Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

भाजपा के लिए चेतावनी है छात्रसंघ चुनावों के नतीजे

Janjwar Team
15 Oct 2017 2:41 PM GMT
भाजपा के लिए चेतावनी है छात्रसंघ चुनावों के नतीजे
x

अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी एक बार फिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी को समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन के मुकाबले करारी हार का सामना करना पडा है। जिस उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 में से 73 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों का कब्जा है और जहां चंद महीनों पहले ही विधानसभा के चुनाव में भाजपा ने विशाल बहुमत से ऐतिहासिक जीत हासिल कर सरकार बनाई है, उसी उत्तर प्रदेश के दूसरे सबसे बडे विश्वविद्यालय में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक छात्र संगठन की हार अपने आप में काफी मायने रखती है।

इस चुनाव के साथ ही पिछले कुछ महीनों के दौरान देश के अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों में हुए छात्रसंघ चुनाव के नतीजों को भी अगर देश का राजनीतिक मिजाज मापने का पैमाना माना जाए तो संकेत साफ है कि देश के छात्र और युवा वर्ग में बेचैनी है और वह बदलाव के लिए आतुर है।

यह संकेत केंद्र सहित देश के आधे से ज्यादा राज्यों में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी के लिए चेतावनी है और बता रहा है कि छात्रों और नौजवानों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकर्षण की चमक अब फीकी पडती जा रही है। लगभग साढ़े तीन साल पहले हुए आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को जो ऐतिहासिक जीत हासिल हुई थी, उसमें छात्रों और नौजवानों की अहम भूमिका थी। लेकिन हाल ही में विभिन्न राज्यों में हुए विश्वविद्यालय और महाविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में एबीवीपी की हार इस बात का संकेत है कि छात्र समुदाय का प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से मोहभंग हो रहा है।

वैसे कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि महज कुछ विश्वविद्यालयों में कुछ हजार छात्रों के बीच होने वाले चुनाव के नतीजों से लगभग सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश की राजनीति का मिजाज कैसे भांपा जा सकता है?

तर्क के लिहाज यह प्रश्न अपनी जगह सही हो सकता है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की राजनीति में छात्र आंदोलन का हमेशा ही महत्व रहा है। स्वाधीनता संग्राम के दौर में भी और देश आजाद होने के बाद भी हमारे राष्ट्रीय जीवन में ऐसे कई मौके आए जब छात्रों ने निर्णायक हस्तक्षेप किया है।

आजादी के बाद 1973-74 के दौरान गुजरात और बिहार के छात्र आंदोलन को कौन भूल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप देश में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन और लोकतंत्र बहाल हुआ था। इस सिलसिले में असम के छात्र आंदोलन को भी याद किया जा सकता है और 1989 तथा 2014 के आम चुनाव में हुए सत्ता परिवर्तन को भी, जो कि छात्रों की अहम भागीदारी से ही संभव हुआ था।

बहरहाल, छात्रों के राजनीतिक रुझान में आ रहे ताजा बदलाव की बात करें तो पिछले कुछ महीनों के दौरान दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) और दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के अलावा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, असम, त्रिपुरा आदि राज्यों के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव के नतीजे एक बार फिर देश की राजनीतिक फिजा में बदलाव का संकेत दे रहे हैं।

हालांकि इन चुनावों में किसी एक राजनीतिक दल से संबद्ध छात्र संगठन को ही जीत हासिल नहीं हुई है, कहीं वाम दलों से जुडे छात्र संगठनों को तो कहीं कांग्रेस से, कहीं आम आदमी पार्टी से और कहीं दलित आंदोलनों से जुड़े छात्र संगठनों ने जीत हासिल की है लेकिन सभी जगह हार का स्वाद भाजपा से संबद्ध विद्यार्थी परिषद को ही चखना पड़ा है।

जिन राज्यों में छात्र संघ चुनाव हुए हैं उनमें से दिल्ली और त्रिपुरा जैसे छोटे राज्यों के अलावा सभी जगह भाजपा की सरकारें हैं, लिहाजा कहा जा सकता है कि उन सरकारों ने छात्रों को और उनके अभिभावकों को अपनी पार्टी से जोड़े रखने के लिए या छात्रों में उनके भविष्य के प्रति उम्मीद जगाने जैसा कोई काम नहीं किया है। इस सिलसिले में इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि देशभर में शिक्षा का बाजारीकरण हो चुका है जिसके चलते शिक्षा लगातार महंगी हो रही है।

