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जनज्वार विशेष

पूछ रहे हैं मुस्लिम, मोदी जी राम मंदिर बनाने से रोका किसने है : पुण्य प्रसून

Prema Negi
27 Nov 2018 12:57 PM GMT
पूछ रहे हैं मुस्लिम, मोदी जी राम मंदिर बनाने से रोका किसने है : पुण्य प्रसून
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प्रतीकात्मक फोटो

अयोध्या हो या बनारस दोनों जगहों पर मुस्लिम फुसफुसाहट में ही सही पर ये कहने से नहीं चूक रहा है कि राम मंदिर बनाने से रोका किसने है। चाहे अनचाहे अब तो हिंदू भी पूछ रहा है आंदोलन किसके खिलाफ है, जब शहर तुम्हारा, तुम्हीं मुद्दई, तुम्हीं मुंसिफ तो फिर मुस्लिम कसूरवार कैसे...

पुण्य प्रसून वाजपेयी, वरिष्ठ टीवी पत्रकार

इधर अयोध्या उधर बनारस। अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद ने धर्म सभा लगायी तो बनारस में शारदा ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने धर्म संसद बैठा दी। अयोध्या में विहिप के नेता-कार्यकत्ता 28 बरस पहले का जुनून देखने को बैचेन लगे तो बनारस की हवा में 1992 के बरक्स में धर्म सौहार्द की नई हवा बहाने की कोशिश शुरू हुई।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का नारा लेकर विहिप संघ और साधु संतों की एक खास टोली ही नजर आई, तो बनारस में सनातनी परंपरा की दिशा तय करने के लिये उग्र हिन्दुत्व को ठेंगा दिखाया गया और चार मठों के शंकराचार्यों के प्रतिनिधियों के साथ 13 अखाड़ों के संत भी पहुंचे।

108 धर्माचार्यों की कतार में 8 अन्य धर्म के के लोग भी दिखायी दिये। अयोध्या में खुले आसमान तले पांच घंटे की धर्म सभा महज तीन घंटे पचास मिनट के बाद ही नारों के शोर तले खत्म हो गई, तो बनारस में गंगा की साफ-अविरलता और गौ रक्षा के साथ राम मंदिर निर्माण का भी सवाल उठा। धर्म संसद 25 को शुरु होकर 27 तक चलेगी।

अयोध्या में राम को महापुरुष के तौर पर रखकर राम मंदिर निर्माण की तत्काल मांग कर दी गई, तो बनारस में राम को ब्रह्मा मान कर किसी भी धर्म को आहत न करने की कोशिशें दिखायी दी। अयोध्या की गलियों में मुस्लिम सिमटा दिखायी दिया। कुछ को 1992 याद आया तो तो राशन पानी भी जमा कर लिया। बनारस में मुस्लिमों को तरजीह दी गई।

1992 को याद बनारस में भी किया गया, पर पहली बार राम मंदिर के नाम पर हालात और न बिगड़ने देने की खुली वकालत हुई। अयोध्या के पांजीटोला, मुगलपुरा जैसे कुछ मोहल्ले की मुस्लिम बस्तियों के लोगों ने बातचीत में आशंका जताई कि बढ़ती भीड़ को लेकर उनमें थोड़ा भय का माहौल बना। बनारस ने गंगा—जमुनी तहजीब के साथ हिन्दू सांस्कृतिक मूल्यों की विवेचना की।

बुलानाला मोहल्ला हो या दालमण्डी का इलाका, चर्चा पहली बार यही सुनाई दी कि राम मंदिर पर बीजेपी की सियासत ने और संघ की खामोशी ने हिन्दुओं को बांट दिया। कुछ सियासत के टंटे समझने लगे तो कुछ सियासी लाभ की खोज में फिर से 1992 के हालात को टटोलने लगे।

ये लकीर जब अयोध्या और बनारस के बीच साफ खिंची हुई दिखायी देने लगी तो राजनीतिक बिसात पर तीन सवाल उभरे। पहला, बीजेपी के पक्ष में राम मंदिर के नाम पर जिस तरह समूचा संत समाज पहले एक साथ दिखायी देता अब वह बंट चुका है। दूसरा, जब बीजेपी की ही सत्ता है और प्रचारक से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी के पास बहुमत का भंडार है तो फिर विहिप कोई भी नारा कैसे अपनी ही सत्ता के खिलाफ लगा सकती है। तीसरा, राम मंदिर को लेकर काग्रेस की सोच के साथ संत समाज खड़ा दिखायी देना लगा।

यानी ये भी पहली बार हो रहा है कि ढाई दशक पहले के शब्दों को ही निगलने में स्वयंसेवकों की सत्ता को ही परेशानी हो रही है। 1992 के हालात के बाद राममंदिर बनाने के नाम पर सिर्फ हवा बनाने के खेल को और कोई नहीं बीजेपी के अपने सहयोगी ही उसे घेरने से नहीं चूक रहे हैं।

दरअसल अपने ही एजेंडे तले सामाजिक हार और अपनी ही सियासत तले राजनीतिक हार के दो फ्रंट एक साथ मोदी सत्ता को घेर रहे हैं। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि शिवसेना के तेवर विहिप से ज्यादा तीखे हैं। महत्वपूर्ण तो ये है कि शिवसेना ने पहली बार महाराष्ट्र की लक्ष्मण रेखा पार की है और बीजेपी के हिन्दू गढ़ में खुद को ज्यादा बड़ा हिन्दूवादी बताने की खुली चुनौती बीजेपी को दे दी है।

