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विमर्श

'स्वार्थों का टेरियार कुत्ता' नहीं हूं मैं

Janjwar Team
27 Sep 2017 7:01 PM GMT
स्वार्थों का टेरियार कुत्ता नहीं हूं मैं
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प्रभात खबर में वरिष्ठ साहित्यकार रविभूषण का 'समता के पक्षधर दीनदयाल' शीर्षक से एक लेख छपा था। इसमें उन्होंने दीन दयाल उपाध्याय के बारे में लिखा है। इसके लिए सोशल मीडिया पर वामपंथी और प्रगतिशील विचारधारा के लोग उनका भारी विरोध कर रहे हैं।

आइए पढ़ते हैं क्या पक्ष है इस बारे में लेख के लेखक वरिष्ठ साहित्यकार रविभूषण का

मैं फेसबुक पर नहीं था। मेदांता अस्पताल से लौटने के बाद 25 सितंबर के ‘प्रभात खबर’ के अपने काॅलम पर मित्रों, आत्मीय जनों, शुभैषियों और कवियों-लेखकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ीं। आत्मसमर्पण करने, यू टर्न लेने, जम्प लेने, लाल में भगवा मिलाने, रिटायरमेंट के बाद नौकरी की तलाश में रहने, उम्र के इस पड़ाव पर बदलने, ‘नई दिशा में त्वरित विकास’ की ओर अग्रसर होने, शरणागत होने, पोलिटिकल स्टैंड में कमजोर होने और नया जन्म धारण करने जैसा कुछ नहीं है।

मेरा पोलिटिकल स्टैंड साफ है। इस देश में दक्षिणपंथ की काट केवल वामपंथ है। एक ही वर्ष (1925) में जन्म लेने पर भी आज आरएसएस और वामपंथ कहां है, इस पर हमें आत्ममंथन करना ही होगा। मेरे दक्षिणपंथी होने का कोई उदाहरण किसी को नहीं मिलेगा। 1991 से अब तक मैंने लगातार नवउदारवादी अर्थव्यवस्था, कांग्रेस, भारतीय जनसंघ और आरएसएस, सावरकर-गोलवलकर, भाजपा, अटल-आडवाणी, मोदी-शाह पर लिखा है।

सभी साथी आश्वस्त हों कि मैं न बदलने वाला हूँ, न झुकने वाला हूं, न समझौता करने वाला हूं। मुझे कोई खरीदे, यह संभव नहीं है। मेरा जीवन समझौतों में नहीं बीता है। राजनीतिक दलों ने समय-समय पर समझौते किए हैं, कई वामपंथी साथियों ने भी समझौते किए हैं। ‘स्वार्थों के टेरियार कुत्ते’ जिन्होंने पाले हों, अभी तक मैंने अपने को बचा कर रखा है। देवताले का अंतिम कविता संग्रह है- ‘खुद पर निगरानी का वक्त’।

मुझे गहरा दुख है कि मेरे साथियों ने मेरे बारे में गलत धारणा बनाई। मैं केवल यह विश्वास दिला सकता हूं कि इस गर्हित पूंजीवादी व्यवस्था, ‘हिदुत्व’, संप्रदायवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद; आरएसएस और भाजपा की विचारधारा के मैं सदैव खिलाफ हूं और रहूँगा भी। फिलहाल दुश्मन केवल एक है और जैसा गौरी लंकेश ने लिखा है। हमें सारा ध्यान उधर केंद्रित करना चाहिए, न कि आपस में मार-काट करनी चाहिए।

मेरे जीवन, लेखन-वाचन, आचरण-व्यवहार से आपको कभी नहीं लगेगा कि मैं दुश्मनों के साथ हूं। ‘प्रभात खबर’ में अक्टूबर 1991 से मैं नियमित लिख रहा हूं। पहले मेरा स्तंभ साप्ताहिक था। अब तीन-चार वर्षों से पाक्षिक हो गया है। इस अखबार के वार्षिकांक का वर्षों से मैं अतिथि संपादक हूं। इसका प्रत्येक अंक विचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। इस वर्ष की थीम है- ‘असहिष्णुता, भय और हिंसा’।

