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जनज्वार विशेष

उत्तराखण्ड में सत्ता की शह पर जारी फुल करप्शन, नो एक्शन

Janjwar Team
29 Jun 2018 2:47 PM GMT
उत्तराखण्ड में सत्ता की शह पर जारी फुल करप्शन, नो एक्शन
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भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस का दावा करने वाली भाजपा सरकार जिस प्रकार एनएच-74 मामले में सीबीआई जांच से पीछे हटी है, उससे स्पष्ट है कि एक बार फिर कुछेक जूनियर अफसरों और बिचौलियों पर कार्यवाही के नाम पर कानूनी शिकंजा कसा जा रहा है...

अपूर्व जोशी, वरिष्ठ पत्रकार

उत्तराखण्ड गठन के बाद भाजपा-कांग्रेस बारी-बारी से राज्य में सत्ता सुख भोगती आ रही हैं। दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही हैं। इन कथित भ्रष्टाचारों की जांच के लिए आयोग भी बनाए जाते हैं। पिछले सत्रह वर्षों में भाजपा ने अपने शासन में कांग्रेस के भ्रष्टाचार की जांच के लिए चार आयोग तो कांग्रेस ने दो आयोग गठित किए।

इन आयोगों ने जो भी जांच रिपोर्ट सरकार को सौंपी उस पर कोई एक्शन राजनेताओं और वरिष्ठ अफसरों के खि­लाफ नहीं लिया गया। छोटों को अवश्य बलि का बकरा बनाने का काम हुआ है। भाजपा सरकार ने एनडी तिवारी सरकार के कार्यकाल में हुए घोटालों पर चुप्पी साधे रखी तो कांग्रेस ने कार्यवाही के नाम पर आयोगों की रिपोर्ट को ही खारिज कर दिया।

हरीश रावत सरकार ने त्रिपाठी आयोग द्वारा स्पष्ट रूप से दोषी पाए गए त्रिवेंद्र सिंह रावत को क्लीनचिट दे ‘फुल करप्शन, नो एक्शन’ की परंपरा को आगे बढ़ाया। यही कारण है कि करप्शन पर जीरो ­टॉलरेंस का दावा करने वाली त्रिवेंद्र सरकार पिछली सरकार के कथित घोटालों पर खामोश है।

अंग्रेजी की एक कहावत है 'You scratch my back and i will scratch yours' अर्थात् ‘तुम मेरी पीठ खुजलाओ, मैं तुम्हारी खुजलाऊंगा’। उत्तराखण्ड की दो प्रमुख राजनीतिक शक्तियों के बीच यह कहावत आपसी समझ का अनूठा उदाहरण बन चुकी है। राज्य गठन के बाद चार निर्वाचित सरकारों में से दो कांग्रेस और दो भाजपा की रही हैं। पहली निर्वाचित सरकार के प्रमुख थे एनडी तिवारी। भाजपा ने तिवारी सरकार पर छप्पन घोटालों के आरोप लगाए। इन आरोपों के दम पर अगली सरकार भाजपा की बन गई।

खानापूर्ति के नाम पर किया गया जांच आयोगों का गठन

सेवानिवृत्त मेजर जनरल भुवन चंद्र खण्डूड़ी सीएम बने। पांच सितंबर 2007 को खण्डूड़ी सरकार ने नारायण दत्त तिवारी सरकार के पांच बरस में हुए कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक जांच आयोग का गठन किया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एनएन वर्मा को इस जांच आयोग का अध्यक्ष बनाया गया।

यह उत्तराखण्ड गठन के बाद भ्रष्टाचार की जांच के लिए बना पहला आयोग था। इस आयोग को राजस्व, आपदा प्रबंधन, पीडब्ल्यूडी एवं शहरी विकास मंत्रालय में हुए घोटालों की जांच करने को कहा गया। भविष्य में ऐसे घोटाले न हों, इस दिशा में उचित सुझाव देने को भी आयोग से कहा गया। आयोग का कार्यकाल एक वर्ष का तय किया गया। न्यायमूर्ति एनएन वर्मा ने अपना एक वर्ष का कार्यकाल समाप्त होने से एक माह पूर्व 31 अगस्त, 2008 को अपना त्यागपत्र दे दिया।

