने घर भी चलाती हैं, जबकि पुरुष इसकी तुलना में यह काम नहीं कर पाता है। यह एक यथार्थ है।

जब एक किसान अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण या फिर कर्ज से परेशान होकर अपने परिवार के साथ आत्महत्या करता है तो सिर्फ उस पुरुष किसान का ही नाम आता है, लेकिन उस महिला किसान का नाम कोई नहीं लेता है जो दिन रात उसी खेत में काम करती हुई मौत को गले लगाती है।

21वीं सदी के दूसरे दशक में भारत में मात्र 13% महिला किसानों के पास खेत या जमीन का मालिकाना हक है। देश में जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में सिर्फ 18% महिला किसानों के पास जमीन का मालिकाना हक है, वहीं देश के सबसे शिक्षित माने जाने वाले राज्य केरल में तो मात्र 14% महिला किसानों के पास जमीन के मालिकाना अधिकार है।

एक तरफ हमारा समाज स्त्री को दासी कहता है, तो दूसरी तरफ उसकी देवी के रूप में पूजा करता है, लेकिन जैसे ही अधिकार की बात आती है, पुरुष सबसे पहले आ जाता है। हमारे यह समझ में नहीं आ आता है कि हमारा समाज स्त्री को इंसान कब मानेगा? उसको इंसानियत का अधिकार कब देगा?

आज हमारे सामने यह सवाल है जब देश की किसानों की कुल संख्या का 60% हिस्सा महिला है तो देश में आज कोई महिला किसान नेता क्यों नहीं है? क्यों सभी राजनीतिक पार्टियों के किसानों संगठनों में महिला किसान को शीर्ष नेतृत्व क्यों नहीं प्रदान किया? देश के स्वतंत्र किसान संगठनों में महिला नेतृत्व को आगे क्यों नहीं आने दिया?

(सियाराम मीणा गांगडया गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. स्कॉलर हैं।)

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