स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) पर विशेष : देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता
सडकों पर राष्ट्रध्वज बेचना हमारे प्रधानमंत्री के शब्दों में आपदा में अवसर और आत्मनिर्भर भारत की पहचान है....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। इन दिनों शहरों में सड़कों के किनारे तिरंगा बेचने वाले पसर जाते हैं और इन्हें देखकर आप बहुत कुछ समझ सकते हैं। देश की आजादी के प्रतीक चिह्न को बेचने वालों का आरती और सामाजिक स्तर देखकर आप बहुत कुछ सीख सकते हैं और जान सकते हैं कि देशप्रेम की अलख जगाने वालों का आर्थिक स्तर देश की आबादी का सबसे निचला स्तर है।
हो सकता है कुछ लोगों को देश की आजादी के प्रतीक को सड़क किनारे बेचे जाने पर आपत्ति हो, पर ऐसे लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि इस देश की सरकार ने स्वयं देश को बिकाऊ बना दिया है। देश के आकाओं को बेचने की ऐसी लत लग गयी है कि विरोध करने वालों को संसद के अन्दर गुंडों से पिटवाया जाता है।
आज के दौर में देश की संपत्तियों का बिकना या फिर इन्हें उपहार स्वरूप पूंजीपतियों को देना ही एक नए किस्म का राष्ट्रवाद है और सरकार गर्व से बताती है कि यही आजादी का उत्सव भी है। आखिर सडकों पर राष्ट्रध्वज बेचना हमारे प्रधानमंत्री के शब्दों में आपदा में अवसर और आत्मनिर्भर भारत की पहचान है।
आजादी पर बहुत सारी कवितायें लिखी गईं हैं, जिनमें को कुछ को यहाँ प्रस्तुत किया गया है। सुब्रमण्यम भारती तमिल भाषा में महाकवि, लेखक, पत्रकार, समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी मृत्यु वर्ष 1921 में हो गयी थी। भारती ने आजादी के बहुत पहले एक कविता लिखी थी, आजादी का एक पल्लु। पल्लु तमिल जनजाति का एक लोकनृत्य है, जो ख़ुशी के मौके पर किया जाता है। इस कविता में वह विचारधारा है, जो स्वतंत्रता सेनानियों के मन में थी, उनके सपने हैं जो आजाद भारत से उन्होंने बुने थे। मूल तौर पर तमिल में लिखी इस कविता का हिंदी अनुवाद अनिल जनविजय ने किया है।
आजादी का एक पल्लु
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
आज़ादी ले ली है हमने, इसकी ख़ुशी मनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
वे दिन अब दूर हुए जब ब्राह्मण मालिक कहलाता
जब गोरी चमड़ी वाला कोई बनता था हमारा आका
जब झुकना पड़ता था हमको उन नीचों के आगे
धोखे से गुलाम बनाकर हम पर जो गोली दागे
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
आज़ादी ले ली है हमने, इसकी ख़ुशी मनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
आज़ादी ली है हमने, बात हमारे हक़ की
अब हम सभी बराबर हैं, यह बात हो गई पक्की
विजयघोष का शंख बजाकर चलो, विश्व को बतलाएँ
आज़ादी ले ली है हमने, इसकी ख़ुशी मनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
आज़ादी ले ली है हमने, इसकी ख़ुशी मनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
बहा पसीना तन का अपने, जो खेतों में मरता
उठा हथौड़ा, कर मज़दूरी, उद्योगों में खटता
उसकी जय-जयकार करेंगे, हम उस पर सब कुछ वारें
जो हराम की खाता है, उसको हम धिक्कारें
नहीं झुकेंगे, नहीं सहेंगे, शोषण को मार भगाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
आज़ादी ले ली है हमने, इसकी ख़ुशी मनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
अब यह धरती हमारी ही है, हम ही इसके स्वामी
इस पर काम करेंगे हम सब, हम हैं इसके हामी
अब न दास बनेंगे हम, न दबना, न सहना
जल-थल-नभ का स्वामी है जो, उसके होकर रहना
केवल उसको मानेंगे हम, उसको ही अपनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
आज़ादी ले ली है हमने, इसकी ख़ुशी मनाएँ
आओ नाचें और पल्लु गाएँ
कवि संजीव सारथी की एक कविता है, आजादी। इस कविता में अंग्रेजों से आजादी के बाद गुलामी की घंटियों को उतार फेंकने की बात भी है और आजादी के बाद देश के हालात पर भी चर्चा है। आजादी के बाद आने वाले वर्षों में कैसे जनता की उम्मीदें टूटती चली गईं, इसके बारे में भी बताया गया है।
आजादी
उस आधी रात को,
एक जगी हुई कौम ने,
उतार फेंकी गुलामी की घंटियाँ,
अपने गले से,
और काट डाली,
जंजीरें अपने पैरों से,
मिला सालों की तपस्या का
वरदान - आजादी
उम्मीद थी कि जल्दी ही उतर जायेगी,
रात की चादर,
और जागेगी एक नयी सुबह-
सपनों की, उम्मीदों की, उजालों की।
मगर रात...
