काेविड और कांग्रेस

कोविड से संबंधित नीतियों के मामले में कांग्रेस पार्टी भाजपा से अलग नहीं है। यह एक नूरा-कुश्ती है, एक हमाम है, जिसमें सभी एक जैसे हैं, इन सबने मिलकर कोविड को भगवान और भूत की तरह आस्था का सवाल बना दिया है...

Update: 2021-04-16 07:29 GMT

पढ़िये पत्रकार और लेखक प्रमोद रंजन के कॉलम 'नई दुनिया' में कि वो क्यों कह रहे हैं, कांग्रेस ने महामारी पर मावनीय स्टैंड लिया होता और जनता के पक्ष के इन नीतियों का विरोध किया होता तो ऐसी तबाही नहीं होती, जिसे आज देश भुगत रहा है....

जनज्वार। 2021 के इस अप्रैल महीने में भारत में फिर कई जगहों पर लॉकडाउन लगा दिया गया है तथा कई जगहों पर रात का कर्फ़्यू शुरू हो गया है। वास्तव में पहला लॉकडाउन कभी ख़त्म ही नहीं हुआ। देश के सभी हिस्सों में प्रतिबंध जारी है। एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच आवागमन लगभग ठप है। सिर्फ़ कोविड-स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं, जो कि संख्या में बहुत कम हैं। आम लोगों के रोज़ी-रोज़गार ख़त्म हो गये हैं। अरबपतियों का पैसा तेज़ी से बढ़ रहा है।

इसके बावजूद इस सप्ताह भारत के मुख्य विपक्षी दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार की आलोचना करते हुए कहा है कि देश के सभी लोगों को वैक्सीन क्यों नहीं लगाई जा रही। साथ ही उसने माँग की है कि 10वीं और 12वीं कक्षा की परीक्षाएँ स्थगित कर दी जाएँ। कांग्रेस का दावा है कि उसकी माँग के कारण ही सरकार ने 10वीं की परीक्षा स्थगित करने की घोषणा की है।

दरअसल कांग्रेस लॉकडाउन, ऑनलाइन शिक्षण तथा वैक्सीन-पासपोर्ट की अनिवार्यता के पक्ष में खड़ी है। आखिर यह वही पार्टी है, जिसने बायोमेट्रिक पहचान पर आधारित आधार कार्ड को तमाम विरोधों के वावजूद भारत के हर निवासी के लिए अनिवार्य बनाया था। वैक्सीन पासपोर्ट उसी की स्वाभाविक अगली कड़ी है।

कांग्रेस ने वैक्सीन के निर्यात पर तत्काल 'Moratorium' (तात्कालिक रोक) लगाने की भी माँग की है। कांग्रेस का कहना है कि अपने देश के सभी लोगों को वैक्सीन लगाए जाने के बाद ही अन्य देशों को वैक्सीन दी जाए तथा शिक्षण-संस्थानों में कक्षाएँ न शुरू की जाएँ। कांग्रेस-अध्यक्ष राहुल गाँधी ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अन्य देशों में उत्पादित टीकों की फास्ट ट्रैक स्वीकृति देने के लिए कहा था, जिस पर प्रतिक्रिया देते हुए इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राहुल गाँधी को विदेशी फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों की लॉबी करने वाला कहा था। कांग्रेस का दावा है कि अब सरकार ने उसकी इस माँग को भी मान लिया है।

सामान्य तौर पर लगता है कि ऑनलाइन शिक्षण, वैक्सीन आदि के मुद्दे पर कांग्रेस की नीतियाँ भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार से अलग हैं, जिसके कारण वह सरकार से विभिन्न माँगें करती रहीं है। लेकिन सवाल है कि कौन शिक्षा-व्यवस्था को वापस पटरी पर लाना चाहता है? क्या भारत सरकार ऐसा चाहती है? और कौन-कौन से देश हमसे वैक्सीन लेने के लिए तैयार हैं, जिसका विरोध कांग्रेस कर रही है? किन-किन संपन्न-शक्तिशाली देशों ने हमसे वैक्सीन माँगी है? वस्तुत: अनेक देश भारत से वैक्सीन लेने से इनकार कर चुके हैं।

