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आंदोलन

5 हजार की औसत मजदूरी पर काम करते हैं बवाना के 6 लाख मजदूर

Janjwar Team
1 Feb 2018 6:25 PM GMT
5 हजार की औसत मजदूरी पर काम करते हैं बवाना के 6 लाख मजदूर
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काम करने के हालात ऐसे कि दुनिया की सबसे जालिम जेल अबू गरेब भी फेल हो जाए, दस लोगों की क्षमता वाली फैक्ट्रियों में करते हैं 60—60 लोग काम, नहीं मिलता कोई पीएफ न ईएसआई, न ही हाजिरी का है कोई इंतजाम

बवाना अग्निकांड के कारणों और हालातों की जांच करने गई फैक्ट फाइंडिंग टीम की एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट, जो बताती है किन हालातों में काम करने को मजबूर हैं मजदूर। फैक्ट फाइंडिंग टीम में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र रोहित, अविनाश, मजदूर एकता मंच के जयगोबिन्द, डीयू के मजदूर वर्ग अध्ययन केंद्र के अभिनव और दरख्त सांस्कृतिक संगठन के खालिद शामिल थे।

सबसे पहले जानें बवाला इंडस्ट्रीयल इलाके को
दिल्ली से लगभग 23 किमी उत्तर पश्चिम इलाके में बसा बवाना क्षेत्र इस सदी के शुरू होने के पहले तक राजधानी का अंतिम ग्रामीण क्षेत्र माना जाता था। 20 जनवरी 2018 को बवाना के इंडस्ट्रीयल क्षेत्र, सेक्टर पांच, नई दिल्ली में एक फैक्ट्री में आग लगने से दर्जनों मजदूरों की जलकर मौत हो गई थी।

1999 में इस इलाके को औद्योगिक विकास के अंतर्गत लाया गया और इसके लिए लगभग 778 हेक्टेयर जमीन को विभिन्न सेक्टर में विभाजित किया गया। इसके बाद से यहां औद्योगिक क्षेत्र के फैलाव में तेजी आई।आॅटोमोबाईल, इंजीनियरिंग, टूल्स, प्लास्टिक, टैक्सटाइल्स आदिके उद्योग पर जोर दिया गया। इस क्षेत्र में औद्योगिक विकास के ठीक पहले से यानी 1995 और उसके बाद के समय में दिल्ली में मजदूर बस्तियों को उजाड़ने का दौर चलाकर मजदूरों को बवाना में ‘बसाने’ का दौर शुरू हो चुका था। लेकिन जितने मजदूरों को उजाड़ा जा रहा था उसके चंद हिस्से को ही इस ‘बसावट’ में जगह मिली। शेष मजदूर स्थानीय निवासियों के जैसे तैसे बनाये घरों में रहने के लिए विवश हुए।

औद्योगिक विकास की गति तेजी से बढ़ी। कुल पांच सेक्टर बसाये गए बवाना इंडस्ट्रियल एरिया में आज लगभग 6 लाख मजदूर काम करते और रहते हैं। 2016 में 18,000 औद्योगिक इकाईयां थी जो अब 51,697 इकाईयों तक पहुंच चुकी हैं। लेकिन दिल्ली राज्य औद्योगिक और अधिरचना विकास निगम लिमिटेड, एमसीडी और फायर विभाग के पास इसका सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

सरकारी मानकों को धत्ता बताते मजदूरों के काम के हालात
मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक अवैध फैक्टरियों का चलन मानो औद्योगिक विकास का हिस्सा हो चुका है जिसमें राज्य के प्रशासनिक संस्थानों और यहां तक कि सत्ताधारी पार्टियों और स्थानीय दबंगों की भागीदारी मुख्य रहती है। ये ही लोग मजदूरों की रिहाईश ही नहीं बल्कि उनके काम, हालात और मजदूरी तक भी तय करते हैं जो सरकारी मानकों से कतई मेल नहीं खाते।

20 जनवरी 2018 की शाम को बवाना के सेक्टर पांच जिसमें मुख्यतः प्लास्टिक की फैक्टरियां काम करती हैं, की एफ-83 नम्बर की एक फैक्ट्री में आग लगी। इस फैक्ट्री में पटाखे बनते थे। बारूद के धमाकों और तेजी से आग फैलने, एक ही निकासी होने की वजह से वहां काम कर रहे मजदूर भयावह मौत के शिकार हो गये। ज्यादातर अखबारों, टीवी चैनलों ने मरने वालों की संख्या 17 बताई, जबकि मजदूरों की मानें तो मरने वालों की संख्या कहीं ज्यादा थी।

