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समाज

ये किस्सागोइयां उन दिनों की हैं जब लालटेन हुआ करती थी रात की आंख

Janjwar Team
1 Oct 2017 9:40 AM GMT
ये किस्सागोइयां उन दिनों की हैं जब लालटेन हुआ करती थी रात की आंख
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तब बच्चे किताबें भी ढिबरी, लालटेन व लैम्प की रोशनी में ही पढ़ते थे...

जगमोहन रौतेला, वरिष्ठ पत्रकार

आजकल भाबर (मैदानी इलाकों) में तो छोड़िए दूरदराज के पहाड़ी गांवों तक बिजली की चमक पहुँच गयी है। चार दशक पहले ऐसा नहीं था। भाबर के भी अधिकतर गांव रात को अंधेरे में डूबे रहते थे। रातों में गांव में एक अजीब तरह की नीरवता और शान्ति पसरी रहती थी। गांव में रात के सन्नाटे को कुत्तों के यदा-कदा भौंकने की आवाजें ही तोड़ती थी।

रात के समय ढिबरी वाली लैम्प, लालटेन व चिमनी वाली लैम्प ही उजाले के एकमात्र सहारा होते थे। रात को इधर-उधर आने-जाने व खेतों में सिंचाई की देखरेख के लिये टॉर्च बहुत ही मददगार होती थी। अधिकतर परिवारों में दो स्यल (बेट्री) वाली टॉर्च ही होती थी, तो कुछ परिवारों में तीन स्यल वाली टॉर्च भी होती थी। तीन स्यल वाली टॉर्च थोड़ा दूर तक रोशनी फेंकती थी, मगर कम लोगों के पास इसलिये होती थी, क्योंकि उसमें एक स्यल ज्यादा लगता था तो खर्च अधिक होता था।

एक स्यल का अधिक खर्चा ही लोगों को तीन स्यल की टॉर्च लेने से रोकता था। 'जीत' कम्पनी की टॉर्च ही आमतौर पर उन दिनों मिलती थी। टॉर्च के खराब होने पर हल्द्वानी के बाजार में उसे ठीक करने वाले कारीगर भी होते थे। बहुत ज्यादा खराब होने पर कबाड़ी को बेच देते थे, क्योंकि वह टीन की बनी होती थी।

टॉर्च की देखभाल भी करनी पड़ती थी। यह बात कुछ अजीब लग सकती है, लेकिन ऐसा होता था। हर रोज सबेरे टॉर्च के स्यल निकाल लिये जाते थे या फिर उनमें से एक स्यल को उल्टा कर दिया जाता था, ताकि उसके करंट का सर्किट टूट जाए। ऐसा इसलिये किया जाता था ताकि असावधानीवश कहीं टॉर्च का बटन ऑन न हो जाय। ऐसा होने पर स्यलों के असमय ही खत्म होने की सम्भावना रहती थी। इसके साथ ही लम्बे समय तक टॉर्च के अन्दर स्यलों के पड़े रहने से उनके लीक होने का खतरा भी रहता था। जिससे टॉर्च के सर्किट के खराब होने का डर रहता था।

शाम होते ही स्यलों को टॉर्च में डाला जाता था या फिर उल्टे किये गये स्यलों को सीधा कर दिया जाता था। बरसात के दिनों में कई बार स्यलों को सीलन से बचाने के लिये दिन में धूप में भी रखा जाता था।

जाड़ों में चूँकि सांप—कीड़ों का डर नहीं रहता था, इसलिए टॉर्च की आवश्यकता भी ज्यादा महसूस नहीं की जाती थी। लोग अँधेरे में ही बिना किसी डर के इधर-उधर चले जाते थे। पर जैसे ही होली के गर्मी बढ़ने लगती थी तो वैसे ही घर के किसी कोने में पड़े टॉर्च की याद आ जाती थी और उसे हर तरह से चैक किया जाता था कि वह सही तरीके से जल रही है या नहीं? अगर वह किसी भी तरह से जलने में आनाकानी करती तो उसे तुरन्त बाजार टॉर्च ठीक करने वाले कारीगर के पास ले जाया जाता।

और उससे हिदायत के साथ टॉर्च को अच्छी तरह से ठीक करने को कहा जाता, ताकि वह रात के समय किसी भी तरह से धोखा न दे। हल्की-फुल्की खराबी होने पर कारीगर थोड़ी देर में उसे ठीक कर देता। कुछ ज्यादा खराब होने या फिर तत्काल ठीक करने का समय न होने पर दो-चार दिन बाद ही टॉर्च मिलती थी। गर्मी और बरसात के मौसम में टॉर्च जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा रहती थी।