कुछ देशों ने हमारी वैक्सीन वापस कर दी है। भारत की मौजूदा सरकार जो कथित वैक्सीन-डिप्लोमेसी कर रही है, वह कुछ-कुछ 'बूढ़ी गाय, ब्राह्मण को दान' देने जैसा है। यह कॉरपोरेशनों की उस रणनीति का भी हिस्सा है, जिसके तहत वैक्सीन की झूठी कमी दिखाई जा रही है, ताकि लोग इसके प्रति आकर्षित हों। मार्केटिंग गुरु इसे स्कारसिटी ह्यूरिस्टिक (Scarcity heuristic) के नाम से जानते हैं। व्यवहार अर्थशास्त्र (Behavioural Economics) का अध्ययन करने के दौरान इस पुराने और रामबाण उपाय पर विस्तार से चर्चा की जाती है।

स्कारसिटी ह्यूरिस्टिक उस स्थिति को कहते हैं, जब किसी चीज़ की कमी को देखकर लोग उसे मूल्यवान समझते हैं तथा उसकी ओर आकर्षित होते हैं। हम इसे "कमी से उत्पन्न त्वरित, विश्रृंखल मनो-प्रक्रिया" भी कह सकते हैं।

हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन पत्रिका में छपे एक लेख में बताया गया है कि किस प्रकार मार्केटिंग का यह आदिम सिद्धांत कोविड-टीकाकरण के प्रति लोगों को आकर्षित कर रहा है। पत्रिका ने बताया कि काले लोगों में कोविड टीका के प्रति जबरदस्त संदेह था, लेकिन जब उनके सामने वे आँकड़े आए, जिसमें पाया गया था कि व्हाइट लोगों के लिए टीका अधिक उपलब्ध और काले लोगों के लिए कम तो काले लोगों में टीका लगवाने के इच्छुक लोगों का प्रतिशत तेज़ी से बढ़ गया। कोविड के संदर्भ में होने वाली विश्व स्वास्थ्य संगठन की नियमित प्रेस ब्रीफिंग में स्कारसिटी ह्यूरिस्टिक को सन्निपात की स्थिति तक ले जाने की कोशिश निरंतर दिखाई पड़ती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख डॉ टेड्रोस लगभग रोज ही आंकड़े जारी करते हैं, जिनमें बताया जाता है कि अमीर देश सारी वैक्सीन हड़प ले रहे हैं और विकासशील व गरीब देशों को कुछ नहीं मिल रहा है।

वस्तुत: आम लोग दुनियाभर में वैक्सीन न तो ले रहे हैं और न ही लेना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि सरकारें उनका कथित भला करने के नाम पर यह दमनात्मक कार्रवाइयाँ बंद करें। लेकिन जनता की इच्छाओं में परिवर्तन के लिए एक मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ दिया गया है। यह युद्ध कई स्तरों पर है, जिसकी मुख्य खिलाड़ी संचार-तकनीक और सोशल मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत कंपनियां हैं। दूसरी ओर, कोविड के भय के प्रसार के लिए कृतसंकल्प विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वतंत्र रूप से सोचने और निर्णय करने को एक बीमारी माना है, जो उसके अनुसार 'कोविड से भी अधिक खतरनाक' है। वह इसे Infodemic (इंफोडेमिक) यानी, सूचनाओं की महामारी कहता है।

30 जून से 16 जुलाई, 2020 के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बीमारी को सैद्धांतिक स्वीकृति दिलाने के लिए टेक कंपनियों के प्रतिनिधियों के साथ मनोवैज्ञानिकों और चिकित्सा शास्त्रियों और क्लोज डोर बैठक की। इस गुप्त बैठक में सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्रों के विशेषज्ञ; एप्लाइड गणित एंड डेटा साइंस, डिजिटल स्वास्थ्य और प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग, सामाजिक और व्यवहार विज्ञान, मीडिया-अध्ययन क्षेत्र के विशेषज्ञ, मार्केटिंग गुरू व अनेक सरकारों के प्रतिनिधि शामिल हुए।

