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समाज

बर्बाद हो गयी हजारों परिवारों को पालने वाली बुंदेलखंड की 'लाई मंडी'

Prema Negi
16 March 2019 2:49 AM GMT
बर्बाद हो गयी हजारों परिवारों को पालने वाली बुंदेलखंड की लाई मंडी
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मशीनों की प्रतियोगिता में लाई बनाने वाले सभी लोगों ने लागत कई गुना बढ़ जाने से अपना परंपरागत धंधा छोड़ दिया है, क्योंकि न तो इन्हें लंबे-चौड़े वादे करने वाले राजनीतिक नेताओं ने कोई संरक्षण दिया और न ही सरकार ने ही कोई भी सहायता सुविधाएं ने इन्हें दी...

उमाशंकर पांडे की रिपोर्ट

बुंदेलखंड। उत्तर प्रदेश स्थित बांदा जनपद के अतर्रा में 130 भट्टियों में रोज 150 कुंटल धान से लाई बनती थी, 1034 मजदूर लाई मंडी में कार्यरत थे। मगर देश की सबसे बड़ी लाई मंडी आज बर्बाद हो चुकी है। बुंदेलखंड के सबसे मशहूर कस्बे अर्तरा के हजारों रहवासी अपने धंधे के चौपट होने से पलायन को विवश हैं।

बांदा जनपद में स्थित अतर्रा में एक बड़ा मोहल्ला है लाई गली, यहां लाई बाजार था। प्रसाद के लिए, बीमारी के लिए, दवा के लिए, लाई के (लढुईया) बनाने के लिए, भेल पूरी खाने के लिए उच्च क्वालिटी की देसी मुरमुरे लाई चाहिए होते थे तो अतर्रा की मंडी से लेकर जाते थे।

बड़े बड़े मंदिरों में प्रसाद के रूप में लाई ले जाना लोग शुभ मानते हैं। चित्रकूट, मैहर, कालिंजर, इलाहाबाद, बनारस सहित भारत के प्रत्येक मंदिर में प्रसाद के तौर पर लाई, नारियल, शक्कर, इलायची दाना शुभ माने जाते हैं। बीमारी में इसे सुपाच्य भोजन कहा गया है। गौरतलब है कि धान से चावल बनता है और चावल से लाई।

इस लाई मंडी में स्थित देशी लाई की दुकानें इसलिए नहीं बंद हो गई की लोगों ने लाई का उपयोग करना बंद कर दिया, बल्कि इसका कारण हैं वे मशीनें जो चीन से लाई बनाने के लिए भारत आ गईं। इन बड़ी-बड़ी मशीनों में नकली चावल द्वारा सस्ती लाई से बाजार भरे पड़े हैं। मगर न तो किसी को मेलों में धार्मिक स्थल में इस नकली लाई को देखने की फुर्सत है, न ही अतर्रा की बंद पड़ी लाई भाटियों को चलाने की जरूरत है।

किसी समय वैद्यों द्वारा बीमार व्यक्ति को लाई दवा के रूप में दी जाती थी। लाई—चना, लाई के लड्डू गरीबों का प्रिय मिष्ठान था, आज भी है। हर गरीब व्यक्ति बाजार से अपने घर बच्चों के लिए बाजार से लाई लडडू ले जाता है, क्योंकि सस्ते हैं।

गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत में कहीं भी आपको लाई गली, लाई मंडी, भुजंवा मंडी नहीं मिलेगी, यह केवल बांदा की अतर्रा में है। मशीनों की प्रतियोगिता में लाई बनाने वाले सभी लोगों ने अपना परंपरागत धंधा छोड़ दिया है। क्योंकि न तो इन्हें लंबे-चौड़े वादे करने वाले राजनीतिक नेताओं ने कोई संरक्षण दिया और न ही सरकार ने ही कोई भी सहायता सुविधाएं ने इन्हें दी।

अतर्रा की एकमात्र देसी भट्टी द्वारा लाई बनाने वाले जुगल किशोर गुप्ता बताते हैं कि एक जमाने में बड़े बड़े व्यापारी यहां लाई खरीदने के लिए आते थे। अतर्रा की लाई उच्च क्वालिटी की बनती थी। अब मैं खुद इस धान का बीज 9 नंबर किसान को देता हूं। 4 गांवों के किसान मात्र लाई बनाने वाला धान पैदा करते हैं।

का रेट बढ़ गया, लकड़ी का रेट बढ़ गया, जिस रेहू मिटटी से लाई बनती है उस मिट्टी का रेट ₹4000 प्रति ट्रैक्टर ट्राली हो गया है। बाजार में मशीनों द्वारा बनाई गई लाई से देसी शुद्ध लाई महंगी बनती है, हर व्यक्ति सस्ता माल चाहता है। देसी लाई पूरी तरीके से भारतीय पद्धति में बनती है।

जुगल किशोर आगे कहते हैं, लकड़ी, बुरादा, मिट्टी, नमक, मजदूरी सब कुछ महंगा हो गया। जो लाई सरकारी अस्पतालों में मंदिर मेला में बड़ी मात्रा में खरीदी जाती थी, अब लोग नकली मशीनों द्वारा बनाई गई लाई खरीदते हैं। न तो राजनेताओं को फुर्सत है, न सरकार को, न आज तक किसी ने पूछा कि लाई मंडी जहां हजारों व्यक्ति काम करते थे क्यों बंद हो गई, कैसे बंद हो गई, उन्हें कैसे चलाया जाए। हमारी लाई से लड्डू, भेलपुरी, पकवान, खीर बनती थी। बच्चे, बूढ़े, नौजवान, माताएं, बहनें सभी लोग दिन रात मेहनत कर इन्हें बनाती थीं। मगर आज अतर्रा के लाई व्यापारियों का बहुत बड़ा स्थापित उद्योग के साथ साथ सब चौपट हो गया।

इस काम को करने वाले सब लोग यहां से पलायन कर गए। कोई जबलपुर, कोई सतना, कोई दिल्ली, कोई लखनऊ, कोई भोपाल। हंसराज दुला, शक्तिदीन, भुजा, कल्लू गुप्ता समेत कई लोग लाई के बड़े व्यापारी थे, जो जबलपुर, लखनऊ और भोपाल चले गए। औसतन लाई की एक भट्ठी में 5 व्यक्तियों को रोजगार मिलता है। एक किलो धान में 500 ग्राम लाई बनती है।

किसी जमाने में अतर्रा कस्बे में आचार्य विनोबा भावे, सुचिता कृपलानी, पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरी, पद्म विभूषण निर्मला देशपांडे, पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता सहित देश के बड़े-बड़े गांधीवादी रहा करते थे। भूदान आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने यहां लंबा प्रवास किया। लाई चना, नमक, खाकर पूरे बुंदेलखंड का दौरा किया। अतर्रा की लाई स्वास्थ्य की दृष्टि से सुपाच्य थी।

देखते देखते यह व्यापार भी एक दशक में चौपट हो गया। यदि प्रयास किया जाए तो इस व्यापार को बचाया जा सकता है। जागरूक वर्ग से निवेदन है कि अतर्रा की देसी लाई मंडी को स्थापित करने में मदद करें। लाई बनाने वाले मजदूर और व्यापारियों का पलायन रोकें। हम सब मिलकर सामूहिक प्रयास करें, और सरकार जागरुक हो तो इस उद्योग को बचाया जा सकता है, जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिलता है।

(उमाशंकर पांडे सर्वोदय कार्यकर्ता हैं।)

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