बिहार में बाढ़, बेकारी और भूख की चपेट में आई जनता सड़कों पर, लेकिन देश में चर्चा का यह कोई मुद्दा नहीं
बिहार में बाढ़ से हालात गंभीर हैं, 73 लाख से ज्यादा की आबादी पीड़ित है, कोरोना की मार अलग से है, घर-बार सहित सबकुछ डूबने के बाद जान बचाकर इधर-उधर शरण लिए लोगों को भोजन-पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है, आर्थिक रूप से पहले से कमर टूटी हुई है...
जनज्वार ब्यूरो, पटना। बिहार में बाढ़ से त्राहिमाम की स्थिति है। 73 लाख से ज्यादा की आबादी बाढ़ से प्रभावित है। लोगों के जान-माल पर संकट है। सड़कों, बांधों, घरों की छतों जैसे ऊंचे स्थानों पर शरण लेकर लोग जान बचाए हुए हैं। जहां भी लोग शरण लिए हुए हैं, उसके चारों ओर पानी ही पानी है। न कहीं आ सकते हैं, न कहीं जा सकते हैं। बाढ़ में घिरे लोगों को भोजन-पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में हालात बहुत खराब हैं।
इधर पिछले कुछ दिनों में बाढ़ पीड़ितों द्वारा हंगामा, सड़क जाम और पुलिस से उलझ जाने जैसी कई घटनाएं सामने आईं हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि आखिर ऐसी घटनाएं हो क्यों रहीं हैं।
कहां-कहां हो चुके हैं हंगामे
पिछले दो-तीन दिनों में मुजफ्फरपुर, सारण आदि जिलों में बाढ़ पीड़ितों द्वारा विरोध प्रदर्शन औऱ सड़क जाम आदि की ऐसी घटनाएं हुईं हैं। मुजफ्फरपुर के गायघाट और सकरा प्रखंडों में ग्रामीणों ने सड़क जाम किया। सकरा में तो ग्रामीण उग्र हो गए और जाम छुड़ाने गए पुलिस बल के साथ उनकी झड़प हो गई, जिसमें स्थानीय थानाध्यक्ष समेत कई पुलिसकर्मी घायल हो गए। वहीं सारण के अमनौर प्रखंड में भी बाढ़ पीड़ितों ने प्रखंड-सह-अंचल कार्यालय का घेराव कर आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन किया। सारण के मशरक में तो बाढ़ पीड़ितों ने एक पदाधिकारी और स्थानीय मुखिया को जबरन साथ लेकर पानी में डूबे पूरे गांव में घुमाया और बाद में बंधक भी बना लिया। काफी प्रयास के बाद वे मुक्त हो सके थे।
तमाम प्रदर्शनों के पीछे कारण लगभग एक जैसे
हमने ऐसी घटनाओं का कारण सनझने की कोशिश की। हमने कई बाढ़ प्रभावित इलाकों में जाकर जमीनी हकीकत समझने की कोशिश की, बाढ़ पीड़ितों से बात कर उनकी समस्याओं के मूल में जाकर फुट रहे इस आक्रोश की कड़ियां तलाशने का प्रयास किया। अगर इन घटनाओं पर गौर करें, तो विरोध प्रदर्शन की ऐसी तमाम घटनाओं के पीछे कारण लगभग एक जैसा ही सामने आता है। बाढ़ पीड़ितों तक जरूरी राहत का नहीं पहुंच पाना और खाने-पीने की हो रही दिक्कत इसका मुख्य कारण सामने आता है।
क्या हैं ग्राउंड स्तर के हालात और क्या कहते हैं पीड़ित
अमनौर प्रखंड के हरनारायण पंचायत निवासी रामनाथ राय का गांव पूरी तरह डूब चुका है। किसी तरह भागकर परिवार सहित बांध पर शरण लिए हुए हैं। वे पहले गुड़गांव की एक फैक्ट्री में काम करते थे। कोरोना के लॉकडाउन के दौरान फैक्ट्री बंद हो गई। पहले लॉकडाउन के दौरान वे इस इंतजार में वहीं टिके रहे कि 21 दिनों के बाद लॉकडाउन खत्म होगा तो फैक्ट्री चालू हो जाएगी, पर लॉकडाउन आगे बढ़ता रहा तो तीसरे लॉकडाउन के दौरान किसी तरह पैदल और किसी-किसी से लिफ्ट लेकर घर आ गए। तब से यहीं हैं।
घरों के कमाऊ सदस्यों के बेरोजगार हो जाने से आय के स्रोत हुए बंद
रामनाथ राय ने कहा 'कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन से दूसरे प्रदेशों में कमाकर घर चलाने वाले कमाऊ लोग वापस आए और यहां आकर बेरोजगार हो गए, जिससे आय का स्रोत बंद हो गया। गांवों में छोटे-मोटे काम, व्यवसाय भी कोरोना के भय और लॉकडाउन के कारण ठप्प हो गए। लॉकडाउन के कारण गांवों के कारीगरों, नाइयों, कपड़े धोने के काम करने वालों, फर्नीचर आदि बनाने वालों, पल्लेदारी और दैनिक मजदूरी करने वालों के रोजगार लंबे समय तक प्रभावित रहे, अभी भी प्रभावित ही है। इस कारण लोगों को पहले से ही आर्थिक तंगी थी और किसी तरह पेट भरने का जुगाड़ बस कर पा रहे थे। किसानों ने कर्ज आदि का जुगाड़ कर खेती-बाड़ी की थी, जो बाढ़ में डूब गई। अचानक आई बाढ़ के कारण घरों में जो भी राशन-अनाज रखे थे, वे डूब कर नष्ट हो गए।'
