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समाज

ट्रैफिक का शोर झेल रहे लोग हो रहे मोटापे का शिकार

Prema Negi
8 Dec 2018 8:50 AM GMT
ट्रैफिक का शोर झेल रहे लोग हो रहे मोटापे का शिकार
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जब ट्रैफिक का औसत शोर 10 डेसीबल बढ़ता है तब मोटापे की संभावना बढ़ जाती है 17 प्रतिशत तक....

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

एनवायरनमेंट इंटरनेशनल नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार ट्रैफिक के शोर को लम्बे समय तक झेलने वाले लोग मोटापा का शिकार हो सकते हैं। यह अध्ययन 3796 लोगों के वजन, ऊंचाई, कमर की चौड़ाई, बॉडी-मास इंडेक्स और एब्डोमिनल फैट के साथ-साथ ट्रैफिक के शोर के एक्सपोजर के बाद किया गया था।

जब ट्रैफिक का औसत शोर 10 डेसीबल बढ़ता है तब मोटापे की संभावना 17 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इस अध्ययन को बार्सीलोना इंस्टिट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ के वैज्ञानिकों ने किया है।

प्रमुख लेखिका मारिया फ़ॉस्टर के अनुसार इस अध्ययन के निष्कर्षों पर ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि दुनियाभर में ट्रैफिक का शोर बढ़ रहा है और अधिक से अधिक जनसंख्या इसकी चपेट में आ रही है। मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव घातक होते जा रहे हैं और नए अनुसंधान ऐसे प्रभावों को बता रहे हैं जिन्हें पहले सोचा भी नहीं गया था।

शोर से तनाव बढ़ता है और नींद प्रभावित होती है। इससे हारमोन भी प्रभावित होते हैं और रक्तचाप बढता है। नींद प्रभावित होने के साथ ही ग्लूकोज की कार्यप्रणाली में बाधा पड़ती है और भूख पर असर पड़ता है। शोर से कार्डियो-वैस्कुलर रोग और डायबिटीज का खतरा भी बढ़ जाता है।

इसी वर्ष यूरोपियन हार्ट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जब वायु प्रदूषण अधिक होता है, तब अधिकतर मौकों पर ट्रैफिक भी अधिक होता है और इसका शोर भी। वायु प्रदूषण और शोर का स्वास्थ्य पर प्रभाव हमेशा अलग अलग देखा जाता है, पर इनके प्रभावों को समन्वित करने की आवश्यकता है।

केवल वायु प्रदूषण ही स्वास्थ्य को प्रभावित नहीं करता, बल्कि शोर से भी कार्डियो-वैस्कुलर रोग और डायबिटीज का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययन के दौरान देखा गया कि शोर का स्तर 10 डेसिबेल अधिक होने पर हार्ट अटैक का खतरा 2 से 3.4 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। इस अध्ययन के मुख्य लेखक मार्टिन रोजिल हैं जो स्विस ट्रॉपिकल एंड पब्लिक हेल्थ इंस्टिट्यूट में वैज्ञानिक हैं।

वर्ष 2017 में जर्नल ऑक्यूपेशनल एंड एनवायर्नमेंटल मेडिसिन के एक अंक में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार रात में वायुयान के शोर में लम्बे समय तक बने रहने से उच्च रक्तचाप और हार्ट स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। यह प्रभाव बुजुर्गों पर अधिक पड़ता है। वर्ष 2016 में नीदरलैंड्स के वैज्ञानिकों ने ट्रैफिक के शोर को हार्ट अटैक से जोड़ा था।

वर्ष 2015 में मानव स्वास्थ्य पर शोर के प्रभाव से सम्बंधित एक अध्ययन के अनुसार इससे हार्ट स्ट्रोक का खतरा तो बढ़ता ही है, असामयिक मृत्यु की संभावना भी बढ़ जाती है। यह अध्ययन यूरोपियन हार्ट जर्नल में प्रकाशित किया गया था और इसे लन्दन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिकों ने किया था।

दो महीने पहले दिल्ली ट्रैफिक पुलिस ने दिल्ली सरकार के पर्यावरण विभाग के साथ मिलकर 52 शांत क्षेत्रों की पहचान कर उन्हें अधिसूचित किया है। शांत क्षेत्र वो क्षेत्र हैं जहाँ वाहनों के हॉर्न बजाने, तेज संगीत बजाने और पटाके चलाने पर पाबंदी है। इन क्षेत्रों के लिए शोर के मानक भी आवासीय इलाकों या वाणिज्यिक इलाकों की अपेक्षा कठोर होते हैं।