बैठक में इस बीमारी का इलाज करने वाली पद्धति का नाम Infodemiology (इंफोडेमिलॉजी) रखने की स्वीकृति दी गई और इसे एक नया 'विज्ञान' कहा गया। उस बैठक के बाद से हमारे दिमागों को ठीक करने के लिए, हमें उनकी इच्छाओं के अनुरूप सोचने, आज्ञाकारी बनाने के लिए बड़े पैमाने पर इलाज जारी है। यह घोषित और आधिकारिक तौर पर किया जा रहा है। इस इलाज को मुख्य रूप से टेक कंपनियों के माध्यम से जमा किए गए हमारे निजी डेटा के आधार पर अंजाम दिया जा रहा है।

बहरहाल, इलाज जारी होने के बावजूद, विभिन्न सर्वेक्षणों में यह सामने आ रहा है कि अब भी विभिन्न देशों में 50 से लेकर 90 फीसदी तक लोग वैक्सीन पर विश्वास नहीं करते हैं और इस महामारी के भय को अतिश्योक्तिपूर्ण समझने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।

अधिकांश देशों में लागू कड़े महामारी-क़ानूनों के बावजूद वैक्सीन और लॉकडाउन के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत जैसे देश में, जहाँ इस प्रकार के प्रदर्शन नहीं हुए हैं, लोग निजी स्तर पर विरोध जता रहे हैं। भारत में लोग मास्क पहनने को राज़ी नहीं हैं, मेले-समारोहों में ख़ूब भीड़ उमड़ रही है। बाज़ार लोगों से खचाखच भर जा रहे हैं। "सोशल-डिस्टेंसिंग की उड़ी धज्जियाँ" चिल्लाते मीडिया चैनलों की कोई सुनने वाला नहीं है। जो लोग मास्क लगा रहे हैं, वे महामारी के कारण नहीं, बल्कि 'महामारी-क़ानून' के कारण।

दूसरी ओर वैक्सीनों से हो रही मौतों व अन्य दुष्प्रभावों को बजाप्ता महामारी-क़ानून की आड़ में छिपाया जा रहा है। भारत में 16 जनवरी, 2021 को कोविड-टीकाकरण अभियान शुरू हुआ। टीकाकरण शुरू होते ही लोगों के वैक्सीन से मरने की ख़बरें आने लगीं। टीकाकरण के पहले तीन दिन में ही लगभग एक दर्जन लोगों के मौत की ख़बरें मीडिया में आयीं। उसके बाद ये ख़बरें बंद हो गयीं। ये ख़बरें कैसे बंद हो गयीं जबकि वैक्सीन वही है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए आपको मीडिया की कार्यप्रणाली के उन छिद्रों को समझना होगा, जो उसे सरकार और कथित विशेषज्ञ-संस्थाओं को मानने के लिए विवश कर देते हैं। जो इसे झाँसे में नहीं आते, उनके लिए महामारी-क़ानून का डंडा होता है।

स्वाभाविक है कि वैक्सीन से अभी भी लोग मर रहे हैं और यह सचमुच बेमौत की मौत है। मीडिया में इन मौतों की ख़बर का प्रसारण बंद हो जाने के बावजूद लोग वैक्सीन लेने सामने नहीं आ रहे हैं। मैं भारत के जिस राज्य में रहता हूँ, वहाँ हाल ही में चुनाव था। चुनाव-कार्य के लिए चयनित सरकारी-क​​र्मचारियों की एक बैठक में जिलाधीश ने ऐच्छिक वैक्सीन का विकल्प रखा, चाहे वे किसी भी उम्र के हों। उस बैठक में मौजूद 150 लोगों में से बमुश्किल 10 लोगों ने वैक्सीन ली।

भारत में लग रही जिन वैक्सीनों की तारीफ़ के पुल बाँधे गये थे, उसी गुणसूत्र वाली वैक्सीन पर यूरोप के अनेक देशों ने अपने यहाँ रोक लगा दी है, क्योंकि इससे ख़ून के थक्के जम जाने और लोगों की मौत के अनेक मामले सामने आये थे।