इस एक बरस के दौरान एनएन वर्मा ने जिन विषयों पर जांच की उस पर बगैर कोई टिप्पणी दिए ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। तीन सितंबर 2008 को वर्मा के स्थान पर सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति आरए शर्मा की नियुक्ति की गई। उन्हें न्यायमूर्ति वर्मा आयोग को सौंपी गई जांचों को एक बरस के भीतर पूरा करने को कहा गया। 24 सितंबर 2009 को राज्य सरकार ने इस जांच आयोग का कार्यकाल एक बरस के लिए बढ़ा दिया।

अपने शासनादेश में सरकार ने जस्टिस शर्मा से किसी भी परिस्थिति में अपनी जांच रिपोर्ट 3 सितंबर, 2010 तक शासन को उपलब्ध करने को कहा। 23 जनवरी 2010 को न्यायमूर्ति शर्मा का निधन हो गया, जिसके चलते इस आयोग में नए अध्यक्ष की नियुक्ति की गई। न्यायमूर्ति शर्मा सरकारी उद्यानों को लीज पर दिए जाने और शीतगृह मटेला में हुए घोटालों की जांच ही सरकार को सौंप पाए थे। राज्य सरकार ने शर्मा आयोग के बचे हुए कार्यकाल के लिए शंभुनाथ श्रीवास्तव का चयन किया।

श्रीवास्तव आयोग भी अपनी रिपोर्ट समय पर न दे सका, जिसके चलते सितंबर 2010 में इस आयोग को छह माह के लिए बढ़ा दिया गया। इसी दौरान शंभुनाथ श्रीवास्तव को जांच आयोग के अध्यक्ष पद से मुक्त करते हुए हाईकोर्ट उत्तराखण्ड के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बीसी काण्डपाल को राज्य सरकार ने नियुक्त कर डाला। काण्डपाल आयोग भी अपनी रिपोर्ट मार्च 2011 तक न दे सका, इसलिए उसका कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया।

नवंबर 2011 में न्यायमूर्ति काण्डपाल ने तैंतीस मामलों में अपनी रिपोर्ट शासन को सौंपने के पश्चात यकायक ही अपना इस्तीफा सरकार को सौंप दिया। एक बार फिर राज्य सरकार ने इस आयोग के अध्यक्ष पद पर शंभुनाथ श्रीवास्तव की तैनाती कर डाली। न्यायमूर्ति शंभुनाथ ने तीन विषयों पर अपनी रिपोर्ट शासन को दी। 23 मामलों में कोई जांच इस आयोग द्वारा नहीं की गई।

यह है सार राज्य गठन के बाद बने पहले जांच आयोग का जिसका कार्यकाल तीन बार बढ़ाया गया, चार बार अध्यक्ष बदले गए, लेकिन कथित भ्रष्टाचार में लिप्त किसी भी कांग्रेस नेता के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई।

आरोपों में हरीश रावत का कार्यकाल, पूर्ववर्ती आरोपित कृषि मंत्री पर नहीं की कोई कार्रवाई

वर्ष 2012 में राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ। इस परिवर्तन से पहले चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेताओं ने भाजपा सरकार पर जमकर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। 13 मार्च 2012 को विजय बहुगुणा उत्तराखड के सीएम बने। उन्होंने ठीक एक माह के भीतर रिटायर्ड आईएएस अधिकारी केआर भाटी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन कर डाला। इस आयोग को निशंक के मुख्यमंत्री रहते हुए सिटुरजिया भू घोटाले, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट घोटाले, महाकुंभ 2010 घोटाले, उत्तराखण्ड बीज एवं तराई विकास निगम घोटाले की जांच सौंपी गई।

दिसंबर 2012 में राज्य सरकार ने भाटी आयोग की कार्य सूची में 2010 में कृषि विभाग में हुए ढैंचा बीच खरीद घोटाले की जांच भी सौंप दी। केआर भाटी ने मात्र बीज निगम घोटाले पर अपनी जांच रिपोर्ट दे आयोग से इस्तीफा दे दिया। 28 मार्च 2013 को सरकार ने इस आयोग के स्थान पर उत्तर प्रदेश के रिटायर्ड आईएएस सुशील चंद्र त्रिपाठी को एक सदस्यीय जांच आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया।

