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सिक्योरिटी

चीन ही है भारत का सबसे बड़ा दुश्मन

Janjwar Team
22 July 2017 3:21 PM GMT
चीन ही है भारत का सबसे बड़ा दुश्मन
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दो दशक पहले ही चेता दिया था जार्ज फर्नांडीज ने

पचपन साल बाद सीमा पर टैंकों की तैनाती की जा रही है। भारत चीन के बीच तल्खी बढ़ने के पीछे वैसे तो कई वजह हैं, लेकिन ताजा वजह अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों से भारत की बढ़़ती नजदीकियां हैं...

अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार

भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद यह पहला मौका है जब दोनों देशों के रिश्ते बेहद तनाव भरे दौर से गुजर रहे हैं। चीन भारत की सीमा में प्रवेश कर भारत को युद्ध के लिए ललकार रहा है। चीन का यह रवैया हमें लगभग दो दशक पहले दी गई जार्ज फर्नांडीस की चेतावनी की याद दिला रहा है।

तब भी केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी उसका नेतृत्व कर रहे थे। कश्मीर में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद भी जारी था और सीमा पर पाकिस्तानी सेना की ओर से संघर्ष विराम का उल्लंघन करते हुए उकसाने वाली कार्रवाइयां भी हो रही थीं।

उन्हीं दिनों मई 1998 में एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री की हैसियत से समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीस के एक बयान ने सबको चौंका दिया था। उन्होंने अपने इस बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था। जार्ज का यह बयान निश्चित ही किन्हीं ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा, जो रक्षा मंत्री होने के नाते उन्हें हासिल हुई होगी।

लेकिन उनका यह बयान कई लोगों को रास नहीं आया था। उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी थीं। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी को भी तथा यहां तक कि उसके पितृ संगठन राष्टीय स्वयंसेवक संघ को भी जार्ज का यह बयान नागवार गुजरा था। वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जार्ज की यह साफगोई नहीं ही सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी।

यह दिलचस्प था कि संघ और वामपंथियों के रूप में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाली ताकतें इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रही थीं, ठीक वैसे ही जैसे दोनों ने अलग-अलग कारणों से 1942 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत छोडो आंदोलन का विरोध किया था।

जार्ज के इस बयान के विरोध के पीछे भी दोनों की प्रेरणाएं अलग-अलग थीं। संघ परिवार जहां अपनी चिर-परिचित मुस्लिम विरोधी ग्रंथी के चलते पाकिस्तान के अलावा किसी और देश को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं मान सकता था, वहीं वामपंथी दल चीन के साथ अपने वैचारिक बिरादराना रिश्तों के चलते जार्ज के बयान को खारिज कर रहे थे।

कई तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों और विश्लेषकों समेत मीडिया के एक बडे हिस्से ने भी इसके लिए जार्ज की काफी लानत मलानत की थी। जार्ज आज भले ही शारीरिक अशक्तता तथा याददाश्त खो चुके होने के चलते मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हैं, लेकिन चीन को लेकर उनका आकलन समय की कसौटी पर लगातार बिल्कुल सही साबित हो रहा है।

बीते एक-डेढ़ महीने का ताजा घटनाक्रम भी उस आकलन की तसदीक कर रहा है। रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह भी अपने अनुभव से बता रहे हैं कि भारत की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा चीन से ही है और सरकार उसे हल्के में न लें। मुलायम सिंह चीनी खतरे से देश को पहले भी आगाह करते रहे हैं।

वैसे न तो चीनी खतरा भारत के लिए नया है और न ही उससे आगाह करने वाले जार्ज या मुलायम सिंह अकेले राजनेता हैं। दरअसल, चीन ने जब तिब्बत पर आक्रमण कर उस कब्जा किया था तब से ही वह भारत के लिए खतरा बना हुआ है। देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राममनोहर लोहिया ने दी थी।

तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने 'शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाऊ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की। यह वह समय था जब भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष हुए थे और माओ की सरपरस्ती में चीन की लाल क्रांति भी कुल नौ साल पुरानी ही थी।

हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तब समाजवादी भारत का सपना देख रहे थे, जिसमें चीन से युद्ध की कोई जगह नहीं थी। उधर, माओ को पूरी दुनिया के सामने जाहिर करना था कि साम्यवादी कट्टरता के मामले में वे लेनिन और स्टालिन से भी आगे हैं। तिब्बत पर कब्जा उनके इसी मंसूबे का नतीजा था।

इसके बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक संबंध बहुत अच्छे रहे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं एक-दूसरे के यहां की कई यात्राएं कीं। लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगड़ाई लेना शुरू कर दी और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए। तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ तिब्बत से मिलती थीं।

लेकिन चीन द्वारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने लगी। उन्हीं दिनों चीन द्वारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा। उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था।

चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एन-लाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए शांति के कबूतर उड़ा चुके थे, लिहाजा भावुक भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा। मगर, 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भावुक सपनों के ध्वस्त होने का रहा जब चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया।

चूंकि हमारे प्रतिरक्षा कर्णधार भी चीन की ओर से बिल्कुल बेफिक्र थे, लिहाजा हमारी सेना के पास मौजूं सैन्य साजो-सामान का अभाव था। नतीजे में भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा और चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली। इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई।