मुनाफे की हवस के शिकार बने मजदूर
23 जनवरी 2018 को हमारी पांच सदस्यीय टीम मामले की तहकीकात करने के उद्देश्य से बवाना के औद्योगिक इलाका के सेक्टर पांच में गये। आसपास के मजदूरों और चाय की रेहड़ी लगाने वाले, ट्रांसपोर्ट में काम करने वाले और फैक्ट्री में आग लगने से प्रभावित हुए कुछ लोगों से बातचीत की। मजदूरों से बात करते समय यह साफ था कि मजदूर डरे हुए हैं और बात करते हुए अपने नाम का उल्लेख करने से बच रहे थे। लेकिन लगभग सभी लोगों का कहना था कि फैक्ट्री में आग लगने से मजदूरों की मौत की संख्या 17 से अधिक है और, यह आग एक ऐसी जानी—बूझी घटना है जो मुनाफा की हवस में इन मजदूरों को वहां झोंक दिया गया।

फैक्ट्री के पास में रहने वाले एक चायवाले के मुताबिक, शाम साढ़े चार बजे मुझे 46 चाय का आर्डर मिला था जिसे मैंने फैक्ट्री में पहुंचा दिया था। फैक्ट्री में बाहर से ताला बंद रहता है इसलिए चाय हमें एक जगह रख देनी होती थी। फिर शाम को पांच बजे इतनी ही चाय का आर्डर आया, लेकिन मुझे दुकान बंद करनी थी इसलिए मैंने चाय नहीं दी। एक अन्य चायवाले ने यह आर्डर लिया। सवाल है कि जब फैक्ट्री में सिर्फ 30 मजदूर काम कर रहे थे तो 46 चाय के कप किसके लिए थे। फैक्ट्री में आग लगभग साढ़े सात लगी थी।

प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं देखी 29 लाशें बाहर निकलते, पर मीडिया ने बताया 17
फैक्ट्री में माल ढोने वाला एक ड्राइवर कहता है, आग बुझाने के लिए 15 के आसपास दमकल वाहन थे। आग विस्फोट के साथ लगी। इसमें बारूद था और आग एकदम से पकड़ लिया। आग बुझने के बाद मैंने लाश निकलते हुए देखा। हमने खुद 29 लाश को निकलते हुए देखा है।

पास की ही एक अन्य फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर कहता है, यहां की कुछ फैक्ट्रियों में होली के त्योहार से जुड़े हुए सामानों का उत्पादन होता है। यह फैक्ट्री भी इसी तरह के माल बनाने के नाम पर आई। हम लोगों को नहीं पता था कि यहां पटाखे बन रहे हैं। इस सेक्टर में तो प्लास्टिक का ही उत्पादन होता था। बीच बीच में फैक्ट्री के भीतर कुछ छोटे विस्फोट की आवाजें तो आती थीं लेकिन हम लोगों ने इतना ध्यान नहीं दिया।

हादसे में जान गंवा चुकी मदीना का बेटा जो मेट्रो विहार में रहता है और उसका एक रिश्तेदार अख्तर बताते हैं, आमतौर पर शनिवार को फैक्ट्री बंद रहती है, लेकिन इस फैक्ट्री का मालिक पूरे हफ्ते 12 घंटे के शिफ्ट पर काम कराता था और इसके बदले 5000 हजार रुपये देना तय था। मेरी रिश्तेदार मदीना भी काम पर गई थी और उसी में जलकर मर गई। फैक्ट्री में आग लगने की सूचना हमें रात लगभग दस बजे मिली। हम भागकर फैक्ट्री पहुंचे फिर अस्पताल पहुंचे। वहां हमने मदीना (मृत महिला मजदूर) की शिनाख्त की। परिवार में एकमात्र वही कमाती थी जिससे बच्चों का खर्च चलता था।

अग्निकांड में जान गंवाने वाली रीता का भाई दीपू बताता है, मेरी बहन रीता वहां काम करती थी। वह फैक्ट्री आग में जलकर खत्म हो गई। उसकी उम्र फैक्ट्री में काम करने वाली नहीं थी। वह 18 वर्ष से कम की थी। घर की आर्थिक हालत खराब होने की वजह से वह भी काम करती थी। फैक्ट्री में 13-14 साल के और भी बच्चे काम करते थे।

मजदूर मजबूरी में करते थे खतरनाक हालातों में काम
मृतक मजदूर अविनाश के पिता कहते हैं, मुझे पता था कि वहां पटाखे बनते हैं। मैंने अपने बेटे को कई बार मना किया, लेकिन फैक्ट्री का मालिक उसे दारू की लत लगा दिया था और उससे काम कराता रहता था। पैसा भी अधिक नहीं देता था।

