चाय की प्याली में दुनिया को बदलने की ताक़त है...
चाय पर चर्चा कभी बहुत गंभीर साहित्यिक विमर्श का एक स्वरूप होता था, पर अब तो चाय पर चर्चा करने वाले केवल मन की बात करते हैं...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। चाय अजीब है, एक तरफ तो यह गुलामी का प्रतीक है तो दूसरी तरफ पूरे देश की एकता का भी ऐसा प्रतीक है - जिसने हमारे जीवन के साथ ही फिल्मों, साहित्य और कला की अन्य विधाओं को भी खूब प्रभावित किया है। यह हमारे देश को अंग्रेजों की देन है और अंग्रेजों ने हमें गुलाम रखा था। चाय की गुलामी अभी तक गयी नहीं है, अंग्रेज तो चाय छोड़कर चले गए पर अब तो चाय बेचने का दावा करते हुए लोग ही हमें गुलाम बना चुके हैं।
चाय एकता का प्रतीक इसलिए है क्योंकि इसकी दुकानें यह देश के हरेक कोने में आसानी से उपलब्ध है। चाय समाजवाद का भी प्रतीक है – इसके दाम आज भी सबके लिए सहज हैं। चाय पर चर्चा कभी बहुत गंभीर साहित्यिक विमर्श का एक स्वरूप होता था, पर अब तो चाय पर चर्चा करने वाले केवल मन की बात करते हैं।
रेल का सफ़र और चाय में अटूट रिश्ता है। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि लगभग सभी यात्री यह जानते हुए भी कि चलती ट्रेन में चाय बकवास होगी, इसके बाद भी जरूर पीते हैं। अब तो यह एक विश्वविख्यात तथ्य है कि चलती ट्रेन में चाय बेचने वाले अच्छे अभिनेता और दबंग होते हैं। चलती ट्रेन में जिसने चाय बेचने के गुण सीख लिए, वह देश के स्वाभिमान के साथ की पूरे देश को भी हमारी आँखों के सामने नीलाम कर सकता है।
चाय सीधे तौर पर भले ही साहित्य का अभिन्न अंग न रही हो, पर छोटी चाय की दुकानों पर बैठे-बैठे या खड़े-खड़े लेखकों ने असंख्य कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और नाटकों की रूपरेखा तैयार की होगी। हिंदी फिल्मों में राजकपूर की प्रसिद्ध फिल्म श्री 420, शायद पहली फिल्म होगी जिसमें एक साधारण और सामान्य चाय की दुकान जो लगभग पूरे भारत में देखी जाती है – को कहानी का एक अभिन्न हिस्सा बनाया गया था। संजीव कुमार की फिल्म, पति पत्नी और वो, में संजीव कुमार ने अपने ही अंदाज में चाय को सामान्य जन का और कॉफ़ी को संभ्रांत वर्ग का पेय बताया था। फिल्म सौतन में राजेश खन्ना और टीना मुनीम पर फिल्माया गया एक प्रसिद्ध गाना भी था, "शायद मेरी शादी का ख्याल दिल में आया है, इसीलिए मम्मी ने मेरी तुझे चाय पर बुलाया है"।
चाय को लेकर अनेक हिंदी कवितायें लिखी गयी हैं। कवि राजकिशोर सिंह की एक कविता है, 'एक कप चाय' इस कविता में उन्होंने चाय से सम्बन्धित हरेक सामाजिक आयाम का समावेश किया है।
एक कप चाय/राजकिशोर सिंह
एक कप चाय
दूध चीनी का केवल घोल नहीं
प्रेम का उपहार है
अतिथियों का स्वागत
आगंतुकों का सत्कार है
एक कप चाय
कुछ नहीं
केवल वार्ता का बहाना है
बराबरी का सूचक यह
प्रेम का ठिकाना है
धनवानों की चाय