इसके पहले दिल्ली में 103 शांत क्षेत्र अधिसूचित किये जा चुके थे। पर, दिल्ली में जो लोग रहते हैं, उन्हें शांत क्षेत्र की अधिसूचना एक मजाक से अधिक कुछ नहीं लगेगी। यहाँ के वाहन चालकों में हॉर्न बजाने का जो उत्साह है, वह किसी और शहर में नहीं देखा जाता। संभवतः दिल्ली के अधिकतर वाहन चालक यह मानते हैं कि बिना हॉर्न बजाये वे तेज नहीं चल सकते और इसे लगातार बजाना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।

दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के लिए अधिक शोर, कारों में बजनेवाला और बहरा बनानेवाला म्यूजिक या बेवजह हॉर्न कभी भी नियंत्रण का विषय ही नहीं रहा। दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के अनुसार जनवरी से सितम्बर 2018 के बीच शांत क्षेत्रों में हॉर्न बजाने के कारण 13243 वाहन चालकों का चालान काटा गया, पर चालान काटना और जुर्माना भरने में बहुत अंतर है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि शोर दिखाई नहीं देता और तुरंत समाप्त हो जाता है, इसलिए बिना इसे मापे इसका जुर्माना वसूलना कठिन है। हॉर्न बजने की फोटो नहीं खींची जा सकती और भीड़ में वीडियोग्राफी से सीधे तौर पर यह बता पाना लगभग असंभव है कि किस वाहन में हॉर्न बज रहा है।

पिछले वर्ष सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी, देलही टेक्निकल यूनिवर्सिटी और सेंट्रल पोल्यूशन कण्ट्रोल बोर्ड के साथ मिलकर सात बड़े शहरों के कुल 17 शांत क्षेत्रों में शोर के स्तर का अध्ययन किया था। ये शहर थे – दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद और लखनऊ।

इस अध्ययन में एक भी शांत क्षेत्र ऐसा नहीं मिला जहाँ शोर का स्तर दिन या रात में निर्धारित मानकों के अनुरूप हो। निर्धारित मानकों के अनुसार शांत क्षेत्रों में दिन के समय शोर का स्तर 50 डेसिबेल से और रात में 40 डेसिबेल से अधिक नहीं होना चाहिए। उपरोक्त अध्ययन के दौरान दिन में शोर का स्तर 56 से 77 डेसिबेल के बीच था, जबकि रात के समय 51 से 75 डेसिबेल के बीच था।

नॉइज़ पोल्यूशन (रेगुलेशन एंड कण्ट्रोल) रूल्स 2000 के अनुसार हॉस्पिटल, शिक्षा संस्थान, न्यायालय और पुस्तकालयों से 100 मीटर के दायरे का क्षेत्र शांत क्षेत्र है। रूल्स के अनुसार हॉस्पिटल में नर्सिंग होम्स और क्लिनिक सम्मिलित हैं। इसी तरह शिक्षा संस्थानों में कोचिंग इंस्टिट्यूट, फिजिकल ट्रेनिंग सेंटर और जिम इत्यादि सम्मिलित हैं। न्यायालय में ट्रिब्यूनल भी सम्मिलित हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि वर्ष 2000 से लागू इस रूल्स के तहत अब शांत क्षेत्र घोषित किया जा रहा है। वैसे भी, हमारे देश के मानक विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों की तुलना में बहुत लचर हैं। हमारे देश में शांत क्षेत्रों में दिन के समय शोर का स्तर 50 डेसिबेल तक और रात में 40 डेसिबेल तक निर्धारत मानकों के अनुरूप है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों के अनुसार विद्यालयों में इसका स्तर 35 डेसिबेल से अधिक और अस्पतालों में 30 डेसिबेल से अधिक नहीं होना चाहिए।

जाहिर है, शोर का नियंत्रण हमारी सरकारों के लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा है। जनता में इसके नियंत्रण के लिए जागरुकता बढ़ाने के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए जाते हैं। शोर पर तभी चर्चा के जाती है जब इससे सम्बंधित कोई फैसला कोई न्यायालय सुनाता है, जैसे पटाखे पर प्रतिबंध का सर्वोच्च न्यायालय का फैसला या फिर जंतर-मंतर रोड पर शोर के कारण धरना/प्रदर्शन पर रोक का दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला। हमारे देश में सन्नाटे पर शोर होता है और शोर पर सन्नाटा।

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