अंबेडकर परिनिर्वाण दिवस पर बाबरी मस्जिद ढहा और बुद्ध जयंती पर पोखरण परमाणु विस्फोट से BJP जता चुकी है संविधान और बुद्ध की अहिंसा से अनास्था
इलाहाबाद के माघ मेले में शंकराचार्य अखिलेश्वर नन्द ने संविधान को हिंदूविरोधी बताया और मनुस्मृति को लागू करने पर जोर दिया। इसी अवसर पर स्वामी वेदान्ती ने धर्मनिरपेक्षता का विरोध करते हुए धर्मविहीन राजनीति को विधवा के समान बताया और कहा कि भारत में धर्म का शासन होना चाहिए, जैसे रामराज्य में वशिष्ट का और चन्द्रगुप्त के राज्य में चाणक्य का था....
वरिष्ठ लेखक और दलित चिंतक कंवल भारती की महत्वपूर्ण टिप्पणी
आरएसएस और भाजपा के कार्यकलाप उनके एजेंडे में पहले से ही रहते हैं। चाहे ओबीसी के आरक्षण का विरोध हो, बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो, राम मंदिर हो, ज्ञानवापी या मथुरा की मस्जिद हो, धारा 307 हो, या संविधान बदलने का मुद्दा हो, वो सब उनके एजेंडे में पहले से ही है। उनके कार्य करने का भी एक अलग तरीका है। उन्हें जिस काम को करना होता है, उसके बारे में वे सालों पहले से वातावरण बनाना शुरू कर देते हैं और खासियत यह भी है कि वे अपने एजेंडे के कार्यान्वयन में पिछड़ी जातियों के नेताओं का ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं।
उनकी किसी भी विध्वंसक घटना का अध्ययन कर लीजिए, आप पाएंगे कि उसके पक्ष में उन्माद तैयार करने से लेकर उसे अंजाम तक पहुंचाने का सारा काम पिछड़ी जातियों द्वारा किया गया था। फिलहाल ज्ञानवापी और मथुरा मुद्दे भाजपा और आरएसएस के एजेंडे के मुताबिक अदालतों में चल रहे हैं, और परिणाम वही आना है, जो बाबरी मस्जिद बनाम रामलला मामले में आया था।
भारतीय संविधान का विरोध और सत्ता में आने पर उसे हटाने का मुद्दा भी आरएसएस के एजेंडे में 1949 से ही है, जब संविधान सभा द्वारा उसे पारित किया गया था। उस समय के अखबारों में छपे आरएसएस-नेताओं के बयान देखे जा सकते हैं, जिनमें कहा गया था कि 'भारतीय संविधान में भारतीय जैसा कुछ भी नहीं है।'
आरएसएस के मुखपत्र ‘दि आर्गेनाइजर’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में संविधान के विरोध में जो सम्पादकीय छपा था, उसमें कहा गया था कि “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खास बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली है। इसमें प्राचीन भारत के मनु के कानूनों का उल्लेख नहीं है, जिन्होंने दुनिया को प्रेरित किया है। किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों (आंबेडकर और नेहरू) के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है।” यह विरोध लिखने और बोलने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसके विरोध में आरएसएस ने प्रदर्शन भी किये थे, और दिल्ली में आंबेडकर का पुतला भी फूंका था।
इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि आरएसएस की मुख्य चिंता मनुस्मृति है, जिसका कोई कानून, कोई संस्था और कोई शब्दावली भारतीय संविधान में नहीं ली गई है। 1950 के बाद के दशकों में ही नहीं, बल्कि नई सदी के दशकों में भी आरएसएस और भाजपा के नेताओं के स्वर भारतीय संविधान के समर्थन में कभी नहीं रहे। उन्होंने हर अवसर पर इसका विरोध किया। दशवें दशक में जब मंदिर का उन्माद जोरों पर वातावरण में फैला हुआ था, और बाबरी मस्जिद तोड़ी जा चुकी थी, तब 29 जनवरी 1993 को भाजपा के ओबीसी नेता कल्याण सिंह ने फ़ैजाबाद में कहा था, 'मैं ललकार कर कहता हूँ कि मुझे ढांचे के टूटने का कोई पछतावा नहीं है। हम केन्द्र में आयेंगे, तो संविधान भी बदलेंगे।'
