Begin typing your search above and press return to search.
राजनीति

तानाशाहपूर्ण ढंग से सूचना के अधिकार को खत्म कर रही है मोदी सरकार, 2014 के बाद नहीं हुई केंद्रीय लोकायुक्त की नियुक्ति

Janjwar Desk
31 Aug 2023 3:36 PM GMT
तानाशाहपूर्ण ढंग से सूचना के अधिकार को खत्म कर रही है मोदी सरकार, 2014 के बाद नहीं हुई केंद्रीय लोकायुक्त की नियुक्ति
x
मोदी सरकार ने 2019 में RTI को संशोधन कर केंद्र के साथ-साथ राज्य सूचना आयुक्त के कार्यकाल, पेंशन व सैलरी को अपने हाथो में ले लिया। यह एक ज़रिया था जिससे इन अधिकारों पर दबाव और नियंत्रण बने रहे....

विशद कुमार की रिपोर्ट

झारखंड जनाधिकार महासभा, पीयूसीएल झारखंड, सूचना के अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (NCPRI) व अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक जन चर्चा में लिए गए निर्णय के आलोक में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक पत्र भेजकर मांग की है कि साढ़े तीन साल से निष्क्रिय राज्य सूचना आयोग को जीवित किया जाए, एवं मुख्य सूचना आयुक्त व सूचना आयुक्तों की नियुक्ति अविलंब की जाए।

पत्र में कहा गया है कि 8 मई 2020 से राज्य सूचना आयोग पूरी तरह से निष्क्रिय है। तब तक ही 7,700 से ज़्यादा अपील आयोग के समक्ष लंबित थे (आरटीआई से निकाली गयी जानकारी के अनुसार) पिछले साढ़े तीन साल से तो प्रशासन द्वारा आरटीआई कानून अनुसार जानकारी नहीं देने पर अपीलीय तंत्र का सहारा ही नहीं रहा। इसमें कोई शक नहीं कि इस दौरान हजारों आवेदक आयोग के समक्ष अपील करने से व अपने सूचना के अधिकार से वंचित हुये हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फरवरी 2019 (WP(C) 436 of 2018) के फैसले में कहा है कि सूचना का अधिकार अधिनियम के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए, कार्यभार के आधार पर पर्याप्त संख्या में आयुक्तों के साथ सूचना आयोग का होना महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को सूचना आयुक्तों की समय पर और पारदर्शी नियुक्ति सुनिश्चित करने के निर्देश दिए हैं। लेकिन इसके बावजूद राज्य सरकार इस मुद्दे पर चुप्पी साधी हुई है। कई बार यह बहाना दिया गया है कि विधान सभा में अभी तक विपक्ष के नेता न होने के कारण सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं हो पाई है।

आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना आयुक्तों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में चयन समिति द्वारा किया जाता है. इस समिति में एक कैबिनेट मंत्री और विधान सभा से विपक्ष के नेता शामिल होतें हैं । अधिनियम यह भी स्पष्ट करता है कि जहां विधान सभा में विपक्ष के नेता के रूप में किसी को मान्यता प्राप्त नहीं है, वहां सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति के प्रयोजन के लिए विपक्ष का नेता माना जाएगा।

यह तो स्पष्ट है कि अगर हेमंत सोरेन सरकार चाहती तो अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त व सूचना आयुक्तों की नियुक्ति कर लेती। ऐसी परिस्थिति में सरकार का सूचना के अधिकार एवं पारदर्शी व जवाबदेह शासन व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।

एक ओर केंद्र सरकार लगातार सूचना के अधिकार कानून को कमजोर कर रही है, वहीं दूसरी ओर, राज्य सरकार का यह रवैया जन अपेक्षा के विपरीत है। झारखंड जनाधिकार महासभा, पीयूसीएल झारखंड, सूचना के अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (NCPRI) व सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं की ये अपेक्षा है कि सरकार अविलंब मुख्य सूचना आयुक्त व सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करेगी।

बताते चलें कि हाल के मानसून सत्र के दौरान मोदी सरकार द्वारा संसद में डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल 2023 पारित किया गया। इस बाबत न विपक्षी सांसदों की बात सुनी गयी और न अन्य लोगों की। यह बिल का ड्राफ्ट शुरुआत में स्टैंडिंग कमिटी को भी नहीं दिखाया गया था, केवल स्टैंडिंग कमिटी के बीजेपी के मंत्री ने इस बिल पर हस्ताक्षर किया और अंत में संसद में बिना चर्चा के कुछ मिनटों में ये बिल पारित किया गया। जाहिर है इस कानून से हमारे जन अधिकारों व लोकतांत्रिक अधिकारों पर दीर्घकालीन असर पड़ने वाला है। इस कानून के माध्यम से सरकार ने सूचना के अधिकार अधिनियम के धारा 8 को संशोधित कर दिया है। अब सरकारी जवाबदेही संबंधित अनेक जानकारी सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर हो जाएंगे। साफ है कि मोदी सरकार तानाशाही तरीके से सूचना के अधिकार कानून को खत्म कर रही।

