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संस्कृति

पापमुक्ति की राह बनते धर्म से दूरी बेहतर

Janjwar Team
19 Aug 2017 9:34 PM GMT
पापमुक्ति की राह बनते धर्म से दूरी बेहतर
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गॉंव की स्‍मृतियां हों या शहर की, ज्यादातर मामलों में मैंने उन लोगों को मंदिर की तरफ ज्‍यादा भागते देखा जो अपने व्‍यक्तिगत जीवन में उतने पवित्र नहीं हैं...

प्रेमपाल शर्मा, वरिष्ठ लेखक

पचपन साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मुझे लगने लगा क्या वाकई धर्म जैसी किसी चीज की जरूरत है भी, विशेषकर तब जब धर्म आपको अलग-अलग खाँचों और सॉंचों में विभाजित करते हों। मनुष्य, मनुष्य के बीच दूरी पैदा करते हों और कभी-कभी आपस में राष्ट्रों को भी लड़ाते हों।

हिन्दू धर्म अपने को बहुत सहिष्णु होने का दावा करता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ उसका नीति वाक्य है लेकिन आचरण में अस्पृश्यता, भेदभाव, स्त्रियों के प्रति देवी या दासी की भावना से सराबोर। बहुत मुश्किल है इससे पार पाना। तब लगता है कि धर्म के इस भवन में जिसमें करोड़ों ऐसे देवी-देवता रहते हों, उससे दूर रहना ही बेहतर है।

मुस्लिम धर्म के बारे में मेरी बहुत जानकारी नहीं, लेकिन जो कट्टरता इस धर्म के नागरिकों में दिखाई देती है उसकी जड़ें भी तो उसी धर्म में होंगी। पश्चिम एशिया में दिन-रात सुलगते युद्ध, पाकिस्तान का सनातन जेहाद, अफगानिस्तान के तालिबानी और सभी जगह स्त्रियों के प्रति एक बेहद क्रूर व्यतवहार। तीसरा क्रिश्चियन- लोभ लालच देकर अलग-अलग देशों में लोगों की आस्थाओं को प्रभावित करना, उन पर अपनी भाषा, संस्कृति लादना किस धर्म के मूल्य कहे जा सकते हैं? क्या ऐसे धर्मों से मुक्ति में ही जन्नत नहीं है?

हालॉंकि कभी-कभी मुझे लगता है कि भारत जैसे गरीब देश में जहॉं सदियों से दलित, गरीबों को मुक्ति का कोई रास्ता नजर न आए, वहॉं कम-से-कम एक ऐसी अदृश्य शक्ति के प्रति एक उम्मीद भरी आस्था से जीवन जीने का तर्क तो ढूंढा ही जा सकता है।

आप चाहें तो इसे ‘हारे को हरिनाम’ कहिए या कुछ और लेकिन कई बार गॉंव देहात में किसी बूढ़े या वृद्ध महिला को किसी माला या भजन-कीर्तन के सहारे एक निश्चित अंदाज में जीवन को सहन करने की ताकत का नाम धर्म भी है। तब लगता है कि मेरे लिए न सही उनके लिए तो धर्म की जरूरत है ही।

कई बार यह भी लगता है कि क्या उस उम्र में मैं भी धर्म की तरफ मुड़ जाउंगा? प्रश्न खुला रखना चाहता हूँ। यदि ऐसा हो तो भी क्या हर्ज। बस यही कहूंगा कि हर उम्र का एक धर्म होता है।

जैसे पिछले हफ्ते एक आठ-दस बरस के बच्चे को रोज-रोज मंदिर जाते देखकर मुझे कहना पड़ा कि बेटा! मम्मी-पापा को जाने दीजिए मंदिर। तुम शाम को फुटबॉल खेला करो। अभी तुम्हारी समझ में क्या आएंगी मुक्ति, मोक्ष और परलोक की बातें। उनके माता-पिता को भी समझाया कि अपने धर्म को क्यों बच्चे पर लाद रहे हो।