भाजपा सरकार ने संविधान और बुद्ध के प्रति अपनी सोच अपनी दो घटनाओं से प्रकट कर दी थी। वह 1992 में अयोध्या में अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर बाबरी मस्जिद गिराकर संविधान में अपनी अनास्था प्रकट कर चुकी थी और 1998 में बुद्ध जयंती के दिन पोखरन में परमाणु विस्फोट करके यह स्पष्ट कर चुकी थी कि बुद्ध की अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है।
और वास्तव में जब 1998 में केन्द्र में पहली बार भाजपा की सरकार कायम हुई, तो प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पहला काम भारतीय संविधान को बदलने के लिए एक समीक्षा समिति बनाने का ही किया। पर साल भर पहले से आरएसएस ने अपने लोगों को संविधान के खिलाफ मुहिम चलाने पर लगा दिया था। इनमें एक थे अरुण शौरी और दूसरे थे हिंदी के गैर-ब्राह्मण लेखक शैलेश मटियानी। अरुण शौरी मुसलमानों के बरेलवी संप्रदाय के खिलाफ 'The World of Fatwas' लिखकर हिंदू-मुस्लिम दंगा पहले ही करा चुके थे। उसके बाद आंबेडकर और संविधान के खिलाफ लेखमाला चलाई, जो हिंदी में दैनिक जागरण में छपी, और बाद में अंग्रेजी में 'Worshipping False Gods : Ambedkar' नाम से किताब छपी।
अरुण शौरी के खिलाफ दलितों का रोष-प्रदर्शन देशभर में हुआ, और पूना में विरोधियों द्वारा उनके मुंह पर कालिख भी पोती गई थी। अरुण शौरी के संविधान-विरोध की आलोचना मैं अपनी छोटी सी किताब 'आंबेडकर को नकारे जाने की साजिश' में कर चुका हूँ, जो 1996 में प्रकाशित हुई थी। शैलेश मटियानी के संविधान-विरोधी विचारों का खंडन मैंने अपने नियमित स्तंभ में किया था, जो उन दिनों मैं कई पत्रों के लिए लिखा करता था।
शैलेश मटियानी ने वही कहा था, जो अभी मौजूदा सरकार में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कहा है कि 'संविधान एक औपनिवेशिक रचना है।' मटियानी संविधान को भारतीय संस्कृति, असल में हिंदू संस्कृति का विरोधी मानते थे, और उसके मौजूदा स्वरूप पर पुनर्विचार चाहते थे और यह अद्भुत संयोग था कि जिस दिन शैलेश मटियानी का लेख छपा, उसके ठीक 15 दिन बाद, वही बात, भाजपा नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने 22 फ़रवरी 1997 को दिल्ली में आरएसएस के पूर्वमुखिया गोलवरकर की स्मृति-व्याख्यान में बोलते हुए कहा कि “संविधान को बनाने में काफी हड़बड़ी दिखाई गई। गहराई से सोचे-समझे बगैर ब्रिटेन की नकल करके जो संसदीय प्रणाली जनता पर थोपी गई, वह भ्रष्टाचार में मददगार साबित हो रही है।”
अध्यक्षीय प्रणाली की वकालत वर्तमान भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई अवसरों पर कर चुके हैं। और तो और, हमारे एक अंग्रेजी दलित चिंतक और डिक्की के मेंटर चन्द्रभान प्रसाद भी इस बात को जोर देकर कह चुके हैं कि आंबेडकर भी अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली के पक्ष में थे। और यह उन्हीं दिनों की बात है, जब केन्द्र में भाजपा की सरकार थी।
