कोरोना की तीसरी लहर आने को तैयार, मगर हम दूसरी लहर की चपेट से ही नहीं निकल पाए
दिल्ली को ऑक्सीजन के सवाल पर जब सर्वोच्च न्यायालय केंद्र सरकार को धमकाता है याकि कोई उच्च न्यायालय कहता है कि 'लटका देंगे' तो यह चुटकुलों की तरह सुना और किसी बकवास की तरह गुना जाता है...
वरिष्ठ लेखक कुमार प्रशांत का विश्लेषण
जनज्वार। जब हर बीतते दिन के साथ देश हारता जा रहा हो और सांसें टूट रही हों, तब हम कुछ लोगों या दलों की हार-जीत का विश्लेषण करें तो कोई कह सकता है कि यह तुच्छ हृदयहीनता या असभ्यता है। है भी; लेकिन इस सच्चाई का एक सच यह भी है कि वह ऐसी ही हृदयहीन व कठोर होती है।
यह बड़ी असभ्यता से औचक सामने आ खड़ी होती है कि हम पहचानें व समझें कि ऐसी भयावह पराजय किसी अकेले कारण का परिणाम नहीं होती है, बल्कि कई फिसलनों के योग से जनमती है। करोड़ों का खेल खेलने में मशगूल आइपीएल क्रिकेट वालों को इसने जहां ला पटका है उसमें और 5 राज्यों के तथा उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में लोकतंत्र के तंत्र का जैसा दानवी चेहरा सामने आया उसमें बहुत नजदीक का रिश्ता है, क्या अब भी हम यह नहीं पहचानेंगे?
राजनीतिक शक्तियों की अंधता और तंत्र की फिसलन ऐसा समाज बनाती है जो एक साथ ही बेहद क्रूर व स्वार्थी होता जाता है। राजनीतिक शक्तियों की वह फिसलन ही थी कि 1974 में लोकतंत्र की खाल ओढ़कर, तानाशाही ने देश का दरवाजा खटखटाया था; राजनीतिक शक्तियों की वह फिसलन ही थी कि संसद के द्वार की धूल माथे पर लगा कर, संविधान की किताब को शिरोधार्य कर वैसी ताकत ने पांव फैलाए कि संसद मजमेबाजी में बदल गई और ऐसी कोई व्यवस्था बची ही नहीं कि जो संविधान की किताब खोल सके। तंत्र तालीबजाऊ भीड़ में बदल गया।
ऐसा नहीं है कि इस बीच चुनाव नहीं होते रहे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि उन चुनावों में देश, लोकतंत्र व संविधान कोई मुद्दा रहा। बस, जुमलेबाजी होती रही; और ऐसी आक्रामकता से होती रही कि जुबान कहीं खो ही गई। उद्योगपति राहुल बजाज ने इसे ही पहचाना था, जब सत्ताधीशों के सामने खड़े हो कर उन्होंने कहा था कि भय का नाग सारे देश को डस रहा है।
एक ऐसा आदर्श-वाक्य चलाया गया इन दिनों में कि एक देश का सब कुछ एक ही हो! उसी धुन पर यह भी चला कि हर चुनाव का एक ही ध्येय : जीतो; चाहे कुछ भी खोना पड़े, सत्ता न खोये! कई लोग पूछते ही हैं कि चुनाव लड़ते ही हैं जीतने के लिए तो हारें क्यों? यह नया भारत है जो मानता है कि युद्ध व सत्ता के प्यार में जायज-नाजायज कुछ नहीं होता है, बस जीत होती है! लेकिन लोकतंत्र का ककहरा भी जिसने पढ़ा हो उसे पता है कि आपकी जीत भी राक्षसी हो जाती है यदि वह मूल्यगामी न हो; और पराजय भी स्वर्णिम हो जाती है यदि वह मूल्य का संरक्षण कर पाती हो।
बनते-बनते चुनाव का यह शील कभी बना था हमारे यहां कि राज्यों के चुनावों में, उप-चुनावों में प्रधानमंत्री जैसे लोग हाथ नहीं डालते थे; राष्ट्रपति सिर्फ मुहर व मोहरा नहीं हुआ करता था; अदालत के सामने सरकार की सांस बंद-सी होती थी और अदालतें संविधान के पन्ने पलटते शर्माती नहीं थीं; सेना राजनीतिक बयानबाजी नहीं करती थी; सत्ता पर अंकुश रखने वाली संविधानसम्मत संस्थाएं अपनी हैसियत अपनी मुट्ठी में रखती थीं।
देश में सिर्फ सत्ता की आवाज नहीं गूंजती थी, समाज भी बोलता था और अक्सर उसका हस्तक्षेप लोकतंत्र की गाड़ी को पटरी पर ले आता था। जयप्रकाश नारायण जैसों ने चीख-चिल्ला कर यह स्थापित-सा कर दिया था कि पंचायत आदि स्थानीय निकायों के चुनाव न तो पार्टी के नाम से होंगे, न पार्टी के चुनाव चिन्ह पर। इनका अपवाद भी हुआ, होता रहा, वैसे ही जैसे कानून होने के बावजूद हत्या व बलात्कार, चोरी व भ्रष्टाचार होता रहता है, लेकिन इससे न तो कानून बदला जाता है, न ऐसे अपराधों को पचा लिया जाता है।
आज ऐसे सारे शील रद्दी की टोकरी में पड़े हैं। एक मुख्यमंत्री को हराकर हटाने में एक प्रधानमंत्री हर लक्ष्मण-रेखा भूल कर पिल पड़ा था। उसने इसे चुनाव नहीं, बदले की जंग में बदल दिया था। 1 प्रधानमंत्री, 6 मुख्यमंत्री, 22 केंद्रीय मंत्री, दूसरे राज्यों से चुन-छांटकर जुटाए गए पार्टी के सैकड़ों अधिकारियों ने पिछले महीनों से बंगाल को छावनी में बदल दिया था। नौकरशाही के तमाम पैदल सिपाही शिकारी कुत्तों की तरह बंगाल को सूंघने-झिंझोड़ने को छोड़ दिए गए थे। कितना पैसा बहाया गया और वह अकूत धन कहां से जुटाया गया, ऐसे सवाल अब कोई पूछता भी नहीं है। यह पूछने की संवैधानिक जिम्मेवारी जिन पर है, उन्हें जैसे सांप सूंघ गया है।
किसने पूछा कि एक राज्य का चुनाव 33 दिनों तक चलने वाले 8 चरणों तक क्यों खींचा गया? चुनाव की अधिकांश प्रक्रिया इलेक्ट्रोनिक हो गई है, संवाद-संचार की सुविधाएं पहले से कहीं अच्छी व आसान हो गई हैं तब बंगाल में (सिर्फ बंगाल में!) इतने लंबे चुनाव-कार्यक्रम का औचित्य क्या था? चुनाव आयोग ने किस तर्क से यह योजना बनाई?