अब मैं उधर मुड़कर देखना चाहता हूँ जिस रास्ते से मैं जीवन के इस दर्शन तक पहुंचा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक ग्रामीण किसान परिवार। थोड़ी-सी जमीन, खेती का काम, खाने भर की स्थितियॉं थीं। शायद पढ़ने-पढ़ाने भर की भी नहीं वरना मेरे पिता जी जो बेहद मेधावी थे और छियासी वर्ष की उम्र तक लगातार पढ़ने में व्यस्त रहे क्या सिर्फ मिडिल क्लास तक ही पढ़ पाते। यह भी सच है कि पूरा देश ही गरीब था इसलिए इस गरीबी का कोई गुणगान या गर्व करने की बात मैं नहीं समझता।

गॉंव में छोटे-छोटे व्रत, त्यौहार मनाए जाते हैं। हम सब भाई भी मनाते थे क्योंकि मॉं ऐसा करती थीं। दो व्रत तो मुझे याद हैं जो निश्चित रूप से किए जाते थे। एक शिवरात्रि का जिसमें गॉंव से बाहर सड़क पर बने मंदिर में बने शिवजी पर जल चढ़ाते थे। बेर वगैरह भी। बस एक कवायद की तरह। कुछ खाने को तब मिलेगा जब पहले नहाकर और एक लोटा शिवजी पर चढ़ाओगे।

दूसरा व्रत कृष्ण जन्माष्ठमी का होता था। इन व्रतों को रखने के पीछे कारण यह भी था कि उस दिन घर में सामान्य खाना बनता ही नहीं था। इसलिए व्रत रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इतना जरूर था कि कोई कट्टरवाद घर में नहीं था। यदि भूख लगे तो व्रत कभी भी तोड़ा और जोड़ा जा सकता था। पिताजी को कभी भी पूरा व्रत करते याद नहीं।

इस कट्टरवाद के न पनपने का कारण यह भी था कि पिताजी जिनको दिल्ली पहुंचने के बाद, उनके साथ रहकर नजदीक से जाना, उनकी भी धर्म की किसी कट्टरता या रस्मी रीति रिवाजों में दूर-दूर तक जगह नहीं थी।

एक अर्थ में कह सकता हूँ कि मॉं धार्मिक जरूर थीं, लेकिन वैसी धार्मिक नहीं जैसी गॉंव की ज्यादातर दूसरी औरतें। यों वे व्रत बहुत ज्यादा रखती थीं। बृहस्‍पतिवार को केले का पूजन से लेकर आए दिन कुछ-न-कुछ ऐसा करती थीं। लेकिन उनका हम पॉंच-सात भाई बहनों का पालन करते हुए और खेती क्यारी, गाय, भैंस का काम करते हुए हमने कभी नहीं सुना कि व्रत या ना खाने से उनकी दैनंदिनी जिंदगी पर कोई असर पड़ा हो।

एक अशिक्षित महिला का धर्म के प्रति थोड़ा-सा मोह लेकिन रीति रिवाजों के प्रति उतनी ही निष्ठुरता की अनूठी मिशाल मॉं कही जा सकती है। एक और अनोखा पक्ष उनका था भूत, प्रेतों, डायनों में यकीन न करना और पंडित, पुजारियों से भी दूर रहना। ऐसा विवेक उनमें शायद इसलिए आया कि उन्हें बच्चों की देखभाल और खेती का काम इन टोटकों से सदैव ज्यादा महत्वपूर्ण लगा।

भैंस के ब्याने पर गॉंव के बाहर बने मुकुन्दी मैया पर दूध चढ़ाने जरूर जाती थीं। हम जब बहुत छोटे-छोटे थे तो हम भी साथ लग लिया करते थे और देखते कि उस दूध चढ़ाने वाले पत्थर के आसपास अनगिनत चीटियां, चींटे मंडरा रहे होते थे। एक हल्की सी बदबू भी।

वक्त ऐसे ही बढ़ता रहा। स्कूलों में भी ऐसी कवायदें रोज होती थीं। कभी-कभी उस दुष्च‍क्र में आ भी जाते थे। गॉंव में हमारे मोहल्ले के एक दामाद अक्सर आया करते थे। खूब मोटे-ताजे। फूले हुए गाल, हनुमान के प्रतिरूप। हम सब उन्हें हनुमान जी के रूप में ही श्रद्धान्वत देखते थे। वैसे तो मैंने आज तक किसी भी पंडित पुजारी को दुबला पतला नहीं देखा।