गरीबों के लिए उपहार
धनहीनों की चाय
अमीरों का सत्कार
इस अफरा-तफरी संसार में
जहाँ मितव्ययता का बोल-बाला है
वहाँ अतिथियों के स्वागत में
सबसे आगे चाय का प्याला है
थके मांदो का पंथ यह
बूढ़ों की स्फूर्ति है
सभ्यता का प्रतीक यह
भावों की सच्ची प्रतिमूर्ति है
चाय एक बहाना है
मित्रों को घर बुलाने का
घूँट-घूँट में प्यार भरा है
और प्यार लुटाने का
चाय एक मानक है
मानव जीवन स्तर का
कौन बड़ा है, कौन छोटा
और नीचे-ऊपर का
बन जाती अमृत यह
जहाँ प्रेम का होता रूप
बन जाती वही जहर
अगर उपेक्षा की हो धूप
चाय अगर मिली नहीं
गर किसी के दरबार में
उड़ने लगती खिल्ली उसकी
इस भौतिक संसार में।
कवियत्री वत्सला पाण्डेय ने अपनी कविता, 'एक प्याली चाय' में बड़े कम शब्दों में एक प्याली चाय के महत्त्व को दर्शाया है—
एक प्याली चाय/वत्सला पाण्डेय
एक प्याली चाय
दोस्तों के साथ हो, तो गप्पे हो जाती है
एक प्याली चाय
नातेदारों के साथ हो तो घर के मसले हल हो जाते है
एक प्याली चाय
ऑफिस की टेबल पर हो तो फाइलें निपट जाती है
और एक प्याली चाय
तुम्हारे साथ हो तो, मैं सब कुछ भूल जाती हूँ
दिनभर की पीड़ा, चिंता और थकन
एक प्याली चाय...
कवि अनिमेष मुखर्जी ने अपनी छोटी कविता का नाम भले ही बनारस रखा हो, पर इसमें उन्होंने दो प्याली चाय का सामंजस्य बनारस से स्थापित किया है :
बनारस/अनिमेष मुखर्जी
दो प्याली चाय
कुछ किस्से
और तुम्हारी हँसी चखकर
न जाने क्यों
असी की शाम
याद आती है
न तुम साकी
न मैं ग़ालिब
बस बातों-बातों में
ये ज़िन्दगी
बनारस हो जाती है।
कवि योगेन्द्र कृष्णा ने अपनी कविता, चाय के बहाने, में शीर्षक के अनुरूप चाय के बहाने पूरे समाजवाद और पूंजीवाद को परिभाषित करने के साथ ही चाय बनाने की प्रक्रिया के सौंदर्यशास्त्र का भी खूबसूरती से बखान किया है।
चाय के बहाने/योगेन्द्र कृष्णा
कुछ लोग
शहर के पंच-सितारा होटलों
रेस्तराओं में बैठ कर
चाय नहीं पीते
अपने से कमतर
आम आदमी से
बहुत अलग
और ख़ास दिखने का
सुखद अहसास पीते हैं वे
पीते हैं वे
उनकी बदहालियों
से अपने भीतर पैदा हुई
खुशहालियां
उनकी उस चाय में
मिठास की जगह
घुल रहा होता है
दूसरों की पीड़ा और बेचारगी से
पूरी तरह निस्संग
और उदासीन रहने का सुख
क्योंकि
उनकी प्यालियों के आसपास
चूल्हे पर उबलते दूध की
सोंधी खुशबू नहीं होती
और नहीं होता
खुला आसमान धुआं और पसीना...
धूल मिट्टी पेड़ हवा
और ढावों के आसपास खेलते
हंसते-खिलखिलाते
नंग-धड़ंग बच्चे भी नहीं होते वहां
वो जगहें
उनकी मोटी अभेद्य खोल होती हैं
जिसके भीतर वे बार-बार
घुसते और निकलते हैं
जहां बंद कमरे की एसी
से निकलता जहर
और बार गर्ल्स की व्यापारिक मुसकाने
उनकी चाय की प्याली में
तूफान खड़ा करती है
और वे
साफ शफ्फाफ कपड़ों में भी
नंगे नजर आते हैं
इसीलिए…
इसीलिए शायद
उनके खोल के बाहर निकलते ही
नंग-धड़ंग ये बच्चे
उनकी नंगई पर हंसते हैं...