अटल बिहारी वाजपेयी ने, 1998 में, प्रधानमंत्री बनने के बाद, जो संविधान-समीक्षा आयोग गठित किया था, उसमें ग्यारह सदस्य थे। और गौरतलब बात यह है कि उन ग्यारह सदस्यों में एक भी सदस्य दलित वर्ग से नहीं था। उस वक्त मैंने अपने नियमित स्तंभ में लिखा था कि यह आयोग अभिजात और सवर्ण वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है, और सरकार की ओर से रिपोर्ट को लोकतंत्र-विहीन बनाने का संकेत देता है। सरकार ने संविधान की समीक्षा के लिए आयोग को अपना जो एजेंडा सौंपा था, उसमें संविधान के मूल ढांचे “धर्मनिरपेक्षता” को ही खत्म करने का सुझाव था। एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश का बयान अख़बारों में छपा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें भी आयोग में शामिल किया गया था, पर वह सरकार के एजेंडे से सहमत नहीं थे, इसलिए उसमे शामिल नहीं हुए थे।
आयोग के अध्यक्ष वेंकट चलैया थे, जिनके हिंदू-आग्रह सर्वविदित थे। हालाँकि उस आयोग ने क्या समीक्षा की, और क्या रिपोर्ट दी, उसका पता नहीं चल सका। शायद सरकार ने ही समय को अपने अनुकूल न समझकर उसे रोक दिया हो। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि आयोग का गठन होते ही, जहाँ आरएसएस ने अपने तमाम लेखकों, पत्रकारों, विश्लेषकों और संत-महात्माओं को संविधान का विरोध करने के काम पर लगा दिया था, वहाँ भाजपा ने अपने नेताओं को मैदान में उतार दिया था। उस फ़ौज के सामने अरुण शौरी और शैलेश मटियानी तो कुछ भी नहीं थे।
उनकी कुछ बानगी देखिए, इलाहाबाद के माघ मेले में शंकराचार्य अखिलेश्वर नन्द ने संविधान को हिंदूविरोधी बताया और मनुस्मृति को लागू करने पर जोर दिया। इसी अवसर पर स्वामी वेदान्ती ने धर्मनिरपेक्षता का विरोध करते हुए धर्मविहीन राजनीति को विधवा के समान बताया और कहा कि भारत में धर्म का शासन होना चाहिए, जैसे रामराज्य में वशिष्ट का और चन्द्रगुप्त के राज्य में चाणक्य का था। दूसरे शब्दों में उन्होंने ब्राह्मण-राज्य का खुलकर समर्थन किया।
पत्रकार राजीव चतुर्वेदी ने लिखा कि संविधान में मौलिक कुछ भी नहीं है। उसमें दूसरे देशों के संविधानों से लिए गए टुकड़ों के पैबंद लगाए गए हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि संविधान जातीय समानता की बात करता है, पर जाति के नाम पर आरक्षण देने का जातीय भेदभाव भी करता है। संघ के हिंदूवादी लेखक बनवारी ने लिखा, ‘संविधान न अपना है, न ऊँचा है। यह एक ही व्यक्ति आंबेडकर का बनाया हुआ है, जिन्हें भारतीय समाज और भारतीय ज्ञान-परम्परा की कोई समझ नहीं थी।' असल में इन्हें मूल परेशानी आंबेडकर से थी।
अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार अगर संविधान-समीक्षा के मुद्दे पर कामयाब नहीं हुई, तो उसके उसके दो कारण थे; पहला यह कि उस दौर में आज की तरह सारा प्रचार माध्यम और तंत्र सरकार के नियंत्रण में नहीं था, और सरकार फासीवाद की ओर अग्रसर तो थी, पर पूरी तरह फासीवादी नहीं हुई थी। और दूसरा कारण यह था कि दलित-पिछड़ों का आज की तरह हिंदूकरण नहीं हुआ था, पर प्रक्रिया जारी थी। यही कारण था कि वर्ष 2000 में देश भर में दलित संगठनों द्वारा आंबेडकर-जयंती ‘संविधान-बचाओ’ दिवस के रूप में मनाई गई थी, और इससे भाजपा के राजनीतिक अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बज गई थी।