दिल्ली जैसे शहर में समृद्धि बढ़ रही है तो पंडित, पुजारी भी उतने ही मोटे होते जा रहे हैं। उनकी भी मस्त जिंदगी थी। रास्ते में मिलते तो सीताराम, सीताराम जैसा कुछ बुदबुदाते रहते। हमें उनका ऐसा आभामंडल बताया गया था कि जीवन की सार्थकता इसी में है, वरना देखा जाए तो ऐसा नाकारा नागरिक जो अपनी ससुराल में मुफ्त की रोटी पेलता हो, उससे दूर रहने की सलाह दी गई होती।

आसपास बिखरी किताबों का भी असर रहा होगा। जैसे भक्त ध्रुव की कथा कि वे कैसे एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करते रहे और अंत में इंद्र भगवान खुश हो गये। ऐसा वरदान दे दिया। प्रह्लाद की कथा हो या कोई और सारी कथाओं का एक ही निचोड़ या असर था कि बच्चू पढ़ने-लिखने, मेहनत करने से उतनी ऊंचाइयां हासिल नहीं होंगी जितनी कि राम नाम जपने से।

इसी माहौल में परीक्षा शुरू होने से पहले और परिणाम आने से पहले अचानक बच्चों की टोली पास की बड़ी नहर के जंगल में रहने वाले बंदरों को चने और गुड़ खिलाने निकल पड़ती। यह जंगल गंगावली नाम के गॉंव के पास था।

ब्राह्मण परिवारों के ऐसे दर्जनों नौजवान मेरे जेहन में उतर रहे हैं, जो अपने बचपन से लेकर पढ़ाई पूरी होने तक इन्हीं बंदरों को चुगाने के भरोसे पढ़ाई करते रहे और नतीजा जो होना था वही हुआ। न बंदरों ने मदद की, न भगवान ने। इनमें से ज्यादातर खेती का काम करने में भी सक्षम नहीं हुए। कुछ भांग, तम्बाकू, दारू के नशे की तरफ मुड़ गए तो कुछ दूसरी अपराधी प्रवृत्तियों की तरफ।

होड़ा-होड़ी एकआध बार तो मैं भी अपने भाइयों के साथ गया हूंगा इन बंदर भगवानों के पास। लेकिन शायद मॉं का ही असर रहा होगा कि गॉंव के बच्चों की तरह उस नियमितता के साथ नहीं जा पाया। लेकिन एक बात से नहीं बच पाया।

पांचवी क्लास तक पहुंचने तक हमारे नियमित काम में कक्षा के बाद पशुओं यानि भैंस को चराने ले जाना होता था। हम भैंस की पीठ पर बैठे होते। हमें एक छोटी सी किताब दे दी गई थी या पता नहीं कैसे मिल गई थी जिसमें सीताराम, सीताराम लिखा था। सीताराम का नाम जो कुछ लिया होगा वो उन्हीं दिनों का होगा भैंस पर बैठे। पता नहीं भगवान के पास वो रजिस्टर अब सु‍रक्षित भी होगा या उसने फेंक दिया होगा। दिल्ली मेट्रो या दूसरी रेल यात्राओं में मैंने कथाकथित शिक्षित मध्य वर्ग को आज भी वैसे ही हनुमान चालीसा या ऐसी किताब और माला को फेरते, बुदबुदाते देखा है। हे राम! हे राम!

मैं तो बचपन की अज्ञानता में यह करता था, लेकिन ये ज्ञानी पुरुष किस उम्‍मीद में ऐसा कर रहे हैं? मेरी धर्म से रुचि या अरुचि ऐसे ही लोगों से प्रभावित हुई है। गॉंव की स्‍मृतियां हों या शहर की, ज्यादातर मामलों में मैंने उन लोगों को मंदिर की तरफ ज्‍यादा भागते देखा जो अपने व्‍यक्तिगत जीवन में उतने पवित्र नहीं हैं।

दिल्ली के मेरे दोस्त विजय कोहली जैसे एकाध को छोड़कर। एक दूर के चाचा जी थे। उनके बारे में कई शादियां और बेईमानी के अनंत किस्‍से थे। लेकिन जिस भव्‍यता और विश्‍वास से वे मंदिर जाते, लौटते, भगवती जागरण कराते उसे देखकर लगता था कि ऐसे ज्ञानी—ध्‍यानी पुरुष तो धरती पर कम ही पैदा हुए होंगे।

