वर्णवाद का निषेध आप कर नहीं सकते, फिर किसी तप, तपस्या, पूजा-पाठ से रैदास का क्या काम!

रैदास अपने पेशे और जाति को लेकर आत्महीनता के शिकार न थे, बल्कि अपने पद, बानी और सबद में इसका कई बार उल्लेख कर वह श्रमशील समाज को हेय दृष्टि से देखने की कुसंस्कृति को किनारे लगाते हैं...

Update: 2021-02-27 17:20 GMT

photo : narendramodi.in

वरिष्ठ लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा का विश्लेषण

जनज्वार। संत रैदास का नाम अपने लाभ- हानि के लिए लेते हुए, उन्हें दैवीय चमत्कारों में उलझा कर वर्णवादी कर्मकांडों में समाहित कर लेने का कुचक्र, इस धरती पर पसरे बहुजन विरोधी अमानवीय संस्कृति का मूल है। रैदास प्रिय हैं तो ऊँच-नीच, वर्णवाद का निषेध हो, उसके लिए संघर्ष हो अन्यथा किसी तप, तपस्या, पूजा -पाठ से रैदास का क्या काम?

मध्यकालीन भारतीय संत परम्परा, अकर्मण संस्कृति का निषेध करती है। श्रम की महत्ता को स्थापित करने का एक संघर्ष है हमारी संत परम्परा। यह अकारण नहीं है कि सारे के सारे संत श्रम करते हुए अपना गुजारा करते हैं। अपना पेशा आजीवन जारी रखते हैं। मुफ्त का माल नहीं खाते। दान-दक्षिणा नहीं मंगाते।

कबीर कपड़ा बुनते रहे, संत सैन ने नाई का पेशा बरकरार रखा, नामदेव ने कपड़े पर छपाई जारी रखी, दादू दयाल ने रुई धुनने का काम नहीं छोड़ा और गुरु नानक ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष खेती करते हुए बिताए। इन सबमें रैदास का पेशा एकदम जुदा था। वह मोची थे। जूते बनाते थे और उसकी मरम्मत भी करते थे। समाज की भाषा में उनकी जाति कथित 'चमार' की थी।

रैदास अपने पेशे और जाति को लेकर आत्महीनता के शिकार न थे। बल्कि अपने पद, बानी और सबद में इसका कई बार उल्लेख कर वह श्रमशील समाज को हेय दृष्टि से देखने की कुसंस्कृति को किनारे लगाते हैं।

आदि ग्रंथ अथवा गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित रैदास जी के कुछ पदों में उनकी जाति का वर्णन इस तरह मिलता है—

ऐसी मेरी जात बिखिआत चमारं, हिरदै राम गोबिंद गुन सारं।

एक अन्य पद में वह कहते हैं—

हम अपराधी नीच घरि जनमे, कुटुंब लोग करै हांसी रे।

कहै रैदास राम जपि रसना, काटै जम की फांसी रे।।

एक पद में तो वह इतना तक कहते हैं—

जाति ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा।

राजा राम की सेव ना कीनी कहि रविदास चमारा।।

अपनी जाति की चर्चा वे सायास नहीं करते। वे अपने आराध्य के साथ लगातार भावपूर्ण संवाद में जब जितनी निकटता पाते हैं, जितना खुलते हैं, जितना विनम्र होते हैं, उनसे इसका जिक्र हुआ चला जाता है। एकबार तो वे गोपीवत प्रेम में डूबकर अपने कृष्ण से कहते हैं—

कहै रैदास सुनिं केसवे अंतहकरन बिचार।

तुम्हरी भगति कै कारनैं फिरि ह्वै हौं चमार।।

(रैदास कहता है कि हे केशव, मेरे अंतःकरण की बात सुनो। तुम्हारी भक्ति की खातिर मुझे एक बार फिर से चमार बनने दो।)

तभी तो सिखों के चौथे गुरु रामदास ने कहा—

साधू सरणि परै सो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ।

नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ।।

(आदि ग्रंथ, अंग-835/6)

सन् 1560 के आसपास ओरछा में जन्म से ब्राह्मण नामधारी एक संत हुए। नाम था हरिराम व्यास। वह कहते हैं -

व्यास बड़ाई छाड़ि कै, हरि चरणा चित जोरि।

एक भक्त रैदास पर, वारूं ब्राह्मण कोरि।।

इतना ही नहीं उन्होंने आगे भी रैदास को अपना सगा घोषित करते हुए कहा—

'इतनौ है सब कुटुम हमारौ, सैन धना अरु नामा पीपा और कबीर रैदास चमारौ।'

और अंत में यह कि जिस यूटोपिया कि परिकल्पना करते हैं रैदास, वह समानता और अपराध शून्य, लगान शून्य, लाचारी, आभाव, राजशाही मुक्त, बिना गम का "बेगमपुरा" है, जहाँ सभी को अन्न मिलता है -

ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न .

छोट बड़ो सब सम बसे, रैदास रहे प्रसन्न

बेगमपुरा सहर का नांऊ।

दुख अंदोह नहीं तिंहिं ठांऊ।

ना तसबीस, खिराज न माल।

खौफ न खता न तरस जवाल .

काइम दाइम सदा पतिसाही।

दोम न सोम एक सो आही।

आवादान (कर्म ) सदा मसहूर।

ऊंहां गनी बसैं मामूर ।

तिंउ-तिंउ सैर करैं जिउ भावै।

मरहम महल न को अटकावै।

कहै रैदास खलास चमारा।

जो उस सहर सों मीत हमारा।

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