मेरे जिन साथियों ने मेरे काॅलम पर चिंताएं प्रकट की हैं, उन्होंने मेरा लिखा बहुत कम पढ़ा है। मैंने फासीवादी ताकतों के खिलाफ कम नहीं लिखा है। ‘प्रभात खबर’ के पूर्व प्रधान संपादक हरिवंश मेरे मित्र हैं, पर हम दोनों के विचार भिन्न हैं। वे अब जद-यू के सांसद हैं। नीतीश कुमार की पलटी पर भी मैं लिख चुका हूं। मैत्री अपनी जगह है, विचार अपनी जगह। मैंने कभी अपने विचार से समझौता नहीं किया है।

किसी भी साथी ने फोन करके मुझसे यह नहीं जानना चाहा कि मैंने दीदउ (दीनदयाल उपाध्याय) पर क्यों लिखा है और जो लिखा है, वह आपत्तिजनक और शर्मनाक कैसे है? मैंने शीर्षक दीदउ (दीनदयाल उपाध्याय) दिया था। अखबार ने ‘समता के पक्षधर दीनदयाल जी’ छापा।

अखबारों में अब लिखने-बोलने की बहुत कम जगह है। अंग्रेजी में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘टेलीग्राफ’ बचा हुआ है। हिंदी में पहले की तरह कुछ नहीं है। सच बोलने, तथ्य देने और सत्ता-सरकार के विरूद्ध लिखने की बहुत कम जगह है। हम सब घिरे-फंसे लोग हैं। कोई गली सुरक्षित नहीं है। पतली गली में ही रामदास की हत्या हुई थी। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में बुद्धिजीवियों की हत्याएं हुई हैं। हिंदी प्रदेश में संस्थाएं निशाने पर हैं- जेएनयू और अन्य कई विश्वविद्यालय।

हमें केवल ‘अटैक’ ही नहीं, संवाद भी करना चाहिए। दीदउ पर मेरा लेख एक स्ट्रेटजी और रणनीति के तहत था। दीदउ ने समता, ध्रुवीकरण, विचार-सिद्धांत, राजनीतिक दलों के दूूसरे दल में विलय, गठबंधन, राजनीतिक दल (जनाधारित, धनाधारित), व्यक्ति-पूजा, हिंदू और भारतीय संस्कृति, हिंदू और मुसलमान, धर्म की सीमित-व्यापक अवधारणा, परस्पर सहयोग, समानता-असमानता, एकात्म या अभिन्न मानववाद संबंधी जो विचार व्यक्त किए हैं, उन पर आज विचार की कोई आवश्यकता है या नहीं?

आज सावरकर-गोलवलकर की कम और दीदउ पर संघ-भाजपा काफी विचार कर रही है। उन्हें एक साथ अर्थशास्त्री, दार्शनिक, चिंतक, समाजशास्त्री आदि बताया जा रहा है। मैंने आरंभ में ही इन विविध क्षेत्रों में उन्हें ‘प्रतिष्ठित’ किए जाने की बात कही है।

राष्ट्रपति कोविद ने अपने पहले भाषण में ही गांधी के साथ दीनदयाल उपाध्याय का उल्लेख किया। नेहरू की चर्चा तक नहीं की। मैंने दीदउ के विचारों के साथ गांधी और नेहरू पर विचार करने की बात कही है। दीदउ के ‘एकात्म मानववाद’ पर विचार की आवश्यकता बताई। बेशक, इसे मैंने उनकी ‘बड़ी वैचारिक देन’ भी कहा। इस पर विचार करना कहीं से दीदउ या संघ का समर्थक होना नहीं है। उनका ‘एकात्म मानववाद’ उनके और उनके अनुयायियों के अनुसार ‘मानव-कल्याण का एक समग्र विचार’ है।