हम सिर्फ यह न देखें कि चुनाव आयोग अपनी भूमिका निभाने में कितना निकम्मा साबित हुआ, बल्कि यह भी देखें कि सरकार ने चुनाव आयोग का कैसा इस्तेमाल किया! ठीक है, पहले की सरकारों ने भी ऐसी सफल-असफल कोशिशें की ही हैं, तो आप कहिए न कि हम भी वैसी ही सफल-असफल कोशिश करते रहते हैं!
जिन सुनील अरोड़ा साहब की देखरेख में 5 राज्यों के चुनाव हुए, अंतिम दौर से पहले ही उनकी कुर्सी चली गई और उनके सहायक रहे सुशील चंद्रा ने कुर्सी संभाली। अब दो 'सु' के बीच का यह फर्क देखिए कि अचानक ही बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष को चुनाव प्रचार से 24 घंटों के लिए बाहर कर दिया गया; कूचविहार में हुई गोलीबारी को कहीं भी दोहराने की धमकी देने वाले भाजपा के साईंतन बसु को नोटिस जारी की गई और चुनाव प्रचार थमने की अवधि बढ़ा कर 72 घंटे की कर दी गई। यह सब पहले क्यों नहीं हुआ? क्या चुनाव आयोग अध्यक्ष की मनमौज से चलता है याकि उसके पास कोई स्पष्ट निर्देश-पत्र है जिसके आधार पर उसे फैसला लेना होता है? अगर ऐसे निर्देश-पत्र की बात सही है तो फिर दोनों 'सु' को देश को बताना ही चाहिए कि उनके इन फैसलों का आधार क्या था?
और सर्वोच्च न्यायालय! उसका मुखिया भी अभी-अभी बदल गया है, तो हम देख रहे हैं कि वहां से उठने वाली आवाज भी कुछ बदल गई है। अदालतें बोलने लगी हैं। कोई हमें बताए कि क्या बोबडे और रमणा एक ही संविधान के पन्ने पलटते हैं? तमिलनाड उच्च न्यायालय ने तो चुनाव आयोग को हत्यारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया, और आयोग जब इसकी फरियाद ले कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो उसने इतना ही कहा कि यह कड़वा घूंट पी लीजिए, लेकिन जानना यह है कि जब 'हत्या की साजिश' बन व चल रही थी तब अदालतों ने इसे देखा-समझा क्यों नहीं?
कोविड की पहली लहर की पहली अदालती प्रतिक्रिया यह हुई कि उसने अपने दरवाजे बंद कर लिए। संविधान का मेरा सीमित ज्ञान बताता है कि संविधान वैसी किसी परिस्थिति की कल्पना नहीं करता है जब न्यायतंत्र बंद कर दिया जाए। वह बदनुमा दाग अदालतों के माथे पर आज तक चिपका है कि जब आपातकाल में उसने लोकतंत्र से मुंह फेरने की कायरता दिखाई थी। अब यह नया दाग उससे भी गहरा उभर आया है। इसलिए दिल्ली को ऑक्सीजन के सवाल पर जब सर्वोच्च न्यायालय केंद्र सरकार को धमकाता है याकि कोई उच्च न्यायालय कहता है कि 'लटका देंगे' तो यह चुटकुलों की तरह सुना और किसी बकवास की तरह गुना जाता है। अपनी ऐसी हैसियत न्यायतंत्र ने स्वयं ही बना ली है।
पतन हमेशा ऊपर से नीचे की तरफ उतरता है। शीर्ष पर होने का आनंद कैसा होता है, यह तो जो शीर्ष पर हैं, वे ही जानें लेकिन समाजविज्ञान का अदना विद्यार्थी भी जानता है कि शीर्ष पर रहने की जिम्मेवारी क्या होती है। जब शीर्ष पर मक्कारी, लफ्फाजी, अज्ञान व अकुशलता का बोलबाला हो तो वही समाज की रगों में भी उतरता है। हमारा लोकतंत्र इसका ही शिकार है।
कोविड की तीसरी लहर आने की तैयारी कर रही है; हम दूसरी की चपेट से ही नहीं निकल पाए हैं। लेकिन इससे तीसरी लहर को न तो रोका जा सकता है, न हराया जा सकता है। हमारा ऑक्सीजन खत्म हो रहा है। तीसरी लहर से पहले हमारे भीतर शिव का तीसरा नेत्र खुले तो रास्ते बनें और लोक व तंत्र दोनों बचें।