कवि सलिल तोपासी की एक कविता है, 'वे मजदूर अब नहीं दिखते' इस कविता में कवि ने चाय पीते मजदूरों को याद करते हुए बेरोजगारी तक का सफ़र तय कर डाला है।
वे मजदूर अब नहीं दिखते/सलिल तोपासी
बासी रोटी और पुदीने की चटनी को
हज़म करने के लिए
एक प्याली फीकी चाय
इसी से गुज़रता
मज़दूरों का दिनचर्या
तपते सूरज की गर्मी से
या वर्षा की मोटी-मोटी बूँदें
सहन करते
जोते-बोए, हरा-भरा किया इस धरती को
वे मज़दूर, अब नहीं दीखते।
जंगल सा बन-बैठा है ज़मीन का टुकड़ा
आखिर किस की शाप लग गई है?
और कुछ नहीं वे मज़दूर, अब नहीं दीखते!!!
मज़दूरों की बेटियों की शादी में
अब हमें बुलाया नहीं जाता
हँस्वा, सान्दोकान की जगह जो
ले ली है मशीनों ने।
कवि महाराज कृष्ण संतोषी ने अपनी कविता 'दुनिया को बदलने की ताकत' में चाय को ऐसा माध्यम माना है जिसमें दुनिया को बदलने की ताकत है —
दुनिया को बदलने की ताकत/महाराज कृष्ण संतोषी
चाय पीते हुए
मुझे लगता है
जैसे पृथ्वी का सारा प्यार
मुझे मिल रहा होता है
कहते हैं
बोधिधर्म की पलकों से
उपजी थीं चाय की पत्तियाँ
पर मुझे लगता है
भिक्षु नहीं
प्रेमी रहा होगा बोधिधर्म
जिसने रात-रात भर जागते हुए
रचा होगा
आत्मा के एकान्त में
अपने प्रेम का आदर्श।
मुझे लगता है
दुनिया में
कहीं भी जब दो आदमी
मेज़ के आमने-सामने बैठे
चाय पी रहे होते हैं
तो वहां स्वयं आ जाते हैं तथागत
और आसपास की हवा को
मैत्री में बदल देते हैं
आप विश्वास करें
या नहीं
पर चाय की प्याली में
दुनिया को बदलने की ताक़त है...।
इस आलेख के लेखक ने भी चाय और चाय की प्याली को मानव जीवन से जोड़ते हुए एक कविता लिखी है, चाय की प्याली।
चाय की प्याली/महेंद्र पाण्डेय
जिंदगी चाय की प्याली है
भरी रहती है, फिर
धीरे-धीरे खाली हो जाती है
कभी मीठी होती है,
कभी फीकी रह जाती है
कभी रंग खिलता है
कभी बदरंग हो जाती है
और, कभी-कभी तो
काली भी रह जाती है
जिन्दगी चाय की प्याली है
कभी खुद बनाते हैं
सबका अनुपात-समानुपात
मनमर्जी से रखते हैं
बाहर खरीदते हैं
कुछ कमी रह ही जाती है
जिन्दगी चाय की प्याली है
जिन्दगी सस्ती रह गयी है
इस महंगाई के दौर में
चाय भी सस्ती है
तपती है, उबलती है
फिर भी सुकून देती है
फिर, प्याली खाली हो जाती है
धो-पोंछ कर सजा दी जाती है
जिन्दगी भी के दिन
अदद खूंटी से लटक जाती है
जिन्दगी चाय की प्याली है
जिन्दगी चाय की प्याली है