यह समय हमसे लोगों को संवाद-मुखर करने की मांग करता है। केवल हमें तथ्य देकर, विवेचन-विश्लेषण कर सच को सामने नहीं लाना है, अपितु इस दिशा में दूसरों को भी संवाद सक्रिय करना है। हिंदी बुद्धिजीवियों का कार्य आज कहीं अधिक जिम्मेदारी का है। दूसरों के मानस को केवल संवाद और प्रश्नों के जरिए ही चिंतनशील बनाया जा सकता है।

हिंदी प्रदेश संघियों और भाजपाइयों का गढ़ है। 1989 के पहले ऐसा नहीं था। सभी राजनीतिक दलों ने आरएसएस को समझने में गलती की है। ‘राष्ट्रीय’ और ‘भारतीय’ संघ और जनसंघ-भाजपा ने अपने नामों के पहले धोखा देने के लिए लगाया, जबकि लगाना ‘हिंदू’ चाहिए था।

गिने-चुने बुद्धिजीवी ही सावरकर, आरएसएस, गोलवलकर, हेडगेवार और दीदउ को अच्छी तरह समझते हैं। मैंने दीदउ द्वारा ‘बार-बार परस्पर सहयोग पर बल’ देने की बात लिखी। यह लिखा कि वे ‘ध्रुवीकरण के विरूद्ध’ थे। ‘त्वरित लाभ के लिए सिद्धांतों के त्याग’ को उन्होंने अनुचित माना था। देश में सभी राजनीतिक दल टूटे हैं। भारतीय जनसंघ कभी नहीं टूटा। भाजपा भी नहीं टूटी।

संघ ने कभी त्वरित लाभ के लिए सिद्धांतों का त्याग नहीं किया। उसने 1946 में असम में प्रवेश किया। फसल सत्तर वर्ष बाद काटी। आज वहां भाजपा की सरकार है।

संपूूर्णानंद ने दीदउ को ‘अपने समय का एक महत्वपूर्ण राजनेता’ कहां है। समाजवादी भाजपा के साथ यों ही खड़े नहीं हुए। इतिहास पुराना है। दीदउ ने जिस राजनीतिक सिद्धांत की बात कही है- वह देश में केवल भाजपा और वामपंथ के पास है। हम क्यों कमजोर होते गए हैं, कभी हमने आत्मचिंतन नहीं किया।

दीदउ राजनीतिक दलों के विलय के विरूद्ध थे। भाजपा उन्हें अपना सिद्धांतकार मानती है, पर जनसंघ ने अपने को जनता पार्टी में विलीन किया। दीदउ व्यक्ति पूजा के पक्ष में नहीं थे। भाजपा उनकी और मोदी की पूजा कर रही है। इससे हम इन्कार नहीं कर सकते कि उनमें सामाजिक-सांस्कृतिक राजनीतिक दृष्टि थी।

बेशक, वह घातक है, पर अन्य दलों ने अपनी ऐसी दृष्टि (घातक नहीं) विकसित क्यों नहीं की? मैंने धर्म संबंधी उनकी दृष्टि का उल्लेख किया है। धर्म के मौलिक सिद्धांत को उनके द्वारा ‘अनंत’ और ‘सार्वभौमिक’ मानने की बात कही है, एक व्यापक अवधारणा के रूप में देखने की भी बात कही है।

क्या इस पर विचार गलत है कि धर्म की दो धारणाएं हैं- व्यापक और संकुचित? भाजपा धर्म की व्यापक अवधारणा के विरूद्ध है। साफ शब्दों में मैंने यह लिखा है कि उनकी ‘भारतीय संस्कृति’ आज की प्रचलित हिंदू संस्कृति से भिन्न है या अभिन्न- यह विचारणीय है। विपक्ष को ‘रिजेक्ट’ करने से आवश्यक उनके उन विचार-बिंदुओं पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए, जिस पर ये टिके हुए हैं।