रात कटी नही अब तक,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
नज़र आते हैं इन अंधेरों में भी मगर,
किसानों के बच्चे जो भूखे सो गए,
गरीब बेघर कितने
वहाँ पड़े फुटपाथों पे, चिथड़ों में,
सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,
आहें उन नौजवानों की,
जिनके कन्धों पर भार हैं,
मगर "बेकार"हैं,
चीखें उन औरतों की,
जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं,
वासना भरी नज़रों का
झेलती रोज बलात्कार हैं,
चकलों में, चौराहों में शोर है,
ज़ोर है- ज़ोर का राज है,
हैवान सडकों पर उतर आये,
सिंहांसनों पर विराज गए,
अवाम सो गयी,
नपुंसक हो गयी कॉम,
हिंदुओं ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,
तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,
किसी बेबस माँ ने
बेच दी अपनी कोख कहीं तो,
किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,
अपने ही लक्ते-जिगर को,
उफ़ ये अँधेरा कितना कारी है
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,
चमक जाते हैं कुछ जुगनू राहत बन कर,
और कुछ मुट्टी भर सितारे,
चमक रहे हैं यूं तो,
मेरे भी मुल्क के आसमान पर,
मगर फिर भी,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
जुगनू नही, तारे नही,
आफताब चाहिए,
जिसकी रौशनी में चमक उठे,
जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,
जिसकी पुकार से नींद टूटे,
सोयी रूहों की,
पंछियों को गीत मिले,
बच्चों को खुला आसमान दिखे,
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दीये,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब
एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है...
कवि दिविक रमेश की एक कविता है, गुलाम देश के मजदूर। यह कविता हमें सोचने पर मजबूर करती है कि जिस आजादी पर हम इतना इतराते हैं वही आजादी क्या हमारे देश के श्रमिकों को भी मिली है?
गुलाम देश का मजदूर
एक और दिन बीता
बीता क्या
जीता है पहाड़-सा
अब
सो जाएँगे
थककर
टूटी देह की
यह फूटी बीन-सी
कोई और बजाए
तो बजा ले
हम क्या गाएँ?
हम तो
सो जाएँगे
थककर
कल फिर चढ़ना है
कल फिर जीना है
जाने कैसा हो पहाड़?
फिर उतरेंगे
बस यूँ ही
अपने तो
दिन बीतेंगे
सच में तो
ज़िन्दगी भर हम
अपना या औरों का
पहाड़ ही ढोते हैं।
बस ढोते रहते हैं
सुना है
हमारी मेहनत के गीत
कुछ निठल्ले तक गाते हैं
सुना है
हमारे भविष्य की कल्पना में
कुछ जन
कराहते हैं
कुछ तो
जाने किस उत्साह में
हमारे वर्तमान ही को
हमसे झुठलाते हैं
हमारा भविष्य तो
खुद
हमारा बच्चा भी नहीं होता
पेट में ही जो
ढोने लगता हो ईंटें
पेट में ही जो
मथने लगता हो गारा
पेट में ही जिसको
सिखा दिया हो
सलाम बजाना
पहले ही दिन से
खुद जिसने
शुरू कर दिया हो
कमाना
कोई स्वप्न गुनगुनाए
तो गुनगुना ले
वर्ना
हमारा बच्चा भी
हमारा भविष्य
नहीं होता
होता होगा
होगा किसी का भविष्य
किसी के देश का
किसी के समाज का
लेकिन
हमारा नहीं होता
होगा भी कैसे
हमारी परम्परा में
खुद हम कभी
अपना
भविष्य नहीं हुए
हम तो बस
सीने पर रख
महान उपदेशों को
सो जाते हैं
थककर
इतना ही क्या
काफी नहीं
कि एक दिन और
बीत गया
पहाड़-सा
अब रात आयी है
सुख भरी रात
कौन गंवाए इसे
सुबह तो ससुरी
रोज
भूख ही लगाती है
क्यों करें प्यार
फिर ऐसी सुबह से?
कैसे थिरक उठे पाँव
कैसे गाएँ ये कंठ
कैसे मनाएँ खुशियाँ
सरकारी उत्सवों में
नाचते
नचभैयों-से
कहाँ है आजाद
यह गुलाम देश
और कहाँ हैं आजाद
ये हम?
आजादी की परख
देश की सुबह से होती है
और सुबह तो हर रोज
काम पर
भूखा ही भगाती है
पर चलो
एक दिन और बीता
बीता क्या
जीता है पहाड़-सा
अब
सो जाएँगे
थककर
प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक और कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है, देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता। सक्सेना जी की कविताओं की सादगी और सीधे-सादे शब्द ही विशेषता है। इस कविता में सर्वेश्वर जी ने एक तरीके से आजादी और लोकतंत्र का खाका खींचा है।
देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।