2014 मई के बाद मोदी सरकार ने केंद्रीय लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की, जब तक इसके विरुद्ध न्यायालय ने निर्देश नहीं दिया। मोदी सरकार ने 2019 में RTI को संशोधन कर केंद्र के साथ-साथ राज्य सूचना आयुक्त के कार्यकाल, पेंशन व सैलरी को अपने हाथो में ले लिया। यह एक ज़रिया था जिससे इन अधिकारों पर दबाव और नियंत्रण बने रहे।

मोदी सरकार देश के लोकतांत्रिक व संवैधानिक संस्थाओं जैसे - चुनाव आयोग, जांच एजेंसी आदि को लगातार कमजोर कर रही है, सबकुछ भाजपा के रंग में ढाला जा रहा है और एजेंसियों को मोदी सरकार का एजेंट बनाया जा रहा है।

मोदी सरकार हर तरह से ऐसी ही नीति व कानून ला रही है जो लोगों के सवाल करने के अधिकार को खत्म कर दे एवं लोगों तक जमीनी सच्चाई न पहुंचे।

डाटा प्रोटेक्शन कानून 2023 के अंतर्गत अब किसी भी व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह व संगठन, जो फैक्ट फाइंडिंग करते हैं, जन मुद्दों को समझने के लिए सर्वेक्षण करते हैं, पीड़ितों की सूची बनाते हैं, वोटर सूची का मिलान करना आदि, वह सब डेटा फ़िदूसियरी (data fiduciary) कहलायेंगे और उनके इस काम में सरकार कानूनन रोक लगा सकती है व विभिन्न तरीकों से टारगेट कर सकती है। डाटा प्रोटेक्शन कानून से सोशल मीडिया को भी कंट्रोल करने की साजिश है, ताकि निष्पक्ष रूप से जमीनी सच्चाई सामने न आ पाए।

वहीं, निजी जानकारी के प्रोटेक्शन के विपरीत बाजारीकरण की पूरी छूट है, जो केंद्र सरकार निजी कंपनियों को आसानी से दे सकती है। केंद्र सरकार इस कानून के माध्यम से व्यापक डिजिटल निगरानी की व्यवस्था स्थापित कर पाएगी।

इस कानून के माध्यम से हर डिजिटल जानकारी व इससे सम्बंधित इस्तेमाल, कंपनियां, सरकारी एजेंसी आदि पर केंद्र सरकार का कंट्रोल होगा। राज्य सरकारों के हाथ में भी कुछ नहीं रहेगा। बिल के तहत एक डेटा संरक्षण बोर्ड स्थापित किया जाएगा, जो कि पूरी तरह केंद्र सरकार के नियंत्रण में होगा, सरकार ही इस बोर्ड की नियुक्ति और काम-काज तय करेगी।

यह लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों को दबाने का, निजी कंपनियों को फाएदा पहुंचाने का, केंद्र सरकार के हाथों को और मजबूत करने का, नागरिक अधिकारों को सीमित कर डिजिटल निगरानी बढ़ाने का और सरकार की जवाबदेही ख़त्म करने का कानून है।

इन्हीं तमाम मुद्दों पर 28 अगस्त 2023 को झारखंड जनाधिकार महासभा ने रांची में डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन कानून 2023 एवं इसका जन अधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों पर दुष्प्रभाव एवं सूचना के अधिकार कानून को कमजोर करने की लगातार कोशिशों पर एक जन चर्चा का आयोजन किया। चर्चा में मुख्य वक्ता के रूप में अंजलि भारद्वाज व अमृता जोहरी रहीं। वे दोनों सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान (NCPRI) से जुड़ी हैं व वर्षों से सूचना के अधिकार व सरकार की जवाबदेही पर संघर्ष कर रही हैं।

जन चर्चा में वक्ताओं ने ऐसे कानून से जन अधिकारों, लोकतांत्रिक अधिकारों एवं सूचना के अधिकार कानून को कमजोर करने की लगातार कोशिशों की मोदी सरकार की आलोचना के साथ-साथ इनसे लोकतांत्रिक प्रणाली पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव पर वृहद चर्चा की। जन चर्चा में सभी प्रतिभागी ने कहा कि लोकतंत्र पर हो रहे इस तरह के हमलों के विरुद्ध 2024 में स्पष्ट निर्णय लेने की जरूरत है।

उक्त जन चर्चा के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक पत्र भेजकर मांग की कि मुख्य सूचना आयुक्त व सूचना आयुक्तों की नियुक्ति अविलंब की जाए। क्योंकि पिछले साढ़े तीन साल से राज्य सूचना आयोग निष्क्रिय है, को जीवित किया जाए।

Next Story

विविध