त्रिपाठी आयोग को भाटी आयोग की बची हुई जांच को भी पूरा करने को कहा गया। केआर भाटी आयोग ने तराई बीज निगम में भारी घोटाले की पुष्टि करते हुए अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी उस पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही कांग्रेस सरकार ने अपने शासनकाल के दौरान नहीं की। सुशील चंद्र त्रिपाठी आयोग ने ढैंचा बीज घोटाले से संबंधित अपनी विस्तृत जांच रिपोर्ट अप्रैल, 2014 को सौंप दी। अन्य विषयों पर अपनी रिपोर्ट सौंपने के बजाय सुशील चंद्र त्रिपाठी ने इस्तीफा दे दिया।

ढैंचा बीज घोटाले का सच त्रिपाठी आयोग की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही वर्ष 2010 में भाजपा शासनकाल के दौरान कृषि विभाग में ढैंचा बीज की खरीद में हुए घोटाले की विस्तृत जांच कर दोषियों को चिन्ह करने की। कांग्रेस ने 2012 में हुए विभानसभा चुनाव के दौरान इस घोटाले पर बड़ा हो-हल्ला किया था।

तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत खास तौर से कांग्रेस के निशाने पर रहे। इस घोटाले का मुख्य बिंदु अधिक मात्रा में और अधिक कीमत पर बीज खरीदे जाने का है। त्रिपाठी आयोग की विस्तृत जांच में ढैंचा बीज की खरीद को घोटाला माना गया है। आयोग ने इस प्रकरण में दो उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी एवं तत्कालीन कृषि मंत्री को स्पष्ट रूप से दोषी करार दिया। आयोग ने तत्कालीन कृषि निदेशक की बाबत अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘ढैंचा बीज खरीद की पूरी प्रक्रिया में एक षड्यंत्र का संदेह होता है।’

कृषि निदेशक डॉ मदन लाल पर कठोर टिप्पणी करते हुए आयोग का मत है-‘इस प्रकार उनकी शासकीय दायित्वों की अवहेलना, acts of commissions and omissions, अधिकारों के दुरुपयोग एवं वित्तीय अनियमितताओं को देखते हुए आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy angle) शासकीय धन का अपव्यय एवं भ्रष्टाचार के परिप्रेक्ष्य में उनके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता 1860 एवं prevention of corruption act 1988 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज करके संबंधित एजेंसी द्वारा यथोचित जांच की जानी चाहिए।

सत्तासीन नेताओं के साथ प्रशासनिक अधिकारियों की संलिप्तता भी उजागर, मगर नहीं हुई कोई कार्रवाई

आयोग ने तत्कालीन कृषि सचिव डॉ रणवीर सिंह (वर्तमान में अपर मुख्य सचिव) को भी इस प्रकरण में दोषी माना है। आयोग ने डॉ रणवीर सिंह को नोटिस भेज अपना पक्ष देने को कहा। रणवीर सिंह ने आयोग के नोटिस का उत्तर तक देना उचित नहीं समझा।

अपनी रिपोर्ट में आयोग ने डॉ रणवीर सिंह की बाबत कहा है-‘डॉ रणवीर सिंह के चूक या कृत्य के कारण कृषि निदेशक डॉ लाल अनियमितताएं कर पाए तथा एक आपराधिक षड्यंत्र रचकर उसका लाभ उठा पाए। सिंह इस प्रकार अपने प्रशासकीय दायित्व के निर्वहन में सर्वथा असफल रहे। आयोग की संस्तुति है कि उनका स्पष्टीकरण प्राप्त कर उचित प्रशासनीय कार्यवाही की जाए। इनके विरुद्ध ऐसे कोई तथ्य सामने नहीं आए कि किसी आपराधिक जांच की संस्तुति की जाए।’

तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत (वर्तमान मुख्यमंत्री) की भूमिका को आयोग ने पूरी तरह संदेहास्पद माना है। आयोग के समक्ष दिए अपने बयान में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने किसी भी कथित चूक अथवा घोटाले के लिए विभागीय सचिव के जिम्मेदार होने की बात की। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने आयोग के समक्ष कार्य नियमावली का हवाला देते हुए समस्त जिम्मेदारी अपने तत्कालीन सचिव रणवीर सिंह पर डालने का प्रयास किया।