इसके अलावा शाम होते ही ढिबरी वाले लैम्प, लालटेन व चिमनी वाले लैम्पों में मिट्टी तेल को देखने व लालटेन व चिमनी वाले लैम्पों की चिमनी को साफ करने का काम भी करना होता था। जिन घरों में सात-आठ साल से ऊपर के बच्चे होते थे यह काम उनके जिम्मे ही एक तरह से होता था। चिमनियं साफ करने के लिये राख का प्रयोग किया जाता था। एक कपड़े की सहायता से साफ राख को चिमनियों के अन्दर रगड़ा जाता था। जिससे चिमनियां एकदम से चमकने लगती थी।

कई बार जब बत्तियों के काले धुएं से चिमनियां बहुत गंदी हो जाती थी तो उन्हें पानी से धोकर या फिर चिमनी के अन्दर मुँह से भाप देकर भी उन्हें साफ किया जाता था। चिमनी वाला लैम्प चूँकि लालटेन से थोड़ा महंगा होता था इसलिये वह बहुत कम घरों में होता था। पर उससे उजाला लालटेन से अधिक होता था।

ढिबरी वाले लैम्प से तो बहुत कम उजाला होता था। वह कार्बन वाला धुआं भी बहुत छोड़ता था। ढिबरी वाला एक लैम्प तो बाजार में मिलता था, लेकिन एक लैम्प घर पर ही तैयार कर लिया जाता था। यह लैम्प बनाया जाता था दवाओं की छोटी शीशियों का। जिसमें दवा की शीशी के ढक्कन में एक सुराख कर दिया जाता था। जिसमें सुतली या कपड़े के एक लम्बे व पतले टुकड़े की बत्ती बनाकर शीशी में डालकर उसका मुँह ढक्कन में किये गये सुराख से थोड़ा सा बाहर को निकाल दिया जाता था और शीशी में मिट्टी तेल डाल दिया जाता था। यह भी ढिबरी का काम करता था।

बाजार में मिलने वाली ढिबरी गोल व लगभग तीन सेंटीमीटर ऊँची होती थी, जिसके ऊपर एक सुराख वाला ढक्कन लगा रहता था। जिसमें से कपड़े की पतली बत्ती बाहर निकली रहती थी। लालटेन में सबसे नीचे मिट्टी तेल के लिये एक छोटी सी टंकी बनी रहती थी। जिसमें शायद 250 मिलीलीटर मिट्टी तेल आ जाता था। इसमें बीच में लम्बी व चपटी बत्ती के लिये सुराख होता था जो एक छोटी सी घिर्री से जुड़ा रहता था।

घिर्री को घुमाने के लिये एक छोटी सी चर्खी लगी होती थी। जिसके माध्यम से लालटेन की बत्ती को आवश्यकतानुसार कम या ज्यादा किया जाता था। इसके चारों ओर ही दो तारों को गोल करके बांधा जाता था, जिसके बीच में लालटेन की कांच की चिमनी फँसी रहती थी। इससे चिमनी एक तरह से सुरक्षित भी रहती थी। सबसे ऊपर धुआं निकलने की जगह होती थी जो ऊपर से ढका रहता था।

यह लालटेन दोनों ओर से एक पतले टिन से जुड़ी रहती थी। धुआं निकलने वाली जगह पर दोनों तरफ एक पतले गोल तार से जोड़ दिया जाता था। जिसे पकड़ कर लालटेन को कहीं भी ले जाया जा सकता था।

रात को इधर-उधर आने-जाने व खेतों में सिंचाई करते समय टॉर्च के अलावा लालटेन ही सहारा होती थी। इसकी टंकी के ऊपरी हिस्से में पतले टिन की जगह एक स्थान पर एक क्लिप सी लगी रहती थी, जो लालटेन के चिमनी वाले हिस्से को ऊपर नीचे करती थी। चिमनी को ऊपर करने पर बत्ती वाला हिस्सा दिखाई देने लगता था।

बत्ती में कई बार बहुत ज्यादा कार्बन जमा हो जाता था तो उजाला कम होने लगता था या फिर चिमनी कार्बन के कारण काली पड़ने लगती थी। ऐसे समय में बत्ती से एक पतली लकड़ी के सहारे कार्बन हटाया जाता था या फिर बत्ती के उस हिस्से को कैंची से काटकर अलग कर लिया जाता था।