लेकिन आज की परिस्थितियां एक दम भिन्न हैं। आज भारत के मुख्यधारा के प्रचार माध्यमों और तंत्र पर नरेन्द्र मोदी का नियंत्रण है; आरएसएस का आईटी सेल सरकार के पक्ष में पूरी मजबूती से सक्रिय भूमिका में है, जो पहले नहीं था; सत्ता पूरी तरह फासीवादी स्वरूप में विरोधियों को कुचलने में जिस तरह आज काम कर रही है, पहले नहीं थी; और सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि दलित-पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण हो गया है, जो सरकार के विरोध में जाने की स्थिति में नहीं हैं।
इसलिए आज संविधान-विरोध के मुद्दे को फिर से उभारा जा सकता है। आज आरएसएस और भाजपा दोनों ही समय को अपने अनुकूल देख रहे हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कुछ नया नहीं कहा है, बल्कि वही कहा है, जो पिछले सत्तर सालों से आरएसएस और भाजपा के नेता बोलते आ रहे हैं। देबराय का लेख “There is a case for the people to embrace a new constitution” शीर्षक से एक आर्थिक पत्रिका में छपा है। इसका अर्थ है, लोगों को एक नए संविधान को अपनाने की जरूरत है। इस लेख को मैं नहीं देख सका हूँ। पर हिंदी ‘अमर उजाला’ में कुछ पंक्तियों में उसका जो विवरण छपा है, उसमें देबराय ने 'मौजूदा संविधान को औपनिवेशिक विरासत करार दिया है।'
'यह पूछा जाना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक, न्याय, स्वतंत्रता, और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है? हमें खुद को एक नया संविधान देना होगा।'
यह चिंता बिबेक देबराय की नहीं है, बल्कि यह चिंता आरएसएस और भाजपा की है। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत आरएसएस और भाजपा की आँखों में चुभते हैं, क्योंकि उनके अनुसार इन सिद्धांतों में भारतीयता यानी हिंदुत्व नहीं है। वे सही कहते हैं, क्योंकि भारत में मुस्लिम शासन से पहले तक राजतन्त्र ही थे, जो धर्म के राज्य थे। उनमें न समाजवाद था, न समानता थी, न लोकतंत्र था, और न न्याय था। मैं शाक्य और लिच्छवियों के गणराज्य को लोकतंत्र नहीं मानता, क्योंकि उनमें समाज के सभी वर्गों और खास तौर से निम्न वर्गों को मतदान का अधिकार नहीं था। उनमें भी न्याय, स्वतंत्रता और समानता नहीं थी।
हिंदू राजतंत्रों में तो मनु का कानून लागू ही था, जो स्वतंत्रता और समानता पर आधारित नहीं, बल्कि सामाजिक भेदभाव पर आधारित थे। भारत को पहली बार समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सिद्धांत पश्चिम के राजनीतिक दर्शन ने ही दिए, जिन्हें भारत की हिन्दुत्ववादी सरकार अपने साम्प्रदायिक बहुमत के बल पर खत्म करना चाहती है। आरएसएस का मकसद सामाजिक समानता को खत्म करके जाति-विभाजन पर आधारित सामाजिक समरसता का सिद्धांत लागू करना है। हमारा मौजूदा संविधान अपने मौलिक अधिकारों को पाने के लिए और सामाजिक-आर्थिक दमन के खिलाफ संघर्ष करने का जो कानूनी शक्ति देता है, वह सामाजिक समरसता के लागू होते ही खत्म हो जायेगा।
इसलिए मैं देबराय के लेख को संविधान बदलने के पक्ष में एक साम्प्रदायिक बहुमत के लिए वातावरण बनाने की एक ‘पहल’ के रूप में देख रहा हूँ। हो सकता है, मीडिया और अख़बार भी इस पर एक उन्मादी बहस चला दें।
अंत में मैं अपने दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों से भी एक आग्रह करना चाहता हूँ कि वे संविधान-विरोध को आंबेडकर-विरोध का मुद्दा न बनायें, हालाँकि आरएसएस और भाजपा का मुख्य विरोध आंबेडकर से ही है, पर यह राष्ट्रीय लोकतंत्र का मुद्दा है, और इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।