उन्होंने अपने बयान में कहा है कि प्रत्येक विभाग में सचिव उसका प्रशासनिक अध्यक्ष होता है और उस विभाग में समुचित कार्य संपादन के लिए उत्तरदायी है। आयोग ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि -‘विभागीय मंत्री अपनी जिम्मेदारी सचिव पर नहीं टाल सकते। संविधान में विभागीय मंत्री को अंतिम रूप से अधिकार दिए गए हैं- कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय मंत्री के अनुमोदन बिना नहीं लिए जाते।’ आयोग ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को दोषी अफसरों को विजलेंस जांच से बचाने का भी दोषी माना।

उल्लेखनीय है कि तत्कालीन कृषि सचिव ने घोटाला उजागर होने के बाद अधिकारियों के खिलाफ विजलेंस जांच का प्रस्ताव त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास भेजा था, जिसे उन्होंने अस्वीकृत कर दिया। आयोग की इस बाबत अपनी टिप्पणी है-‘सतर्कता जांच प्रकरण के आपराधिक पहलुओं के परीक्षरण के लिए की जाती है। सतर्कता जांच से ढैंचा बीज खरीद के अपराधिक पहलुओं पर पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाती। रावत द्वारा इस अनुशंसा को अस्वीकृत करने से सतर्कता जांच के विकल्प पर पूर्ण विराम लग गया।

सतर्कता जांच को रोकने से भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों/कर्मचारियों को लाभ ही पहुंचा होगा। इस समय रावत यह नहीं कह सकते कि सतर्कता विभाग से जांच ना कराने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। उन्होंने सतर्कता जांच की संस्तुति को स्पष्ट अस्वीकार किया। इस प्रकार उनका यह कृत्य भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के शासकीय दायित्यों के अनुरूप नहीं है।’

आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में तत्कालीन कृषि सचिव रणवीर सिंह को अपने प्रशासकीय दायित्वों के निर्वहन का दोषी माना और उन पर कार्यवाही की संस्तुति की। त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकिन आयोग ने स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत दोषी करार दिया है।

त्रिवेंद्र सिंह रावत को आयोग ने ‘अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने के साथ-साथ अनियमितता बरतने का दोषी’, ‘ढैंचा बीज की खरीद एवं वितरण में सही प्रक्रिया ना अपनाने के लिए कृषि निदेशक और कृषि सचिव के साथ-साथ संयुक्त रूप से दोषी’ माना एवं कहा कि ‘श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के चूक या कृत्य (omisions & commissions) के कारण कृषि निदेशक डॉ. लाल अनियमितताएं कर पाए। रावत अपने कर्तव्यों-दायित्यों के निर्वहन में असफल पाए गए’।

त्रिवेंद्र को दोषी करार देते हुए आयोग ने राज्य सरकार को अपनी संस्तुति में लिखा कि ‘इससे श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत Prevention of corruption act 1988 की धारा 13(1) (d) (iii) की परीधि में आते हैं। अंतः राज्य सरकार इसका विधिवत परीक्षण करा ले और कार्यवाही करे।

हरीश रावत सरकार बनी त्रिवेंद्र की ढाल

‘तुम मेरी पीठ खुजलाओ, मैं तुम्हारी पीठ खुजलाऊंगा’ का सबसे सटीक उदाहरण दिया हरीश रावत सरकार ने। केआर भाटी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाजपा नेता हेमंत द्विवेदी की तराई बीज निगम में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति को असंवैधनिक करार दिया था। आयोग ने बीज निगम द्वारा खरीदे गए जूट बैग की खरीद में भी भारी गड़बड़ी की पुष्टि की थी।

भाटी आयोग की रिपोर्ट पर तत्कालीन कृषि मंत्री हरक सिंह रावत ने जूट खरीद प्रकरण पर एफआईआर दर्ज कराने और निगम अध्यक्ष पद पर गैर संवैधानिक नियुक्ति पर शासन स्तर पर कार्यवाही करने के आदेश दिए। न तो हेमंत द्विवेदी पर, न ही उनकी असंवैधानिक नियुक्ति करने वालों पर कोई कार्यवाही आज तक हुई है। विजय बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत ने भी केआर भाटी आयोग की रिपोर्ट को दबाए रखा।