वैचारिक रूप से वामपंथ संघ-भाजपा की तुलना में अधिक समृद्ध है। आज संवाद की जरूरत लोकतंत्र की रक्षा के लिए है। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का आज दायित्व भी हमारे ऊपर है। मैंने अपने लेख में दीदउ का कहीं पक्ष नहीं लिया है, पर यह भी सच है कि उससे कुछ ऐसी ध्वनियां भी निकलती हैं, जिससे लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि यह उनके पक्ष में है। यह लेख एक स्ट्रेटजी के तहत मैंने लिखा था, ताकि दीदउ के विचारों पर संवाद हो, बहस हो, उनकी जांच-परख हो।

मैंने सबकुछ अपनी ओर से नहीं कहा। यह कौन नहीं जानता है कि संघ जिसे अपना शीर्ष पुरुष मानता है, वह संघ के विचारों के साथ नहीं है। केवल दो-चार व्यक्तियों द्वारा सच कहने का यह समय नहीं है। हमें हजार मुखों से बार-बार सच कहना होगा।

दीदउ के यहां सिद्धांत महत्वपूर्ण था, न कि व्यक्ति, बटुआ और पार्टी। संघ कभी सिद्धांत-विमुख नहीं रहा है। दीदउ ने लिखा कि पार्टियों, राजनीतिज्ञों के सिद्धांतों, उद्देश्यों, आचरणों की कोई ‘मानक संहिता’ नहीं है। वे ‘सार्वभौमिक विज्ञान के पक्ष’ में थे, पर पाश्चात्य जीवन-पद्धति एवं मूल्य के पक्ष में नहीं। असमानता-समानता संबंधी उनके विचार भी मैंने उदधृत किए थे।

यह सच है कि अमूमन जिस तरह विरोधियों को ‘रिजेक्ट’ किया जाता है, वैसा मैंने नहीं किया। अभी भी मैं यह समझता हूँ कि उनके सर्वांगीण विचारों पर विस्तारपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। अभी तक हमारे कम वामपंथी साथियों ने आरएसएस, गोलवलकर, सावरकर सबका व्यापक मूल्यांकन किया है।

हमारे पास केवल विचार ही हथियार है, राजनीतिक दलों ने इसे कमजोर किया है। मेरी मंशा कहीं से भी दीदउ के समर्थन की न थी, न है। विस्तार से आगे बहुत कुछ लिखना है। वैचारिक बातें कम साथियों ने की हैं। केवल आशुतोष कुमार ने की है।

मेरे बहाने जसम पर हमला करना अशोभनीय है। जसम में गंभीर और समर्पित साथी हैं। मैं तो जसम से पहले नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा से जुड़ा रहा हूं। चालीस-पैंतालीस वर्ष में मिल—जुलकर खोजिए, मेरे खिलाफ कुछ भी नहीं मिलेगा। अपने संबंध में अधिक लिखना अश्लील-कर्म है।

यह सच है कि मैंने दीदउ पर ‘अटैक’ नहीं किया है। संवाद कीजिए, सवाल उठाइए- यह भी एक बड़ा काम है। हमारे पास केवल भाषा है, विचार है और उनके पास? राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, अनेक प्रदेशों में सरकारें, संघ के 54-55 आनुषंगिक संगठन।

मुझ पर वार करने से अगर हित सधता है, तो अवश्य वार कीजिए। मैं अपने को समझता हूं, जानता हूं, फेसबुक पर होने वाली ‘गंभीर’ चर्चाओं से थोड़ा-बहुत परिचित हूं। मुझे समझने वाले अभी कुछ लोग हैं। किसी भी मित्र ने फोन से यह नहीं पूछा कि आपने यह सब क्यों लिखा? मुझे दुख है कि आपको मेरे कारण दुख पहुंचा।

इतना तो स्पष्ट हुआ कि आपको मुझसे अधिक उम्मीदें थी। कृपया उम्मीद कायम रखिए। पता लगाते रहिए- मैं क्या करता हूं, क्या लिखता-बोलता हूं, जानते रहिए। विश्वास कीजिए, मुझे कोई खरीद नहीं सकता। मैंने कभी उदय प्रकाश से माफी नहीं मांगी है और मैं सदैव अपने विचारों पर कायम हूं और रहूंगा।

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