भगत सिंह ने 94 साल पहले लिख दिया था मीडिया का सच 'अखबार वाले कराते हैं सांप्रदायिक हिंसा'

भगत सिंह के मीडिया बारे में व्यक्त किये गये गये विचार पहले के मुकाबले आज के दौर में बहुत प्रासंगिक हो चुके हैं, खासकर तब जबकि मीडिया के ज्यादातर माध्यम सत्ताधारी पार्टियों के मुखपत्र बन चुके हैं, पत्रकार उनके प्रवक्ता और संपादक-एंकर पार्टियों के अध्यक्ष की भूमिका निभाने लगे हैं...

Update: 2021-09-28 03:45 GMT

भगत सिंह ने कहा था, पत्रकारिता का व्यवसाय बहुत ही गंदा हो गया है, यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं

शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयंती 28 सितंबर पर विशेष

Bhagat Singh Birthday, जनज्वार ब्यूरो। मीडिया और सरकार के बारे में करीब 94 साल पहले भगत सिंह ने जो कहा था, उसे जब आज पढ़ेंगे तो लगेगा कि भगत सिंह हमारे-आपके समय का सच ही बयान कर रहे हैं। पढ़ते हुए लगेगा कि कोई हमारे बीच का ही आदमी बहुत ही सुचिंतित तरीके से अपनी बात कह रहा और दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए मीडिया को सांप्रदायीकरण से बाज आने की हिदायत दे रहा है।

भगत सिंह का यह लेख 'सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज' पहले के मुकाबले आज के दौर में बहुत प्रासंगिक हो चुका है। खासकर तब जबकि मीडिया के ज्यादातर माध्यम सत्ताधारी पार्टियों के मुखपत्र बन चुके हैं, पत्रकार उनके प्रवक्ता और संपादक-एंकर पार्टियों के अध्यक्ष की भूमिका निभाने लगे हैं।

जून 1928 में 'किरती' नाम के अख़बार में छपे लेख में भगत सिंह लिखते हैं, 'दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है... वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो 'समान राष्ट्रीयता' और 'स्वराज-स्वराज' के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, ज़मीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.'

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इसी लेख में भगत सिंह मीडिया की भूमिका को और स्पष्ट करते हुए आगे लिखते हैं, 'अख़बार वाले सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग़ ऐसे दिनों में भी शांत हो.'

आखिर में शहीद भगत सिंह अखबार और मीडिया के कर्तव्यों को रेखांकित करते हैं, 'अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि 'भारत का बनेगा क्या?'

(आरोही पब्लिकेशन की ओर से प्रकाशित संकलन 'इंकलाब जिंदाबाद' से साभार और संपादित)

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