यानी जो बीजेपी कल तक महाराष्ट्र में शिवसेना का हाथ पकड़कर चलते हुए उसे ही पटकनी देने की स्थिति में आ गयी थी, उसी बीजेपी के घर में घुस कर शिवसेना ने अब 2019 के रास्ते जुदा होने के मुद्दे की तलाश कर ली है। सवाल दो हैं, पहला क्या बीजेपी अपने ही बनाये घेरे में फंस रही है या फिर दूसरा की बीजेपी चाहती है कि ये घेरा और बड़ा हो, जिससे एक वक्त के बाद आर्डिनेंस लाकर वह राम मंदिर निर्माण की दिशा में बढ़ जाये।

लेकिन ये काम अगर मोदी सत्ता कर देती है तो उसके सामने 1992 के हालात हैं। जब बीजेपी राममय हो गई थी और उसे लगने लगा था कि सत्ता उसके पास आने से कोई रोक नहीं सकता, लेकिन 1996 के चुनाव में बीजेपी राममय होकर भी सत्ता तक पहुंच नहीं पायी और 13 दिन की वाजपेयी सरकार तब दूसरे राजनीतिक दलों से इसलिये गठबंधन कर नहीं पायी क्योंकि बाबरी मस्जिद का दाग लेकर चलने की स्थिति में कोई दूसरी पार्टी थी नहीं।

याद कर लीजिये तब का संसद में वाजपेयी का भाषण जिसमें वह बीजेपी को राजनीतिक अछूत बनाने की सोच पर प्रहार करते हैं। बीजेपी को चाल चरित्र के तौर पर तमाम राजनीतिक दलों से एकदम अलग पेश करते हैं और संसद में ये कहने से भी नहीं चूकते, "दूसरे दलों के मेरे सांसद साथी ये कहने से नहीं चूकते कि वाजपेयी तो ठीक है लेकिन पार्टी ठीक नहीं है।"

असर का हुआ कि 1998 में जब वाजपेयी ने अयोध्या मुद्दे पर खामोशी बरती तो प्रचारक से प्रधानमंत्री का ठोस सफर वाजपेयी ने शुरू किया और 1999 में अयोध्या के साथ साथ धारा 370 और कॉमन सिविल कोड को भी ताले में जड़ दिया गया। ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी भी 2019 के लिये इसी रास्ते पर चल रहे हैं।

जो 60 में से 54 महीने बीतने के बाद भी अयोध्या कभी नहीं गये और विकास के आसरे 'सबका साथ सबका विकास' का नारा ही बुलंद कर अपनी उपयोगिता को कांग्रेस या दूसरे विपक्षी पार्टियों से एक कदम आगे खड़ा करने में सफल रहे, लेकिन यहां प्रधानमंत्री मोदी ये भूल कर रहे हैं कि आखिर वह स्वयंसेवक भी हैं।

स्वयंसेवक के पास पूर्ण बहुमत है, जो कानून बनाकर राम मंदिर निर्माण की दिशा में बढ सकते हैं, क्योंकि बीते 70 बरस से अयोध्या का मामला किसी न किसी तरह अदालत की चौखट पर झूलता रहा है और संघ अपने स्वयंसेवकों को समझाता आया है कि जिस दिन संसद में उनकी चलेगी, उस दिन राम मंदिर का निर्माण कानून बनाकर होगा।

ऐसे हालात में अगर नरेन्द्र मोदी की साख बरकरार रहेगी तो विहिप के चंपतराय और सरसंघचालक मोहन भागवत की साथ मटियामेट होगी। चंपतराय वही शख्स हैं जिन्होंने 6 दिसबंर 1992 की व्यूह रचना की थी। तब सरसंघचालक देवरस हुआ करते थे, जो 1992 के बाद बीजेपी को समझाते भी रहे कि धर्म की आग से वह बचकर रहे।

राम मंदिर निर्माण की दिशा में राजनीति को न ले जाये, लेकिन अब हालात उल्टे हैं सरसंघचालक भागवत अपनी साख के लिये राम मंदिर का उद्घोष नागपुर से ही कर रहे हैं और चंपतराय के पास प्रवीण तोगड़िया जैसे उग्र हिन्दुत्व की पोटली बांधे कोई है नहीं।

उन्हें इसका भी अहसास है कि जब तोगड़िया निकाले जा सकते हैं और विहिप की कुर्सी पर ऐसे शख्स बैठा दिया जाते हैं, जिन्हें पता ही नहीं है कि अयोध्या आंदोलन खड़ा कैसे हुआ और कैसे सिर पर कफन बांध कर स्वयंसेवक तक निकले थे। नरेन्द्र मोदी की पहचान भी 1990 वाली ही है, जो सोमनाथ से निकली आडवाणी की रथयात्रा में गुजरात की सीमा तक नजर आये थे।

यानी ढाई दशक में जब सबकुछ बदल चुका है तो फिर अय़ोध्या की गूंज का असर कितना होगा और बनारस में अगर सर्व धर्म समभाव के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत ही तमाम धर्मों के साथ सहमति कर राम मंदिर का रास्ता खोजा जा रहा है तो फिर क्या ये संकेत 2019 की दिशा को तय कर रहे हैं। क्योंकि अयोध्या हो या बनारस दोनों जगहों पर मुस्लिम फुसफुसाहट में ही सही पर ये कहने से नहीं चूक रहा है कि राम मंदिर बनाने से रोका किसने है।

सत्ता आपकी, जनादेश आपके पास। तमाम संवैधानिक संस्थान आपके इशारे पर, तो फिर मंदिर को लेकर इतना हंगामा क्यों। चाहे अनचाहे अब तो हिंदू भी पूछ रहा है आंदोलन किसके खिलाफ है, जब शहर तुम्हारा, तुम्हीं मुद्दई, तुम्हीं मुंसिफ तो फिर मुस्लिम कसूरवार कैसे।

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