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संस्कृति

टॉयलेट एक 'शर्म' कथा

Janjwar Team
14 Aug 2017 12:26 PM GMT
टॉयलेट एक शर्म कथा
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घर में करना अच्छा नहीं लगता। बहू—बिटिया जाती हैं, इसलिए मैं उसमें नहीं जाता। मैंने कहा- इसमें क्या, ये इसीलिए तो है। धीरे से मुस्कुराकर बोले, घर में करन में मोये शरम आत...

जीशान अख्तर

वर्ष 2014 में दिल्ली में तख्तापलट के बाद देश में टॉयलेट और स्वच्छता की चर्चा गरम है। गली-मोहल्ले में नेता हाथ में झाड़ू पकड़े नज़र आते हैं। गोरखपुर में हुई बच्चों की मौतों के बीच लखनऊ से केंद्रीय मंत्री उमा भारती स्वच्छता रथ पर सवार हुई। हालांकि गंगा की सफाई तीन साल में कितनी हुई, यह सवाल मैं उनसे पूछ चुका हूँ। यह सवाल उन्हें ज़्यादती लगता है।

खैर, अक्षय कुमार-भूमि पेडनेकर की फिल्म स्वच्छता अभियान में एक और कड़ी की तरह है। अक्षय यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ से मिले भी थे। मशहूर फिल्म समीक्षक रवि बुले के अनुसार फिल्म का पहला हाफ़ ठीक है। फिल्म मनोरंजन करती है। अक्षय-भूमि अपनी भूमिकाओं में फिट हैं, लेकिन दूसरे हाफ़ में फिल्म रेंगने लगती है। संदेश इस तरह से है कि फिल्म सरकारी प्रचार बन जाती है। एक वेबसाइट ने इसे सबसे लम्बा सरकारी विज्ञापन कहा है।

फिल्म ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है, जहां महिलाएं और पुरुष अलग-अलग समय पर नित्य क्रिया के लिए लोटा या बोतल में पानी लेकर निकलते हैं। फिल्म में दुल्हन बगावत कर इस तरह खुले में जाने को राजी नहीं होती। रियल लाइफ में पिछड़े बुंदेलखंड जैसी जगहों पर भी ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जब ससुराल में शौचालय नहीं होने पर लड़कियों ने शादी को मना किया है या फिर दुल्हन बनने के बाद वह ससुराल में नहीं रहीं।

शौच का ये तरीका सदियों पुराना है। उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में मेरी ननिहाल है। करीब 15 साल पहले घर की महिलायें मोहल्ले की कई महिलाओं के साथ भुरारे (अलसुबह जब अँधेरा होता है) या फिर शाम में अँधेरा होने के बाद लोटा लेकर झुण्ड में निकलती थीं। दोपहर में उनके जाने पर मनाही थी। हालांकि पुरुषों को आज़ादी थी। वह किसी भी समय फारिग़ हो सकते थे। वहाँ के बच्चे घर इटावा (भरथना) आते थे।

एक बच्चे को घर आने के कुछ देर बाद पेट में गुड़गुड़ हुई तो उसने कहाँ जाएँ पूछा। टॉयलेट का गेट खोल कहा गया कि जाओ। तो एकदम ठिठक गया। बोला- ‘कोठा में नईं जईयें।’ (गाँवों में अब भी कमरे को कोठा कहते हैं।) बच्चे का कहना था कि कमरे में नहीं जाऊँगा। उसे लगा कि कमरा है। टॉयलेट ऐसा होता है, इससे पहले उसने नहीं देखा था। हालांकि काफी समय से वहाँ शौचालय है। ननिहाल और कोठे में नहीं करेंगे कहने वाले बच्चे अब तो पूरी तरह से आधुनिक हो चुके हैं।

लेकिन क़स्बेनुमा इस गाँव में अन्य कई महिलायें अब भी सुबह या शाम अँधेरे में निकलती हैं। पुरुष अँधेरा होने का इंतज़ार नहीं करते।