मेरे कुछ नजदीकी आए दिन भागवत पूजा और मंदिरों की दौड़ लगाए रहते हैं। उन्‍होंने कामाख्‍या देवी से लेकर उज्‍जैन, वैष्‍णो देवी, पुरी कुछ नहीं छोड़ा। चार धाम पूरे हुए तो पॉंच साल बाद फिर से चल दिए कलेंडर देखकर। लेकिन झूठ है कि उनकी जिंदगी में एक पल के लिए भी साथ नहीं छोड़ता।

वे पूर्व जा रहे होंगे तो पश्चिम बताएंगे। न मॉं की चिंता उन्हें करते देखा, न पिता या परिवार की। उनकी चिंता में पंडित पुजारी, खांटू बाबा, मुरारी बाबा से लेकर सब हैं। कई को तो इस ‘धंधे में धुत’ की बदौलत जीवन के वैभव भी मिल रहे हैं। साल में दो-चार बार पैसा इकट्ठा करके दफ्तर से छुट्टी बोलकर भगवती जागरण में व्यस्त रहना और यथासंभव बचत भी कर लेना। धर्म के धंधे में यदि यह जन्मा भी सुधर जाए और परलोक भी तो क्या बुराई है!

शायद धर्म जब पाप मुक्ति का रास्ता बन जाए तो उस धर्म से दूर रहना ही अच्छा। महात्मा गांधी अपनी बायोग्राफी में लिखते हैं कि दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही उनकी दोस्ती कुछ ईसाई परिवारों से हुई। गांधी जी उन सबसे बहुत प्रभावित थे। गांधी जी इनके साथ चर्च जाते और उन्हें अच्छा लगता।

कुछ दिनों बाद उन्हें अहसास हुआ कि उनके एक ईसाई मित्र उनके ईसाई धर्म के प्रेम से बड़े प्रभावित हैं और इसीलिए उन्होंने गांधी जी को ईसाई धर्म मानने के लिए प्रेरित करना चाहा। ईसाई धर्म की प्रेरणा के पीछे उनका मासूमियत भरा तर्क था कि हमसे जो कुछ भी गलती हो जाती हैं, पाप हो जाते हैं तो ईसा के पास गिरजाघर में जाने से प्रभू ईसा उन सब को माफ कर देते हैं।

गांधी जी ने विचार किया कि इस माफी का तो यह मतलब हुआ कि मनुष्य और गलती करेगा, और पाप करेगा क्योंकि प्रभू तो उन सब पापों को अपने ऊपर ले लेंगे। गांधी जी लिखते हैं कि मुझे गिरजाघर, मंदिर जाने का यह तर्क पसंद नहीं आया। गांधी जी की जीवन गाथा की रोशनी में हमारे मंदिर, मस्जिद, तीर्थस्थानों के आसपास बढ़ती भीड़ से क्याें निष्कर्ष निकाला जाए?

धर्म की इस जकड़न से मुक्ति ने मुझे अंधविश्वाासों, ज्योतिषियों, वास्तु या सभी से दूर रखा है जो बिना कुछ किए हुए रातोंरात मालामाल होना चाहते हैं। मैंने कभी जिंदगी में न लॉटरी की टिकट खरीदी और न कभी यह चाहा कि कोई कुबेर का धन मुझे अचानक मिल जाए।

धर्म से दूरी शायद कर्म सिद्धांत को मजबूत भी करती है। मेरे पिताजी भी इसके जीते-जागते उदाहरण थे। शायद यही असर धीरे-धीरे अगली पीढ़ी में भी गया है। मेरा छोटा बेटा सात-आठ साल की उम्र में जब दादी के साथ मंदिर गया तो उसने पूछा कि अम्मा जी! ये मूर्ति तो नॉन लिविंग है। ये प्रसाद थोड़े ही खाएगी। इसे इस मूर्ति पर क्यों चढ़ा रही हो?

पता नहीं वे इस धर्म को कब तक निभाएंगे, लेकिन जिस धर्म की शिक्षा देता रहा हूँ वह यदि आपको गरीबों के प्रति संवेदनशील बनाती है तो फिर किसी और धर्म की जरूरत नहीं है।

(वरिष्ठ लेखक प्रेमपाल शर्मा शिक्षा के मसलों पर पिछले 30 वर्षों से लेखन कर रहे हैं।)

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