फैक्ट्री में आग लगने और मजदूरों की मौत के बाद मीडिया में खबर तेजी से फैली। आमतौर पर रिपोर्ट प्रशासन के हवाले से दी गई। फैक्ट्री में आग लगने के बाद दिल्ली सरकार और एमसीडी के पार्टी नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला और एक दूसरे को दोषी ठहराने का क्रम जारी रहा। हालांकि दिल्ली में इस तरह आग लगने और मजदूरों के मरने की पहली घटना नहीं थी, लेकिन यह घटना बहुत तेजी से राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गई।

मीडिया में आई कुछ रिपोर्टों के मुताबिक वहां कम से कम 30 लोग घटना के समय काम कर रहे थे। और फैक्ट्री के भीतर सिर्फ दो आग बुझाने वाले बॉक्स थे। कायदे से वहां प्रत्येक फ्लोर पर धुंआ डिटेक्टर, अलार्म और पानी छिड़कने वाला संयत्र होना चाहिए था। लेकिन इस बिल्डिंग में ऐसा कुछ भी नहीं था। फैक्ट्री के बेसमेंट, ग्राउंड और प्रथम तल पर काम होता था। बेसमेंट में एक और ग्राउंडफ्लोर पर तीन लोग मिले। 13 लोग प्रथम तल में थे। मृतकों में से कुछ एक दूसरे को पकड़कर लेटे या बैठे हुए थे।

पुलिस जांच में सामने आया कि फैक्ट्री मालिक हरिद्वार, उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों से विस्फोटक और विस्फोटक सामग्री, कच्चा माल यहां रखता था। उसे इस तरह का सामान रखने की लाइसेंस नहीं था। छानबीन के बाद फैक्ट्री मालिक मनोज जैन को गिरफ्तार कर उस पर धारा 285, 304, 337 के तहत बवाना पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज किया गया।

गौरतलब है कि यहां की ज्यादातर फैक्ट्रियां अवैध हैं। जौनपुर से आया एक मजदूर बताता है हमें कोई सुरक्षा कार्ड उपलब्ध नहीं कराया गया है। आमतौर पर हमारी तनख्वाह में से 150 रुपये काट लिया जाता है, जो हमारे स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए है, लेकिन चूंकि फैक्ट्री कागज पर होती नहीं इसलिए हमें कोई लाभ भी नहीं मिलता।

फैक्ट्री को लाइसेंस किसी और माल का और काम कुछ और
जांच में यह बात सामने आई कि जिस फैक्ट्री में हादसा हुआ उसकी जमीन एक आदमी को डीएसआईआईडीसी से मिली। उसने एमसीडी से एक खास फैक्ट्री के लिए लाईसेंस लिया, लेकिन यह होता कुछ और है। यहां अस्सी प्रतिशत फैक्ट्रियों के मालिक इसे बंद कर देते हैं और फिर किसी किराये पर उठा देते हैं। यह नया आदमी नया लाईसेंस नहीं लेता। लेकिन वह वही पैदा करने में लग जाता है जिसका उत्पादन वह चाहता है।

हादसे वाली फैक्ट्री चलाने वाला मनोज जैन है, लेकिन इस फैक्ट्रियों फैक्ट्री को किराया पर उठाने वाला ललित गोयल है, वह भी अब सहअभियुक्त है। इस फैक्ट्री आग में मरने वाले सबसे अधिक महिला और बच्चे हैं।

फैक्ट्री आग से बच निकलने वाले दो लोगों में से एक 40 साल की सुनीता हैं। उन्होंने बताया कि वह वहां दो दिन से काम कर रही थीं। मुझे 6000 रुपये प्रति महीने मिल रहा था। मैं पटाखों में बारूद भरने का काम कर रही थी तब मुझे दिखा कि धुंआ उठ रहा है। किसी ने भाग निकलने के कहा और मैं सबसे ऊपरी तल पर चली गई। तब तक लोग चीखने चिल्लाने लगे थे। वे बोल रहे थे कि कूदने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इस तरह मैं कूद गई और बेहोश हो गई। जब उठी तो अस्पताल में थी और मेरा पैर टूटा हुआ था।

घोषित मृतकों की संख्या 17 है जिसमें से 10 महिलाएं हैं। हमारी टीम प्रभावित परिवारों और उस क्षेत्र के लोगों से मिली, जो तकलीफ, डर और संशय से गुजर रही थी। अन्य मजदूर इलाकों और आमतौर पर मजदूरों के काम के हालात की खबरें, लेखों से रूबरू होने पर यह साफ था कि यहां भी हालात अन्य जगहों जैसे ही बदतर हैं।