हैरानी की बात यह कि सुशील चंद्र त्रिपाठी आयोग द्वारा गहन छानबीन के बाद दोषी करार दिए गए आईएएस रणवीर सिंह और तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को हरीश रावत सरकार ने पूरी तरह निर्दोष घोषित कर डाला। सरकार द्वारा त्रिपाठी आयोग की जांच रिपोर्ट पर कार्यवाही की रिपोर्ट के अनुसार 29/06/2015 को तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में एक्शन टेकन रिपोर्ट तैयार करने के निर्देश दिए गए।

हरीश रावत सरकार की इस एक्शन टेकन रिपोर्ट में रणवीर सिंह और त्रिवेंद्र सिंह रावत पर कोई ‘एक्शन’ ना लेने का निर्णय लिया गया। हरीश रावत सरकार ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन कृषि सचिव रणवीर सिंह की बाबत लिखा है।

‘तत्कालीन कृषि सचिव के रूप में अपने प्रशासकीय दायित्यों का पूर्णतः निर्वहन किया है जिसमें किसी प्रकार की चूक एवं कृत्य के दृष्टिगोचर नहीं होने के कारण उनके विरूद्ध प्रशासकीय कार्यवाही का प्रकरण नहीं बनता है। इस क्लीनचिट का ही नतीजा है कि त्रिपाठी आयोग की रिपोर्ट में दोषी रणवीर सिंह प्रमोशन पा वर्तमान में राज्य के अपर मुख्य सचिव हैं।

त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी पूरी तरह पाक-साफ बताते हुए हरीश रावत सरकार की एक्शन टेकन रिपोर्ट कहती है- ‘तत्कालीन कृषि मंत्री के रूप में राज्य सरकार द्वारा सचिवालय अनुदेश तथा उत्तर प्रदेश कार्य नियमावली 1975 के आलोक में अपने प्रशासनिक दायित्यों का पूर्णतः निर्वहन किया गया है, जिसमें किसी प्रकार की चूक एवं कृत्य के कारण अनियमितता दृष्टिगोचर नहीं होती है। अतः त्रिवेंद्र सिंह रावत भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 की परिधि में नहीं आते हैं। इसके आलोक में तत्कालीन कृषि मंत्री जी के विरुद्ध कार्यवाही की आवश्यकता नहीं है।’

इस क्लीनचिट के बाद ढैंचा बीज घोटाले में भ्रष्टाचार के दोषी करार दिए गए त्रिवेंद्र सिंह रावत भाजपा के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री बन गए।

जांच आयोगों की बलि का बकरा नेता-नौकरशाह नहीं छोटे कर्मचारी

न्यायमूर्ति वर्मा, न्यायमूर्ति शर्मा, न्यायमूर्ति श्रीवास्तव, न्यायमूर्ति कांडपाल, केआर भाटी और सुशील चंद्र त्रिपाठी आयोगों की जांच में चाहे कांग्रेसी नेता और अफसर दोषी पाए गए हों या फिर भाजपा नेता, किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही न होना, किसी भी बड़े नौकरशाह पर कार्यवाही न होना और कार्यवाही के नाम पर छोटे अधिकारियों को बलि का बकरा बनाए जाने का खेल बदस्तूर जारी है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस का दावा करने वाली वर्तमान सरकार जिस प्रकार एनएच-74 मामले में सीबीआई जांच से पीछे हटी है उससे स्पष्ट है कि एक बार फिर कुछेक जूनियर अफसरों और बिचौलियों पर कार्यवाही के नाम पर कानूनी शिकंजा कसा जा रहा है। दूसरी तरफ इस लूट के रणनीतिकार राजनेताओं और वरिष्ठ अफसरों को बचाने की मुहिम शुरू हो चुकी है।

(वरिष्ठ पत्रकार अपूर्व जोशी साप्ताहिक संडे पोस्ट के संपादक हैं, यह रिपोर्ट वहीं से)

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