कोविड की पहली वैक्सीन रूस ने बनाई थी और अगस्त, 2020 में ही व्लादिमीर पुतिन की बेटी कतेरीना तिखोनोवा ने इसे ले लिया था। रूस की उस वैक्सीन के बारे में न जाने कितनी अनाप-शनाप बातें भारत समेत यूरोपीय देशों ने कहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी उस वैक्सीन को बदनाम करने के लिए अनेक बयान जारी किए गये। कहा गया कि "रूसी वैक्सीन एक छलावा है। रूस महामारी का फ़ायदा उठाकर ऐसी वैक्सीन दुनिया को बेचना चाह रहा है, जिससे फ़ायदा तो नहीं ही होगा, बल्कि इसे लेने वाले लोगों को अनेक घातक दुष्प्रभाव भुगतने होंगे।"

उसी रूसी वैक्सीन को अब एक बार फिर से कारगर कहा जा रहा है। कुछ मीडिया रिर्पोटों के अनुसार भारत में भी इन दिनों रूसी वैक्सीन को मान्यता देने की तैयारी चल रही है। कांग्रेस इसका श्रेय ले रही है। अगले सप्ताह तक रूसी वैक्सीन को मान्यता मिल जाएगी। यह सब क्या है? कैसा गोरखधंधा है? या कहें कि यह कौन-सी विष्णु-लीला चल रही है? हमारी मेहनत और टैक्स का पैसा जितनी तेज़ी से और महामारी के नाम पर वैश्विक-भ्रष्टाचार की एकमुश्त भेंट चढ़ रहा है, वैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ था।

दूसरी ओर लॉकडाउन के कारण देश में करोड़ों-करोड़ लोग क़र्ज़ में डूब चुके हैं और अब लॉकडाउन की कथित दूसरी लहर भी चला दी गयी है। क़र्ज़ में डूबे लोगों पर बैंक लगातार दंडात्मक कार्रवाई कर रहे हैं। हज़ारों (संभवत: लाखों) लोग इस बीच बैंक व अन्य क़र्ज़दाता संस्थाओं के दबाव के कारण आत्महत्या कर चुके हैं।

लाखों लोग रोज़ ट्विटर पर लिख रहे हैं कि क़र्ज़ वसूलने के लिए ये संस्थाएँ जिस प्रकार की कार्रवाई कर रहीं हैं, उसमें उनके पास आत्महत्या करने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं है। लोगों ने 'Loan Moratorium' (कर्ज-अधिस्थगन) के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। कोर्ट से उन्हें कोई राहत नहीं मिली, क्योंकि सरकार ने कहा ने क़र्ज़दाताओं के हितों का ख़याल रखना आवश्यक है, अन्यथा इन धनाढ्यों का विश्वास व्यवस्था से टूट जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की बात मानी ली। लेकिन जनता का विश्वास इस व्यवस्था से टूटे या बना रहे, इसकी चिन्ता न सत्ताधारी दल को है, न विपक्षी दल को। वस्तुत: कोई भी राजनीतिक पार्टी इन कथित 'क़र्ज़ख़ोर मध्यवर्गीय' लोगों के पक्ष में नहीं है।

बहरहाल, हम उस प्रश्न पर लौटें कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भारत सरकार से इस प्रकार की माँग कर क्यों रही है, जिसके बारे में वह ख़ुद और भारत सरकार पहले से ही एकमत है?

ऐसा नहीं है कि जो हो रहा है उससे कांग्रेस अनभिज्ञ है। ट्विटर पर सैकड़ों लोग रोज़ कांग्रेस-अध्यक्ष राहुल गाँधी समेत वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को टैग कर भी आत्महत्या की चेतावनी दे रहे हैं। उनके मार्मिक शब्द किसी को हिला देने के लिए काफ़ी हैं। वे क़र्ज़ख़ोर नहीं बल्कि अपनी मेहनत के बलबूते जीने वाले स्वाभिमानी लोग हैं, जिनके आत्मसम्मान को सरकार की नीतियों ने कुचल डाला है। बैंक वाले उनके घरों से सामान उठा रहे हैं। उनकी पत्नी-बच्चों के सामने उन्हें पीटते हुए उठाकर ले जा रहे हैं और पुलिस कोई भी हस्तक्षेप करने से इनकार कर रही है।