जेलों से भी बदतर हालातों में काम करते मजदूर, बंधुआ जैसे हालात
हादसे वाली फैक्ट्री में काम के हालात अत्यंत खराब हैं। अन्य फैक्ट्रियों में भी आमतौर पर निकासी गेट और प्रवेश गेट एक ही है। बाहर सुरक्षा निर्देश, फैक्ट्री के बारे में जानकारी के बोर्ड हमें कहीं नहीं दिखे। जिस फैक्ट्री में आग लगी थी उसमें काम करते वक्त बाहर से ताला लगा दिया जाता था। यह भी फैक्ट्रियों में मालिकों द्वारा बंधक बनाकर काम लेने का एक तरीका है। फैक्ट्रियों के भीतर रजिस्टर, मजदूरों का पंजीकरण नहीं के बराबर होता है। ठेका प्रथा ने इस स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। प्रवासी मजदूर आमतौर पर अकेले ही काम करने आते हैं।

उनकी रिहाईश की स्थिति भी बदतर स्थिति में होने और नियमित काम न होने से यह जान सकना भी मुश्किल रहता है कि मजदूर किस फैक्ट्री में कब काम कर रहा है। इस हालात में फैक्ट्री के भीतर आग लगने पर होने वाली मौतों की संख्या निर्धारित करना एक कठिन काम है। ज्यादातर अखबारों ने फैक्ट्री के भीतर काम करने वालों की संख्या 30 निर्धारित किया है। आमतौर पर वहां के मजदूर लोग यह संख्या 40 या उससे ऊपर बता रहे हैं।

दिल्ली सरकार ने मृतकों को पांच लाख और घायलों को एक लाख मुआवजा देने की घोषणा किया है। यह रकम चेक द्वारा प्रभावित लोगों को दी जा चुकी है, जो एक परिवार को आर्थिक और सामाजिक रूप से खड़ा करने के लिए बहुत कम है। यह रकम कम से कम 20 लाख रुपये होनी चाहिए। सही मायनों में दिल्ली सरकार के श्रम मंत्री और एमसीडी मेयर दोनों ही अवैध तरीके से चल रही फैक्ट्री और उसमें लगी आग में मजदूरों की मौत के लिए जिम्मेदार हैं।

फैक्ट्रियों में काम के जो हालात हैं उसमें मजदूरों की मृत्यु या दुर्घटनाग्रस्त होने संभावना कहीं ज्यादा है। फैक्ट्रियों के भीतर न तो न्यूनतम सुविधाएं हैं और न ही न्यूनतम मजदूरी दी जाती है। ऐसे में मजदूरों और उसके परिवार की जीवन सुरक्षा की गारंटी दिल्ली और केंद्र की सरकार को लेनी चाहिए।

एमसीडी मेयर और दिल्ली सरकार के मंत्री के बीच आरोप-प्रत्यारोप से इतना साफ है कि फैक्ट्री चलाने वाले पैसे और पहुंच का इस्तेमाल कर मजदूरों की जिंदगी दांव पर लगाकर मनमाने तरीके से मुनाफा कमाने में लगे हुए हैं। ऐसे में दोषी अधिकारियों और पार्टियों के पदाधिकारियों के खिलाफ भी मामला दर्ज करना चाहिए।

मनोज जैन ने इस फैक्ट्री को लगाने के पहले अन्य जगहों पर फैक्ट्री लगायी थी। छानबीन में लोगों ने बताया कि इसके पहले भी उसकी फैक्ट्री में दुर्घटना हो चुकी है। ऐसे में नये जगह पर फैक्ट्री लगाते समय पुलिस को जानकारी न हो, ऐसा नहीं हो सकता। खासकर, बारूद मंगाना, उसे रखना, उसका प्रयोग करना आदि पुलिस की जानकारी के बिना संभव नहीं है। पुलिस की संदिग्ध भूमिका और इसे नजरअंदाज करने वाले अफसरों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।

मनोज जैन और ललित गोयल पर जिन धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज हुए हैंए वह नाकाफी हैं। उसने फैक्ट्री के गेटपर ताला लगाकर मजदूरों से काम कराया, जबकि ये मजदूर बारूद के साथ काम कर रहे थे और फैक्ट्री के अंदर सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं थी। ऐसे में इन पर मुकदमा इसके अनुरूप धाराओं के तहत दर्ज होना चाहिए।

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