कुछ समय पहले अपने गृह जनपद इटावा जाना हुआ। यहाँ से तीन किलोमीटर अपने गाँव भी गया। यहाँ अधिकतर मकान कच्चे से पक्के हो गये हैं। (हालांकि गाँव में सिर्फ कंक्रीट की दीवारें खड़ी होने को विकास नहीं माना जा सकता।) जिस घर में बैठा था, वो कभी एकदम कच्चा हुआ करता था। छप्पर यहाँ था, जो अब गायब है। घर व्यवस्थित तरीके से पक्का बना है। टॉयलेट, बाथरूम, किचन है। सोफ़ा भी है। घर के अन्दर कुछ देर रुकने पर लगा कि शहर में हूँ। घर के मुखिया ने घर के अलग-अलग खण्डों के बारे में बताया और कहा कि टॉयलेट भी है। मैं सिर हिला रहा था। उन्होंने कहा कि लेकिन मैं इसमें नहीं जाता हूँ। खेत या जंगल ही अपना ठिकाना हैं। मैंने चौंक कर पूछा- क्यों?

बोले- घर में करना अच्छा नहीं लगता। बहू—बिटिया जाती हैं, इसलिए मैं उसमें नहीं जाता। मैंने कहा- इसमें क्या, ये इसीलिए तो है।

इस पर धीरे से मुस्कुराकर बोले- ‘घर में करन में मोये शरम आत।’ यानी उन्होंने कहा कि मुझे घर में करने में शर्म आती है। गांवों में अनेक लोग ऐसे हैं, जो घर की टॉयलेट में बैठ जाएँ तो उन्हें शिकायत होती है कि ठीक से कर नहीं पाए। ये कैसी वैज्ञानिक और व्यावहारिक वजह है, यह समझ नहीं आता।

कई इलाकों में देखा गया है कि अनुदान से बनाए गये शौचालयों में ताले लटका दिए या फिर उनमें गन्दगी भर दी गयी। लोगों ने कंडे (गोबर के उपले) भर गोदाम बना दिया। जिन इलाकों में पानी नहीं वहाँ भी टॉयलेट बंद कर दिए गये, क्योंकि करने के बाद सफाई के लिए एक बाल्टी पानी की ज़रूरत पड़ती है।

खेत में एक लोटे में काम हो जाता है। ‘बहाने’ के लिए पानी की ज़रूरत नहीं पड़ती। ऐसी भी तस्वीरें आ चुकी हैं, जिसमें सीट को बंद कर टॉयलेट को चूल्हा रख किचन बना लिया गया। कई गाँवों में मैंने देखा है कि झोपड़ी के बाहर टॉयलेट बनाया गया, लेकिन लोग इनमें नहीं जाते। पूछने पर कहते हैं- करने के लिए पहले खाने को तो होना चाहिए।

ऐसे दर्जनों मामले सामने आ चुके हैं जब लोगों ने सरकार से अनुदान की राशि पाने के लिए सड़क के किनारे या पहले से ही आसपास खुदे गड्ढों का फ़ोटो खिंचवा लिया और अनुदान की राशि प्राप्त कर दूसरे कामों में लगा ली, लेकिन सत्यापन होने पर पोल खुल गयी।

ऐसी स्थिति के बीच सरकार का स्वच्छता अभियान और अक्षय कुमार की फिल्म बदलाव करेगी, यह कहना ज़ल्दबाजी होगा। जो लोग ये फिल्म देखने जायेंगे। महंगे टिकट लेंगे। उनमें से लगभग सभी के घर टॉयलेट होगा। गाँवों में जहाँ टॉयलेट नहीं हैं, जहां हैं, वहां लोग घर में ‘शरम’ के कारण या दूसरे कारणों से नहीं जाते, उन तक फ़िल्म उद्देश्य के साथ पहुंच पाएगी या कहें ऐसे लोग फ़िल्म तक पहुँच पायेंगे, ये कहना भी मुश्किल है।

(दैनिक भास्कर में कार्यरत जीशान अख्तर 'आज़ाद ऐलान' ब्लॉग लिखते हैं, यह लेख आप उनके ब्लॉग पर भी देख सकते हैं।)

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