रेखा आर्य अगर आम नागरिेक की भांति सड़क पर साइकिल पर नजर आतीं तो एक नजीर बनतीं, लेकिन उन्हें डर था कि कहीं इससे वे आम लोगों के बीच गुमनाम होकर सुर्खियों से दूर न हो जाएं...
देहरादून से मनु मनस्वी
पृथक उत्तराखंड की मांग के पीछे वजह रही कि उत्तर प्रदेश में रहते हुए इस पहाड़ी राज्य के संसाधनों का पूरा लाभ यहां के निवासियों को नहीं मिल पा रहा था। आंदोलनकारियों की सोच थी कि अलग राज्य बनने पर यहां की मिट्टी से जुड़े नेता पहाड़ की वेदना को समझेंगे और राज्य को विकास के रास्ते पर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
मगर पहाड़ की भोली—भाली जनता को यह नहीं मालूम था कि राजनीति वो गंदली चीज है, जिस पर किसी क्षेत्र, वहां की परिस्थिति का कोई असर नहीं पड़ता। वो तो वैसे ही फलती-फूलती रहती है, बिना रुके।
और हुआ भी यही। राज्य बनते ही नेताओं की ‘पहाड़ियत’ नदारद हो गई। जिसको जहां मौका मिला, हाथ मारा और चलता बना। राज्य में हर बार कांग्रेस—भाजपा का खेल चलता रहा, सो कांग्रेस ने नाकामी का ठीकरा भाजपा पर फोड़ा तो भाजपा ने कांग्रेस पर और इनके बीच पिछले सत्रह सालों से पिसती रही उत्तराखंड की जनता।
बीते दिनों की कुछ घटनाओं ने इन ड्रामेबाज माननीयों की पोल खोलकर रख दी और यह भी बता दिया कि इन जनप्रतिनिधियों के लिए जनता की नहीं, खुद की छवि चमकाने की फिक्र ज्यादा है। पहली घटना धारचूला के विधायक हरीश धामी की है, जहां महाशय अपने एक रिश्तेदार की पत्नी के इलाज के लिए पहुंचे और अस्पताल कर्मचारियों के साथ उलझ पड़े।
आरोप लगा डाला कि डॉक्टरों ने उनके सिर पर बोतल से प्रहार किया और अभद्रता की। हकीकत खुली तो पता चला कि जनाब ने खुद ही बीपी मशीन अपने सिर पर दे मारा था, ताकि डॉक्टर पर इल्जाम लगे तो चोट वास्तविक लगे। जांच में यह भी पाया गया कि धामी ने उस समय दारू पी रखी थी।
पोल खुली तो महाशय खिसियाकर बैकफुट पर आ गए और अजीबोगरीब तर्क दे डाला कि हो सकता है गुस्से में उन्होंने अपने सिर पर बीपी मशीन मार दी हो। अब यह बात कैसे किसी के गले उतर सकती है कि उन्हें यही ज्ञात नहीं कि मशीन किसने मारी? क्या इतना टुल्ल थे विधायक?
दूसरी घटना देहरादून के मेयर और वर्तमान में धर्मपुर के विधायक बनकर दोनों पदों की मलाई डकार रहे विनोद चमोली से संबंधित है, जब ये जनाब जनता की आंखों में हीरो बनने के लिए अपनी विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत मोथरोवाला में शराब ठेका खुलने के विरोध में धरने पर बैठ गए। वो भी अपनी ही सरकार के सामने।
मौके पर पहुंचे डीएम एसए मुरुगेशन के साथ चमोली ने न केवल अभद्रता की, बल्कि प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट को फोन कर तत्काल डीएम पर कार्रवाई करने को भी कह दिया। क्या मेयर को इस बात का ज्ञान नहीं कि ठेके सरकारी आदेश पर ही खुलते हैं और आधी अवधि बीत जाने पर भी ठेका कैसे खुल रहा है, बिना सरकारी सांठगांठ के?