चीन से मिले इस गहरे जख्म के बाद दोनों देशों के रिश्तों में लगभग डेढ़ दशक तक ठंडापन रहा जो 1970 के दशक के उत्तरार्ध में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने पर कुछ हद तक खत्म हुआ। दोनों देशों की सरकारों के प्रयासों से दोनों के बीच एक बार फिर राजदूत स्तर के राजनयिक रिश्तों की बहाली हुई। तब से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते भी बने हुए हैं, दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व का एक-दूसरे के यहां आना-जाना भी हो रहा है और दोनों देशों के बीच विदेश मंत्री और विदेश सचिव स्तर की वार्ताएं भी होती रहती हैं।

पिछले 15 सालों के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में भी 24 गुना इजाफा हो गया है। चीन की कई नामी कंपनियां भारत में कारोबार कर रही हैं। भारतीय कारोबारी भी चीन पहुंच रहे हैं। लेकिन इस सबके बावजूद चीन के विस्तारवादी इरादों में कोई तब्दीली नहीं आई है। कभी उसकी सेना हमारे यहां लद्दाख में घुस आती है तो कभी अरुणाचल में। अपने नक्शों में भी वह जब-तब इन इलाकों को अपना भू-भाग बता देता है।

ताजा विवाद के तहत चीन ने जिस तरह कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जा रहे भारतीय यात्रियों को रोका और भारतीय सैनिकों पर सिक्किम से लगी अपनी सीमा में घुसपैठ करने का आरोप लगाया, उससे लगता है कि वह नई दिल्ली की बढ़ती कूटनीतिक सक्रियता से बौखला गया है। भारत-चीन के बीच ताजा विवाद तब शुरू हुआ जब चीनी सेना ने भूटान के कब्जे वाले क्षेत्र में सड़क बनानी शुरू कर दी।

भूटान से सुरक्षा संबंधी संधि के कारण भारत के सैनिकों ने स्वाभाविक रूप से बीच-बचाव किया, जो चीन को रास नहीं आया। उसने लद्दाख सेक्टर से सटी सीमा पर भारी मात्रा में अपने सैनिक तैनात कर दिए हैं और लंबे अरसे बाद हवाई पट्टियां भी खोल दी हैं। पचपन साल बाद सीमा पर टैंकों की तैनाती भी की जा रही है।

दोनों देशों के बीच कटुता बढ़ने की शुरूआत गत अप्रैल में दलाई लामा के अरुणाचल दौरे के समय हुई, जब चीन सरकार के मुखपत्र 'पीपुल्स डेली’ ने टिप्पणी की कि लगता है भारत 1962 को भूल गया है। हाल ही में उसने यह बात एक बार फिर दोहराई है।

दरअसल चीन अपने को विश्व की एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करने की कवायद में जुटा हुआ है। अपने पड़ोस में इस रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट उसे भारत ही नजर आता है। भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों से व्यापारिक और सामरिक संबंध स्थापित किए हैं। चीन इसे अपने लिए चुनौती मानता है।

उसे डर है कि भारत के जरिए पश्चिमी देश उसे घेरने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए उसने हमारे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ कई कदम उठाए हैं। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता के मसले पर वह भारत की राह में रोड़े अटका रहा है। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुटों के सरगनाओं को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की भारतीय कोशिशों को भी उसने कई बार संयुक्त राष्ट्र में वीटो का इस्तेमाल करके नाकाम किया है। चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर को लेकर भी भारत से चीन के रिश्ते सहज नहीं हैं।

यह सच है कि भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है, जैसा कि हमारे अंशकालिक रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने कहा है, लेकिन इसमे भी कोई दोराय नहीं है कि चीन की सैनिक ताकत हमसे कहीं ज्यादा है। हाल ही में संसद में पेश भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक सीएजी की रिपोर्ट ने भी इस इस सिलसिले में जो खुलासा किया है वह चौंकाने वाला है।

सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक युद्ध की स्थिति में भारत के पास गोला-बारूद का कोटा महज दस दिन का है। उधर चीन ने हमारी सीमाओं तक सड़कों का जाल भी बिछा लिया है। ल्हासा तक ट्रेन चलाकर भी बीजिंग की हुकूमत ने अपनी मजबूती बढ़ाई है। अब उसकी थल सेना की आवाजाही हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा सुगम है।

सा नहीं है कि चीन सिर्फ हमें ही धमका रहा है। पड़ोसी जापान और वियतनाम से भी उसकी तू-तू, मैं-मैं होती रहती है। हिंद महासागर में वह अपना दखल बढ़ाने की कोशिश कर रहा है तो दक्षिण चीन सागर में उसे चुनौती मिल रही है। कई मोर्चों पर फंसा चीन ऐसे में भारत से युद्ध करेगा, ऐसा नहीं लगता। जो भी हो, पर यह तथ्य भी नहीं भूला जा सकता कि चीन अतिक्रमणकारी है।

भारतीय भूमि पर उसकी ताजा गतिविधियां और युद्ध की धमकी जार्ज फर्नांडीस की चेतावनी को याद दिलाते हुए एक बार फिर साबित कर रही है कि सामरिक रूप से भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा चीन ही है।

नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव आदि पड़ोसी मुल्कों से हमारे खिंचाव भरे रिश्तों ने इस खतरे को और भी घना कर दिया है। इस खतरे से देश में बेचैनी का माहौल है। वैश्विक यारबाजी में व्यस्त नई दिल्ली के सत्तानायक पता नहीं देश की बेचैनी को कितनी गंभीरता से ले रहे होंगे।

(वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अनिल जैन पिछले तीन दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। उन्होंने नई दुनिया, दैनिक भास्कर समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है।)

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