हालांकि सरकारी स्तर पर मुफ्त और सस्ते अनाज पिछले कुछ समय से लोगों को जरूर उपलब्ध कराए जा रहे हैं, पर ये योजनाएं अभी भी बड़ी संख्या में लोगों की पहुंच से दूर हैं।
राशनकार्ड है नहीं, अबतक एक छंटाक भी कहीं से राशन नहीं मिला
जैसा कि छपरा शहर के रतनपुरा मुहल्ला की निवासी संगीता देवी कहतीं हैं 'वे प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के लिए टाइ और बेल्ट बनाने वाले एक प्रतिष्ठान में काम करतीं हैं। लॉकडाउन में स्कूल बंद होने के कारण यहां भी काम बंद हो गया। अब बेरोजगार हैं। किराए के मकान में रहतीं हैं। राशनकार्ड नहीं बना है। इस कारण कहीं से न तो एक छंटाक मुफ्त और न ही सस्ता राशन मिल पाया है। अप्रैल महीने में राशनकार्ड के लिए कुछ लोग फॉर्म भी भरकर ले गए, पर राशनकार्ड अबतक नहीं बन पाया है।' ऐसी समस्या राज्य में लाखों लोगों के सामने है।
परसा नगर पंचायत निवासी मोहम्मद कलीमुल्ला ने हालिया समस्या को लेकर कहा 'घर-बार डूबने के बाद जहां-तहां खानाबदोशों की तरह प्लास्टिक-तिरपाल के अस्थायी छतों के सहारे जीवन रक्षा की जद्दोजहद कर रहे हैं। हमारे सामने दो जून का भोजन, साफ पानी और शौचालय का इंतजाम एक बड़ी समस्या हो गई है।'
लॉकडाउन ने आर्थिक तौर पर तोड़ दी है कमर
रामनाथ की कहानी कोई इकलौती नहीं है, हर बाढ़ पीड़ित इलाकों में लोगों की यही आम समस्या है। चाहे सारण हो या दरभंगा या फिर चंपारण। लिहाजा भूख-प्यास और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में तड़प रहे लोगों में आक्रोश फूट जा रहा है, जो ऐसी घटनाओं का कारण बन रहा है। वैसे कहीं-कहीं इसके पीछे लोकल पॉलिटिक्स की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता, हालांकि वैसे मामले इक्का-दुक्का हो सकते हैं।
क्या हैं सरकार के दावे?
अब बात इन बाढ़ पीड़ितों को राहत के लिए किए जा रहे सरकारी दावे की। सरकार का दावा है कि पर्याप्त संख्या में रिलीफ कैंप और कम्युनिटी किचेन का संचालन किया जा रहा है, पर ये बिल्कुल ही नाकाफी साबित हो रहे हैं। सरकार द्वारा जारी आंकड़े ही इनकी कहानी कह रहे हैं।
सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट हो जा रही स्थिति
राज्य आपदा विभाग द्वारा 8 अगस्त को बाढ़ को लेकर जारी किए गए ताजा आंकड़ों का विश्लेषण करें तो सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। इस आंकड़े के अनुसार राज्य के 16 जिले बाढ़ से प्रभावित हैं। इन जिलों की 73 लाख 22 हजार 295 लोग बाढ़ से प्रभावित हैं। राज्य के बाढ़ प्रभावित इलाकों में 1342 कम्युनिटी किचेन चलाए जा रहे हैं, जिनमें 9 लाख 86 हजार 900 लोग भोजन कर रहे हैं। इसके अलावा राज्य में 7 राहत शिविर चल रहे हैं, जिनमे 11849 बाढ़ पीड़ित शरण लिए हुए हैं।
..तो यह है ग्राउंड पर स्थिति, 73 लाख पीड़ित और राहत तक पहुंच 10 लाख की
सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि धरातल पर स्थिति क्या है। जहां 73 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हैं, वहां लगभग 10 लाख लोगों को ही सरकारी राहत कैंप में रहने और सामुदायिक किचेन में भोजन की सुविधा उपलब्ध है, शेष 63 लाख बाढ़ प्रभावित खुद के और ऊपरवाले के भरोसे हैं, वह भी तब, जब पहले से ही कोरोना लॉकडाउन और बाढ़ के कारण आर्थिक रूप से उनकी कमर टूट चुकी है।