चिमनी को लालटेन में लगाने व निकालने का भी एक तरीका था। जहां से धुआं निकलता था उसके ऊपर एक गोल छल्ला लगा रहता था। उस छल्ले को ऊपर को खींचने पर धुँआ निकलने वाली जगह थोड़ा ऊपर को उठ जाती थी, जिससे लालटेन की चिमनी आसानी से बाहर निकल जाती थी और इसी तरह उसे लगा भी दिया जाता था। हर घर में दो-तीन लालटेन तो होती ही थी।

लालटेन (lantern) प्रकाश का सरल स्रोत था, जिसे हाथ से उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाता था। प्रकाश के स्रोत के अतिरिक्त इनका उपयोग संकेत देने (सिगनलिंग) के लिये भी किया जाता था। पुराने दिनों में यह टॉर्च की भांति भी प्रयोग किया जाता होगा।

लालटेन के अलावा चिमनी वाले लैम्प भी घरों में उजाले के लिये प्रयोग होते थे। इस लैम्प में भी सबसे नीचे मिट्टीतेल के लिये एक गोल टंकी होती थी। इस टंकी में ही बत्ती के लिये मुँह बना होता था। इसके चारों ओर ही कांच की चिमनी को फंसाने के लिये जगह बनी होती थी। लैम्प की चिमनी लालटेन की चिमनी की अपेक्षा लम्बी होती थी, जो आधार तल पर थोड़ा चौड़ी और बीच में और चौड़ी तथा सबसे ऊपर पतली होती थी।इसके बाहरी सुरक्षा के लिये और कोई उपाय नहीं होता था।

जलती हुई लालटेन व लैम्प की चिमनी को पानी की बूँदों से बचाना भी पड़ता था, अन्यथा पानी की बूँदें पड़ते ही तेज गर्म कांच की चिमनियां तड़क जाती थी। खेतों में सिंचाई के कार्य व कभी इधर-उधर आने-जाने के लिये एक मोटे डंडे में पुराने कपड़ों को बांधकर उसकी मशाल बनाकर भी उजाले के लिये प्रयोग की जाती थी।

मशाल बनाने के लिये पुराने कपड़ों के बीच में राख रखकर उसे एक मोटे और लम्बे डंडे में एक सिरे पर लपेटकर बांध दिया जाता था। उसके बाद उसे मिट्टी तेल से भिगा दिया जाता था। ऐसी मशाल काफी देर तक जलती थी और बहुत उजाला करती थी।

बारातों में उजाले के लिये उन दिनों पेट्रोमैक्स का सहारा लिया जाता था। उसका उजाला बहुत तेज होता था। पेट्रोमैक्स को जलाने के लिये भी मिट्टी तेल का ही सहारा लिया जाता था लेकिन उसे जलाने के लिये उसमें बने नौजिल से हवा भी भरी जाती थी, जिसके दबाव से मिट्टीतेल की एक पतली सी धार उसके सिरे पर लगे एक 'फूल' तक जाती थी। गैस के साथ पहुँच रहे मिट्टी तेल के साथ वह फूल जलने लगता था।

गैस के कम होने पर उसे फिर से पम्प मार कर भरना पड़ता था। पैट्रोमैक्स जलाना हर एक को आता भी नहीं था। जो लोग जलाना जानते थे, उन्हें शादी-ब्याह के मौकों पर पैट्रोमैक्स जलाने की जिम्मेदारी विशेषतौर पर दी जाती थी और उसके तेवर किसी विशेषज्ञ की तरह के होते थे। पेट्रोमैक्स के आसपास बच्चों को देखकर उन्हें ऐसे डपटते थे कि जैसे वे उसे देखने भर से खराब कर डालेंगे।

बच्चे भी कौतूहल से पेट्रोमैक्स को देखते थे, क्योंकि उन्हें भी उसे जलते हुए देखने का मौका ऐसे ही अवसरों पर मिलता था। जब उसकी रोशनी कम होने लगती तो उसमें पम्प मारना पड़ता था, जिससे रोशनी तेज हो जाती। रातभर जलने पर पेट्रोमैक्स में डेढ़-दो लीटर मिट्टी तेल लग जाता था। जिस 'फूल' के जलने पर उजाला होता था वह रात भर काम कर जाती थी और बाद में जलकर राख हो जाती।

कभी-कभी तो एक रात में दो 'फूल' तक लग जाते थे। शादी, कथा, जागर लगाने आदि कामों में तीन-चार पेट्रोमैक्स की आवश्यकता पड़ती थी, जिसके लिए आस—पड़ोस के गांवों तक की मदद लेनी पड़ती थी। जिसके घर पेट्रोमैक्स होता था, वहां से मँगाया जाता था।

तब बच्चे किताबें भी ढिबरी, लालटेन व लैम्प की रोशनी में ही पढ़ते थे।

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