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आंदोलन

दिल्ली की संसद पर 9 नवंबर से मजदूरों का महापड़ाव

Janjwar Team
7 Nov 2017 11:59 AM GMT
दिल्ली की संसद पर 9 नवंबर से मजदूरों का महापड़ाव
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महंगाई के अनुसार न्यूनतम मजदूरी की मांग, अगर सरकार 1957 के सुझाए मापदंडों को भी माने तो देनी होगी 26 हजार महीने की सैलरी

रवींद्र गोयल

बीजेपी/आरएसएस से सम्बद्ध ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर सभी शेष राष्ट्रीय मजदूर संगठनों ने मिलकर नवम्बर 9-11 के बीच संसद के बाहर महापड़ाव (sit in protest) का ऐलान किया है. इस संघर्ष लिए मजदूरों ने 12 सूत्री मांग पत्र जारी किया है.

इनमें से एक महत्वपूर्ण मांग है कि कम से कम 18000 रुपये महीने की न्यूनतम मजदूरी तय की जाये और मजदूरी में महँगाई के अनुसार सरकारी कर्मचारियों की तरह, महँगाई भत्ते का प्रावधान भी हो। आइये देखते हैं की यह मांग वाजिब है की गैरवाजिब?

भारत में इंडियन लेबर कांफ्रेंस श्रमिक के सवालों पर सरकार को सुझाव देने के लिए शीर्ष स्तर पर त्रिपक्षीय सलाहकार समिति है जिसमें मजदूरों के नुमाईन्दों के रूप में ट्रेड यूनियन संस्थाएं, नियोक्ताओं के केंद्रीय संगठन तथा केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होते हैं.

1942 से इसकी नियमित बैठकें होती हैं. 1957 की बैठक में सुझाये गए मानदंडों को न्यूनतम मजदूरी तय करते समय ध्यान में रखा जाता है.इन सिफारिशों के अनुसार एक काम करने वाले व्यक्ति को कम से कम इतनी मजदूरी तो मिलनी ही चाहिए की वो 3 उपभोग इकाइयों के परिवार का भरण पोषण कर सके.

यह इस मान्यता पर आधारित है कि औसत परिवार संख्या 4 की है यानी की 2 वयस्क और 2 बच्चे. और भरण पोषण के लिए तय पाया गया की औसत 2700 कैलोरी के बराबर एक व्यक्ति को भोजन मिल सके, प्रतिवर्ष प्रति परिवार 72 गज कपड़ा मिल सके, सरकार की औद्योगिक आवास योजना के तहत प्रदान किए गए न्यूनतम क्षेत्र का मकान किराये पर मिल सके तथा इस पर 20% खर्च के रूप में ईंधन, प्रकाश और अन्य विविध वस्तुओं के लिए मिल सके.

बाद में सुप्रीम कोर्ट ने (Unichoy vs State of Kerala in 1961 and Reptakos Brett Vs Workmen case in 1991) बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा उपचार, मनोरंजन, त्योहारों और समारोहों का खर्च शामिल करने के लिए उपरोक्त मजदूरी में 25% और जोड़ने का फैसला दिया.

अर्थशास्त्रियों ने हिसाब लगाया है कि उपरोक्त सभी मदों को शामिल करने पर आज की कीमतों के हिसाब से मजदूर को कम से कम 26000 रुपये प्रतिमाह मिलना चाहिए.

इस हिसाब में चार बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए- एक तो यह मजदूरी अकुशल श्रमिक के लिए है. कुशल मजदूरों के लिए मजदूरी इससे ज्यादा होनी चाहिए. दूसरे यह मजदूरी 1957 की बैठक में सुझाये गए मानदंडों के अनुसार है. इस के बाद के 60 सालों में देश ने जो तरक्की की है उसका एक हिस्सा मजदूरों को भी तो मिलना चाहिए.

और तीसरे ग्रामीण भारत में आज औसत परिवार सदस्य संख्या 4.78 है जबकि उपरोक्त हिसाब 4 सदस्य का परिवार मान कर किया गया है. अंतिम बात, उपरोक्त हिसाब में भविष्य की अनिश्चितता के लिए बचत की कोई गुंजाईश या प्रावधान नहीं है.

फिर भी आज मजदूर को जो मिल रहा है वो इसके मुकाबले कितना कम है इसका अंदाज़ा निम्न जानकारी से हो जायेगा

45 % मजदूरों को 5000 रुपये प्रति महीने से कम मिल रहा है
23% मजदूरों को 5000 – 7500 रुपये प्रति महीने मिल रहा है
15% मजदूरों को 7500 – 1000 रुपये प्रति महीने मिल रहा है
10% मजदूरों को 10000-20000 रुपये प्रति महीने मिल रहा है

यानि आज देश के 93% मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मिल रहा है. जब की मजदूर संगठन तो 18000 की न्यूनतम मजदूरी की ही मांग कर रहे हैं.

‘उजरती श्रम और पूँजी’ में मार्क्स ने गलत नहीं लिखा है ‘....साधारण श्रम-शक्ति का उत्पादन व्यय मजदूर के जीवन यापन तथा पुनरुत्पादन के खर्च के बराबर होता है. जीवन यापन तथा पुनरुत्पादन के इस खर्च के दाम का ही नाम मजदूरी है. इस प्रकार जो मजदूरी निर्धारित होती है उसे न्यूनतम मजदूरी कहते हैं...... यह न्यूनतम मजदूरी अलग अलग मजदूरों पर नहीं बल्कि पूरे मजदूर समुदाय पर लागू होती है.अलग अलग मजदूरों को, करोड़ों मजदूरों को इतना भी नहीं मिलता की वे खुद जिंदा रह सकें और अपनी नई पौध तैयार कर सकें.’

(दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक रवींद्र गोयल मजदूरों संबंद्धी मसलों को लेकर सक्रिय रहते हैं। इस लेख के लिए उन्होंने इस लिंक https://newsclick.in/why-india-refusing-pay-decent-wages-its-workers से मदद ली है।)

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