विश्लेषण : UP चुनाव पर जिन्ना का साया
पाकिस्तान को भी अपने इस्लामिक देश होने के टैग के बावजूद, एक कामचलाऊ राष्ट्र बनने की जद्दोजहद में बलूच, पश्तून, सिंधी, पंजाबी, शिया, सुन्नी, अहमदिया, कादियान जैसी विविधताओं का संतुलन लगातार बिठाते देखा जा सकता है...
पूर्व आईपीएस वीएन राय का विश्लेषण
जनज्वार। उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में ओवैसी के मुस्लिम मतदाताओं में धुआंधार प्रचार के सन्दर्भ में भाजपा/आरएसएस की रणनीतिक समझ को सावरकर-जिन्ना के हिन्दू राष्ट्र-मुस्लिम राष्ट्र नैरेटिव से तुलना करने वालों की कमी नहीं है। ओवैसी का सीधा तर्क है कि जब सवर्णों, ब्राह्मणों, ओबीसी, अति पिछड़ों, यादवों, जाटों, दलितों, चमारों, निषादों, राजभरों, पटेलों इत्यादि की अपनी अपनी राजनीतिक पार्टियाँ हैं तो मुसलमानों की क्यों नहीं होनी चाहिए?
उनके तर्क को खाद-पानी की कमी नहीं है। भाजपा हिन्दू राष्ट्र की बात हवा में नहीं करती। सोचिये, प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी का एक भी विधायक मुस्लिम समुदाय से नहीं आता, और ओवैसी के मुताबिक आज एक मुसलमान की सबसे बड़ी चिंता मॉब लिंचिंग को लेकर है। जमीनी स्तर पर न अखिलेश और न मायावती, जो पारंपरिक रूप से मुस्लिम वोटों के दावेदार रहे हैं, खुलकर मुस्लिम सुरक्षा के मुद्दों पर पहल कर सके हैं, जबकि कांग्रेस की जमीनी क्षमता मुसलमानों का खोया विश्वास वापस पाने से काफी दूर बनी हुयी है।
धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनवाने में जुटे मोहम्मद अली जिन्ना का उस दौर का एक मशहूर उद्धरण है, "हिन्दुस्तान न तो एक राष्ट्र है और न एक देश, वह राष्ट्रीयताओं का एक उप-महाद्वीप है|" यानी, जिन्ना के मुताबिक़ मुसलमान एक अलग राष्ट्रीयता हुआ और इस लिए एक अलग मुस्लिम राष्ट्र का आधार भी। इस अवधारणा पर 1947 में ही गहरी चोट हो गयी थी, क्योंकि विभाजन के बावजूद भारत एक बहु-धार्मिक तरक्कीपसंद राष्ट्र के रूप में फलता-फूलता दुनिया के सामने आया, और 1971 में बांग्लादेश बनने के साथ मानो इतिहास में आरोपित इस तर्क की नींव ही ढह गयी।
यहाँ तक कि स्वयं पाकिस्तान को भी, अपने इस्लामिक देश होने के टैग के बावजूद, एक कामचलाऊ राष्ट्र बनने की जद्दोजहद में बलूच, पश्तून, सिंधी, पंजाबी, शिया, सुन्नी, अहमदिया, कादियान जैसी विविधताओं का संतुलन लगातार बिठाते देखा जा सकता है। वह शायद ही इस गुत्थी को इस्लामिक दायरे में कभी सुलझा सके।
इस सन्दर्भ में, मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुयी किसान महापंचायत का यूपी चुनाव प्रचार में व्यापक हिस्सेदारी का फैसला कानून व्यवस्था के नजरिये से स्वागतयोग्य है। उन्होंने अपने लम्बे आन्दोलन को एक वर्गीय पहचान देने में सफलता पायी है, और कुछ नहीं तो वे कम से कम प्रदेश के सांप्रदायिक ताप को तो नियंत्रित रखेंगे ही। अन्यथा, जिन्ना अवधारणा से प्रभावित तमाम राजनीतिक दलों के मामले में योगी प्रशासन तो सामान्यतः असहाय रहेगा ही, निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका भी दर्शक के रूप में ही ज्यादा दिखेंगे।
चुनाव के मुहाने पर खड़े उत्तर प्रदेश में आज सिर्फ एआईएमएम (AIMM) के ओवैसी ही जिन्ना की शैली में नहीं बोल रहे, बल्कि भाजपा और आरएसएस, मायावती और अखिलेश भी। यानी प्रदेश में चुनावी मैदान का हर प्रमुख खिलाड़ी। तय है कि मोदी और योगी के राम मंदिर शिलान्यास को तरह-तरह से वोटर की स्मृति में उतारा जायेगा; कांग्रेस ने राहुल गाँधी की जम्मू में वैष्णव देवी यात्रा को यूँ ही नहीं प्रचारित किया और दिल्ली में केजरीवाल की आप सरकार ने भव्य गणेश चतुर्थी आयोजन को। यह महज आगाज है और बात दूर तलक जायेगी।
उत्तर प्रदेश में कई जातीय धड़ों में बंटे मतदाता का बंगाल जैसा चुनावी ध्रुवीकरण संभव नहीं दिखता जिसने ओवैसी को वहां के मुस्लिम वोटों से अलग-थलग कर दिया था, लेकिन इसी के समानांतर, उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता के सामने दूसरा मॉडल बिहार चुनाव का है जहाँ ओवैसी को मिले उसके वोटों ने पुनः भाजपा शासन का ही रास्ता प्रशस्त किया। बतौर रणनीति, ओवैसी ने हर चुनावी बहस में संविधान के प्रति अपनी निष्ठा बरकरार प्रदर्शित की है, और यहाँ तक कि तालिबान को आतंकवादी संगठन तक घोषित करने के लिए मोदी सरकार को भी ललकारा है।
दरअसल, उनके द्वारा डराये जा रहे मुस्लिम मतदाताओं को यहीं से उनकी छद्म राजनीति पर कुछ प्रश्न खड़े करने चाहिए—
1. क्या भारतीय संविधान में मतदाता का जातीय/धार्मिक समूहों में बंट कर अपने प्रतिनिधि चुनने की अवधारणा निहित है? स्वतंत्रता पूर्व गाँधी के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आन्दोलन ने और स्वतंत्रता के बाद अम्बेडकर के नेतृत्व में संविधान सभा ने इस अवधारणा को अस्वीकार कर दिया था। क्या ओवैसी इसे ही हवा देकर देश के मुसलमानों को ऐतिहासिक अविश्वास के कठघरे में रखना चाहते हैं? आरएसएस भी यही चाहता है।
2. ठीक है, बहुत हद तक दूसरे दल भी यही कर रहे होते हैं, लेकिन इसने देश में अंततः प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भगवावाद को मजबूत किया है- आप भी वही कर रहे होंगे।
3. आपकी पार्टी के किसान, कामगार विंग कहाँ हैं? किसान बिल या लेबर कोड पर आप मुस्लिम किसानों/कामगारों के साथ कभी सक्रिय नजर नहीं आते, क्यों?
4. बंगाल या बिहार- सरकार का कौन सा मॉडल उत्तर प्रदेश के मुस्लिम को सुरक्षा का एहसास कराएगा?
5. रोजगार, महंगाई और असमानता के मुद्दों पर आपका जन-मॉडल क्या होगा? या आप सिर्फ कॉर्पोरेट तलुओं को चाटने तक सीमित रहेंगे।
6. मुस्लिम समुदाय में आप किन सामाजिक सुधारों की वकालत करेंगे?