Begin typing your search above and press return to search.
संस्कृति

अकेला था मैं एक सुरंग की तरह

Janjwar Team
28 July 2017 10:44 AM GMT
अकेला था मैं एक सुरंग की तरह
x

सप्ताह की कविता में आज पढ़िए पाब्लो नेरूदा को

हम पहले ही किराया चुका कर आए हैं इस दुनिया में,
तब क्यों तुम हमें बैठने और खाने नहीं देते?...(नेरूदा- जहाज)

‘जहाज’ शीर्षक कविता में स्‍पैनिश कवि पाब्लो नेरूदा ‘प्याले, कुर्सियाँ / बिस्तर, आइने / समुद्र, शराब और आसमान...’ पर कब्जा जमा चुके जिन पिस्तौल ताने गुस्सैल लोगों को संबोधित करते हैं, वे वही लोग हैं, जो आज अपने परमाणु अस्त्रों के निशाने पर दुनिया को रखे गुस्से में बारंबार अपनी भृकुटियाँ ताने उसे ठीक करने की नसीहत देते थक नहीं रहे। दुनिया की हर शै पर कब्जा जमाते जा रहे ये लोग लगातार हमें आश्वस्त करते हैं कि सबकुछ हमारे भले के लिए हो रहा है? मजेदार बात है कि यह सब वे ईसा-बुद्ध के अहिंसा मंत्रों को जपते करते चले आ रहे हैं सदियों से। पहले जहाँ नीग्रो-रेड इंडियन-अनार्य-आदिवासी इनके निशाने पर थे, वहीं आज दुनिया भर के शोषित-पीड़ित आमजन उनकी चपेट में हैं।
आइए पढते हैं 1971 में नोबल पुरस्‍कार से सम्‍मानित विश्‍वकवि नेरूदा की कुछ कविताएं- कुमार मुकुल

जहाज

हम पहले ही
किराया चुका कर आये हैं इस दुनिया में
तब क्यों तुम हमें
बैठने और खाने नहीं देते ?
हम बादलों को देखना चाहते हैं,
हम धूप में नहाना चाहते हैं
और नमकीन हवा को सूंघना चाहते हैं
ईमानदारी से तुम यह नहीं कह सकते
कि हम दूसरों को सता रहे हैं,
यह बहुत आसान है, हम राहगीर हैं
हम सब यात्रा पर हैं और वक्‍त हमारा हमसफर है
समुद्र गुजरता है, गुलाब के फूल अंतिम विदा कहते हैं
अंधकार और रोशनी के नीचे पृथ्‍वी गुजरती है
और तुम, हम सभी यात्री गुजरते हैं।
तब तुम्‍हें सताता है क्‍या
तुम क्‍यों इतने गुस्‍सैल हो
उस पिस्‍तौल को ताने हुए तुम किसे ताक रहे हो
हम नहीं जानते
कि सब कुछ लिया जा चुका है,
प्‍याले, कुर्सियां
बिस्‍तर, आईने
समुद्र, शराब और आसमान।
अब हमसे कहा गया है
कि कोई मेज नहीं है हमारे लिए शेष,
यह नहीं हो सकता, हम सोचते हैं।
तुम हमें आश्‍वस्‍त नहीं कर सकते।
तब अंधेरा था, जब हम इस जहाज पर पहुंचे,
हम निर्वस्‍त्र थे,
हम सभी एक ही जगह से आए थे,
हम सभी औरत और आदमी से आए थे,
हम सभी भूख से परिचित थे और तब हमारे दांत उगे,
काम के लिए हमारे हाथ उगे,
और आंखें यह जानने के लिए कि क्‍या हो रहा है।
और तुम नहीं कह सकते हमसे कि हम नहीं जानते,
कि यहां जहाज पर कोई कमरा नहीं है,
तुम हलो तक नहीं कहना चाहते,
तुम हमारे साथ नहीं खेलना चाहते।
तुम्‍हारे लिए इतनी सुविधाएं आखिर क्‍यों
पैदा होने से पहले ही किसने वह चम्‍मच तुम्‍हारे हाथों में सौंप दिए
तुम यहां खुश नहीं हो,
चीजें इस तरह ठीक नहीं होंगी।
मैं इस तरह की यात्रा पसंद नहीं करता
छुपी हुर्इ उदासी को कोनों में ढूंढने के लिए,
और आंखें जो कि प्‍यार से खाली हैं
और मुंह जो कि भूखे हैं।
इस पतझड़ के लिए कोई कपड़ा नहीं है
और अगले जाड़े के लिए खाक तक नहीं
और बिना जूतों के हम कैसे बढेंगे एक भी कदम
इस दुनिया में जहां कि ढेर सारे पत्‍थर रास्‍तों में हैं
बिना मेज के हम कहां खाना खायेंगे,
कहॉ बैठेंगे हम
जब कोई कुर्सी नहीं होगी
यदि यह एक अप्रिय मजाक है
तो फैसला करो भले आदमियो
यह सब जल्दी खतम हो ,
अब गंभीरता से बात करो ।
वर्ना इसके बाद समुद्र सख्त है
और बारिशें ख़ून की ।

अनुवाद - मोहन थपलियाल
-----------------------------------


गरीबी
आह, तुम नहीं चाहतीं--

डरी हुई हो तुम

ग़रीबी से

घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना

नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना


मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,

जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,

तंगहाली ।

हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह

जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है


लेकिन मैं तुम्हें

इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।

अगर मेरी ग़लती से

यह तुम्हारे घर में दाख़िल होती है
अगर ग़रीबी

तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,
उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी

जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।
अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं

काम की तलाश में निकल पड़ो

गरबीले डग भरती,
और याद रखो, मेरे प्यार, कि

मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ
और इकट्ठे हम

सबसे बड़ी दौलत हैं
धरती पर जो शायद ही कभी

इकट्ठा की जा पाई हो ।
अनुवाद - सुरेश सलिल

-----------------------------

स्‍त्री देह

स्त्री देह, सफ़ेद पहाड़ियाँ, उजली रानें
तुम बिल्कुल वैसी दिखती हो जैसी यह दुनिया
समर्पण में लेटी—
मेरी रूखी किसान देह धँसती है तुममें
और धरती की गहराई से लेती एक वंशवृक्षी उछाल ।

अकेला था मैं एक सुरंग की तरह, पक्षी भरते उड़ान मुझ में
रात मुझे जलमग्न कर देती अपने परास्त कर देने वाले हमले से
ख़ुद को बचाने के वास्ते एक हथियार की तरह गढ़ा मैंने तुम्हें,
एक तीर की तरह मेरे धनुष में, एक पत्थर जैसे गुलेल में

गिरता है प्रतिशोध का समय लेकिन, और मैं तुझे प्यार करता हूँ
चिकनी हरी काई की रपटीली त्वचा का, यह ठोस बेचैन जिस्म दुहता हूँ मैं
ओह ! ये गोलक वक्ष के, ओह ! ये कहीं खोई-सी आँखें,
ओह ! ये गुलाब तरुणाई के, ओह ! तुम्हारी आवाज़ धीमी और उदास !

ओ मेरी प्रिया-देह ! मैं तेरी कृपा में बना रहूँगा
मेरी प्यास, मेरी अन्तहीन इच्छाएँ, ये बदलते हुए राजमार्ग !
उदास नदी-तालों से बहती सतत प्यास और पीछे हो लेती थकान,
और यह असीम पीड़ा !

अनुवाद : मधु शर्मा

Janjwar Team

Janjwar Team

    Next Story

    विविध