गौरतलब है कि इस क्षेत्र में पहले भी दो बार अलग-अलग स्थानों पर ठेका खुला था, लेकिन जनता के विरोध के बाद बंद करना पड़ा। फिर तीसरी बार ठेका क्यों और कैसे खुलने जा रहा था? कुल मिलाकर अपने कार्यकाल में असफल रहे मेयर का यह पब्लिसिटी स्टंट ही था।
इससे पहले भी कई नेता अपने कार्य की बजाय ऐसी ओछी नौटंकियां कर खुद को जनता का हितैषी साबित करने की कोशिश कर चुके हैं। कांग्रेस राज में शिक्षामंत्री रहे मंत्री प्रसाद नैथानी इस मामले में शीर्ष रेटिंग पर रखे जा सकते हैं। कभी अपने कार्यालय में जमीन पर आसन लगाना हो या वक्त-बेवक्त हाथ में ढोल थामना, खुद को किसान बताकर अपने घर पर गायें बांधकर ग्रामीण कल्चर का साबित करना हो या शिक्षा महकमे को तबादला उद्योग में स्थापित कर खुद उसके खिलाफ हुंकार भरने की हास्यास्पद कोशिश.. हर बार उनकी असलियत जनता भांपती रही और अंत में जनता ने ऐसा धोबी पछाड़ मारी कि अब तक उठ नहीं पाए।
घनसाली के विधायक रहे भीमलाल आर्य तो मानो बने ही नौटंकी के लिए हों। पूरे पांच साल कांग्रेस और भाजपा के बीच फुटबाॅल बने रहे आर्य ने कोई भी काम नहीं किया सिवाय नौटंकियों के। लिस्ट लंबी है, पर इसमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का भी नाम दर्ज हो तो पब्लिसिटी स्टंट की अहमियत समझी जा सकती है।
रावत भी खुद को जमीन से जुड़ा नेता बताने के लिए कभी सड़क पर पान खाते समय, कभी ढोल उठाकर, कभी भुट्टा, खिचड़ी, चाय पार्टी का आयोजन कर फोटो प्रकाशित करवाकर लाइमलाइट में रहते आए।
एक और मामला इन दिनों महिला मंत्री रेखा आर्य का है, जो ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे जनहितैषी अभियान के प्रचार के लिए काम तो कर रही हैं, लेकिन इसके लिए पूरे देहरादून का रूट डायवर्ट किया जा रहा है। वजह है कि मोहतरमा इन दिनों साइकिल यात्रा पर हैं। जब रेखा आर्य सड़क पर होती हैं, तब पूरी सड़क सुनसान रहती है, बस मैडम के दो-चार चेले-चपाटे उनके पीछे-पीछे हांफते हुए साइकिल पर नजर आते हैं।
सवाल है कि यदि कोई समाजहित का कार्य करना ही है तो क्या जनता को परेशान कर केवल अखबारों में फोटो खिंचवाने के लिए ऐसा ड्रामा उचित है? रेखा आर्य अगर आम नागरिेक की भांति सड़क पर साइकिल पर नजर आतीं तो एक नजीर बनतीं, लेकिन उन्हें डर था कि कहीं इससे वे आम लोगों के बीच गुमनाम होकर सुर्खियों से दूर न हो जाएं।
यही नहीं, अपने ऊलजुलूल आदेशों के लिए ‘कुख्यात’ राज्य के शिक्षामंत्री अरविंद पांडे, जिनके अब तक के कार्यकाल की उपलब्धि मात्र यही है कि उन्होंने सभी शिक्षकों पर ड्रेस की अनिवार्यता लागू कर दी, बीते दिनों अपने गनरों के साथ एक स्कूल में आ धमके और मैडम से जो सवाल पूछे, उससे वो खुद मीडिया में हंसी का पात्र बन गए।
मीडिया में उननी ट्रोलिंग शुरू हो गई और ये कदम पांडे जी के लिए आत्मघाती साबित हुआ। जनाब सोच रहे थे कि उनकी महानता के किस्से अखबारों में महीनों तक छाए रहेंगे, लेकिन हुआ ठीक उलट। मंत्री की शिक्षा पर ही सवाल उठने लगे।