इस हाहाकार पर कांग्रेस पूरी तरह चुप है। इसके बारे में उसकी कोई अलग राय क्यों नहीं बन पा रही है? वस्तुत: कांग्रेस कोविड संबंधी सभी मूल नीतियों पर भाजपा के साथ खड़ी है। उसका विरोध इस बात के लिए नहीं है कि भारत सरकार की नीतियाँ उसकी नीतियों के विरुद्ध हैं, या वैश्विक-स्तर पर आम लोगों के साथ महामारी के नाम पर जो किया जा रहा है वह अमानवीय है। बल्कि ऐतिहासिक अतीत वाली भारत की इस सबसे पुरानी पार्टी से विरोध इस बात से है कि मनुष्य को संवेदनाशून्य रोबोट में तब्दील करने वाली, जनता को सामूहिक ग़ुलामी में धकेलने वाली, लोकतंत्र का मखौल उड़ाने वाली तथा राज्य-सत्ता में कॉरपोरेशनों के लिए सीधी भागीदारी का रास्ता खोलने वाली नीतियों को तेज़ी से क्यों नहीं लागू किया जा रहा।

इसको एक और तरीक़े से समझने की ज़रूरत है। महामारी के नाम पर भारत में मध्यम- वर्ग के करोड़ों लोगों को ग़रीबी में धकेल दिया गया है। राजनीतिक आज़ादी और लोकतंत्र के लिए लड़ाई का लाभ लंबी जद्दोजहद के बाद पिछले कुछ दशकों से भारत की बहुसंख्यक आबादी तक पहुँचने लगा था। इस दौरान करोड़ों लोगों ने ग़रीबी से मध्यम वर्ग की यात्रा की थी। इसी दौरान सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा के दरवाजे शिल्पकार, कृषक और पशुपालन के पारंपरिक पेशों से जुडे सबसे विशाल जन-समूह, जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी के नाम से जाना जाता है; के लिए खुले। इस कारण तमाम दिखावटी आलोचनाओं के बावजूद लोकतंत्र और अपनी चुनी हुई सरकार पर भारत की बहुसंख्यक आबादी का अटूट भरोसा रहा है।

कोविड के दौरान लोकतंत्र पर इसी भरोसे का फ़ायदा उन शक्तियों ने उठाया है, जो लोकतंत्र के नका़ब को बरक़रार रखते हुए एक ऐसे वैश्विक आर्थिक साम्राज्य की स्थापना करना चाह रही हैं, जिसमें मुद्रा राष्ट्र-राज्यों से मुक्त होकर कॉरपोरेशनों के हाथ में आ जाए। उन्होंने उस तंत्र को अपने प्रभाव में ले लिया है जो शासन-व्यवस्था को चलाने वाली रक्त-वाहिनियों और धमनियों को नियंत्रित करता है। ढुलमुल मध्यवर्गीय चरित्र वाले वेतनभोगी, पेशेवर विशेषज्ञ और नौकरशाह इस टोली में शामिल रहते हैं, जिसे दिशा देना राजनीतिक नेतृत्व का काम माना गया था। भारत जैसे देशों में वंशवाद के कारण प्रखर बौद्धिक ओज व दृढ संकल्प वाले व्यक्तियों का राजनीति में आना लगभग ख़त्म हो चुका है, जिसके कारण लोकतंत्र की वह परिकल्पना मृत हो चुकी है। अलग-अलग देशों में इसके कुछ अलग-अलग कारण हैं, लेकिन इतना तय है कि वंशवाद से पीड़ित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इन्हीं लाशों का एक नमूना है। तीसरी दुनिया के देशों में इसके अनेक नमूने हैं, ख़ासकर दक्षिण एशिया में।

बहरहाल, भारत में इस दौरान जो कुछ भी हुआ है वह जितना सरकार की नीतियों के कारण संभव हो सका है, उतनी ही इसमें कांग्रेस की भी भूमिका है। कांग्रेस ने महामारी पर मावनीय स्टैंड लिया होता और जनता के पक्ष के इन नीतियों का विरोध किया होता तो ऐसी तबाही नहीं होती, जिसे आज देश भुगत रहा है। कांग्रेस और भाजपा के वोटरों के सामाजिक आधार में भले ही कुछ अंतर हो, लेकिन सांस्कृतिक और आर्थिक नीतियाँ दोनों की समान हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें तो सभी दलों की आर्थिक नीतियाँ लगभग समान हैं और सांस्कृतिक नीतियों के मामले में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी उन्हीं के साथ खड़ी हैं।