नए सरकारी शिक्षण संस्थान खुल नहीं रहे हैं और निजी शिक्षण संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह लगातार पनप रहे हैं। हालांकि इस इस स्थिति के लिए अकेले केंद्र या राज्यों की भाजपा सरकारों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। शिक्षा को मुनाफाखोरी का माध्यम बनाने के पापकर्म को बढ़ावा देने में दूसरी पार्टियों की तुलना में कांग्रेस का योगदान कहीं ज्यादा है।

2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की हैसियत से नरेंद्र मोदी ने अपनी कई चुनावी सभाओं में और उनकी पार्टी ने अपने संकल्प पत्र में शिक्षा को मुनाफाखोरों के चंगुल से मुक्त कराने और उसे सस्ती तथा सर्व सुलभ बनाने का वादा किया था लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा की सरकारों ने इस मामले में कुछ करना तो दूर, सोचा तक नहीं है। ऐसे में अगर छात्रों और उनके अभिभावकों का भाजपा से मोहभंग होता है तो यह स्वाभाविक ही है।

भाजपा से छात्र और युवा वर्ग के मोहभंग की एक वजह बढ़ती बेरोजगारी भी है। भाजपा ने 2014 के चुनाव में वादा किया था कि वह सत्ता में आने पर हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोजगार देगी। लेकिन हकीकत यह है कि सरकार न सिर्फ रोजगार के नए अवसर पैदा करने में नाकाम रही है, बल्कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर उसके अनर्थकारी फैसलों के चलते करोड़ों लोगों को नौकरियों व अन्य रोजगारों से हाथ धोने पड़े हैं। ऐसे में छात्रों का अपनी पढाई पूरी करने के बाद भविष्य के लिए चिंतित और मौजूदा सरकार से असंतुष्ट होना लाजिमी है।

अगले कुछ दिनों में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तथा अगले वर्ष मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इस संदर्भ में छात्र संघ चुनावों के नतीजे भाजपा के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। इन नतीजों से विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस बेहद उत्साहित है और वह इसमें 'मोदी लहर के अंत की शुरुआत’ देख रही है।

उसका यह उत्साह अपनी जगह लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि शहरी युवाओं में एक अरसे से कांग्रेस से वितृष्णा और नरेंद्र मोदी के प्रति मुग्धता के जो भाव कायम थे, उसमें अब कमी आने के लक्षण साफ दिखने लगे हैं। 2014 के बाद दिल्ली और बिहार के अलावा लगभग सभी विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजों पर मोदी के प्रति युवाओं में आकर्षण का असर दिख रहा था। यहां तक कि छात्र राजनीति को प्रभावित करने वाले मुद्दों और बहसों में भी इस आकर्षण की भूमिका स्पष्ट थी।

विद्यार्थी परिषद इस स्थिति का फायदा अपने आधार को व्यापक बनाने में उठा सकती थी, लेकिन उसकी दिलचस्पी छात्रों का भरोसा जीतने में कम और सत्ता की धौंस दिखाने में ज्यादा नजर आई। उसके कई क्रिया-कलाप तो गुजरे जमाने की युवक कांग्रेस की यादें ताजा कराने वाले रहे।

चाहे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला से जुडा विवाद हो या जेएनयू में कथित राष्ट्रवाद को लेकर चली बहस हो या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में खड़ा किया गया हंगामा हो, लगभग हर मौके पर विद्यार्थी परिषद के वाचाल नेता अपने सत्ता-संपर्कों के दम पर विरोधी छात्र संगठनों को ध्वस्त करने की कोशिश और उसे ऐसा करने से रोकने पर विश्वविद्यालय प्रशासन अथवा शिक्षकों से बदतमीजी करते दिखे।

इस सिलसिले में पिछले दिनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लड़कियों के साथ गुंडागर्दी करने के मामले तो विद्यार्थी परिषद के लड़कों ने बेहयाई की सारी सीमाओं को ही लांघ दिया। स्वाभाविक रूप से छात्रों को उसका इस तरह का आचरण पसंद नहीं आया। उनकी यह नाराजगी छात्र संघ चुनावों के नतीजों में तो झलकी ही है, आने वाले विधानसभा चुनावों पर भी अपनी छाप छोड सकती है।

(वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अनिल जैन पिछले तीन दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। उन्होंने नई दुनिया, दैनिक भास्कर समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है।)

Janjwar Team

Janjwar Team

    Next Story

    विविध