पूरी दुनिया और भारत जिस त्रासदी से आज जूझ रहा है, उसके संबंध में किसी भारतीय राजनीतिक दल ने अपना कोई स्टैंड घोषित नहीं किया है। सभी सत्ताधारी पार्टी की रस्मी आलोचना तक ही सीमित हैं। उनके पास न कोई अपना कोई मौलिक रास्ता है, न कोई दृष्टि।

कोविड से संबंधित बुनियादी सवालों को उठाने के मामले में अब बहुत देर हो चुकी है। एक महामारी के रूप में सामने आया कोविड अब वैश्विक स्तर पर आस्था का सवाल बन चुका है। पिछले एक साल में मैंने इस विषय पर कई लेख लिखे हैं। अब मैं मित्रों को कहता हूँ कि भगवान, भूत और कोविड आस्था और विश्वास का मामला है। जेल जाने का ख़तरा उठाते हुए इसके विरोध में लिखा तो जा सकता है, लेकिन इन पर समाज में, मित्रों के बीच बात करना बहुत कठिन बना दिया गया है।

झूठे, भ्रामक और बनावटी तथ्यों का ऐसा अंबार खड़ा कर दिया गया है जिसमें सत्यता, तर्क और विवेक गहरे दबते जा रहे हैं। विज्ञान की इस क़ब्रगाह को बहुत तेज़ी से कॉरपोरेशनों और विशेषज्ञ-संस्थाओं में आस्था और विश्वास पैदा करने वाले लैंप-पोस्ट की एक विशाल मीनार के रूप में खड़ा किया जा रहा है। सत्ता की बंदूक़ उसकी पहरेदारी कर रही है।

इस सबकी शुरुआत चाहें जैसे भी हुई हो, लेकिन अब यह स्पष्ट है कि विज्ञान को आस्था में बदलने की एक प्रक्रिया को सुनियोजित तरीक़े से अंजाम दिया जा रहा है। इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर तकनीक आधारित कीमियागिरी का प्रयोग हो रहा है। जैसा कि पिछले दिनों भारतीय अरबपति अनिल अंबानी के बड़े बेटे जय अनमोल अंबानी ने कहा है कि "कोविड हमारे समय का नया हठधर्मी धार्मिक पंथ है।"

अनमोल की पहचान मीडिया से दूरी बनाकर रहने वाले युवा अरबपति की रही है। पिछले कुछ समय से वे कोविड को 'Pandemic' (महामारी) की जगह 'Scamdemic' (महाघोटाला) कहते हुए लगातार ट्वीट कर रहे हैं, जिसे उनकी मूर्खता और वामपंथी रुझान के रूप में चिन्हित किया जा रहा है। (हालाँकि यह इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक ओर वामपंथी पार्टियाँ जनता को ग़ुलाम बनाने वाली इन कार्रवाईयों की प्रत्यक्ष-परोक्ष हिमायत में लगी रहती हैं और दूसरी ओर मीडिया में एक अरबपति के युवा बेटा को वामपंथी विचारों से प्रभावित बताकर भला-बुरा कहा जा रहा है। कांग्रेस और समाजवाद से जुड़े बुद्धिजीवी उसे भाजपा-समर्थक बता रहे हैं।)

बहरहाल, भाजपा इस नये धर्म के अधिकाधिक प्रसार में अपना भला देख रही है तो कांग्रेस भी चाहती है कि कहीं राम मंदिर की तरह ही वह इस नये धर्म के समर्थन में भी भाजपा से पिछड़ न जाए।

ऐसे घटाघोप में हम क्या करें? आप पूछ सकते हैं कि हम किस पर भरोसा करें, किस पर नहीं। इसके उत्तर में नॉम चोमस्की का एक चर्चित कथन है, जिसे अनमोल अंबानी ने हाल ही में कोविड के संदर्भ में री-ट्वीट किया है। चोमस्की का कहना है "कोई भी आपके दिमाग़ में सच्चाई उड़ेलने वाला नहीं है। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे आपको अपने लिए ख़ुद तलाशना होगा।"

[ प्रमोद रंजन असम में रहते हैं। 'साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'शिमला-डायरी' आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।]

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