गोलियों-डंडों से आंदोलन निपटाने वाली पुलिस किसान सत्याग्रहियों पर कब तक नहीं करेगी हिंसा
दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की भाजपा नियंत्रित पुलिस और अमित शाह के केन्द्रीय पुलिस बल आन्दोलन के दिल्ली प्रवेश को बलपूर्वक रोकने में समर्थ हो सकते हैं, लेकिन राष्ट्र इसके ख़ूनी परिणामों के लिए जिम्मेदार लोगों को शायद ही कभी माफ कर सके...
पूर्व आईपीएस वीएन राय का विश्लेषण
जनज्वार। कुंडली, टीकरी और शाहजहांपुर में जमा किसान जत्थेबंदियों को लेकर हरियाणा पुलिस के अच्छे दिन और कितने दिन चलते रहेंगे, कह पाना मुश्किल है। फिलहाल तो राज्य पुलिस एक संगठित लेकिन पूरी तरह अनुशासित आन्दोलन, जो मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से संचालित है, को लेकर आश्वस्त रही है कि उनका कोई भी सदस्य हिंसक या आपराधिक गतिविधियों की ओर नहीं मुड़ सकता। यहाँ तक कि पुलिसवाले उन्हीं लंगरों में बेझिझक खाते-पीते भी देखे गए हैं जो आन्दोलनकारियों के लिए जन-समर्थन से चलाये जा रहे हैं।
इसी हरियाणा पुलिस ने खट्टर सरकार के पिछले कार्यकाल में राज्य के देहातों से ही निकले दो बेहद हिंसक दौर देखे हैं| 2016 में जाट आरक्षण आन्दोलन के दौरान लगभग एक हफ्ता प्रदेश के एक हिस्से में अराजक तत्वों का राज रहा जबकि कानून-व्यवस्था नदारद दिखी।
लूट, आगजनी और हत्या के उस उबाल को काबू में आने तक लगभग तीन दर्जन लोग जान गँवा बैठे थे। इसी तरह 2019 में राम-रहीम को बलात्कार के आरोप में सजा होने पर उसके अनुयायियों के पंचकुला में तांडव से निपटने में पुलिस बलों की गोलियों से भी लगभग इतने ही लोग मारे गए थे। इस पैमाने की राज्य हिंसा तभी होगी जब सम्बंधित एजेंसियों ने पहले स्थिति पर नियंत्रण खो दिया हो।
उपरोक्त स्थितियों के मुकाबले वर्तमान किसान जमावड़ा न केवल अंतर्राज्यीय स्वरूप वाला है बल्कि इसमें शामिल पुरुष, स्त्री, बच्चों, बूढ़ों की विशाल संख्या भी कानून-व्यवस्था की एजेंसियों को इन्हें रोकने के लिए भारी बल प्रयोग की इजाजत सामान्यतः नहीं देगी। यदि ऐसा होने दिया गया तो परिणाम मोदी शासन के लिए राजनीतिक आत्महत्या सरीखा होगा।
दिल्ली की सरहदों पर भयंकर शीतलहरी के बीच डटा यह अभूतपूर्व किसान आन्दोलन, जो शांतिपूर्ण कलेवर में सातवें हफ्ते में प्रवेश कर चुका है, गांधी के लिए भी ईर्ष्या का सबब कहा जाना चाहिए। लेकिन, डर है, मोदी सरकार से समझौता बैठकों के तमाम दौर बंजर रहने से कहीं इसकी नियति हिंसक दौर की ओर बढ़ने की न होती जाए।
फिलहाल इस आन्दोलन ने, राजधानी की सीमा पर आ धमकने और सरकार से अंतहीन वार्ताओं के क्रम में दृढ़ता दिखाने से अपना दबाव बनाया हुआ है। उसे गति देने के लिए वे गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हजारों ट्रैक्टरों के साथ प्रवेश की घोषणा कर रहे हैं| क्या यह राज्य हिंसा के कहर को खुला अवसर देने जैसा सिद्ध होगा?
गाँधी जी से सारी दुनिया अहिंसा की प्रेरणा लेती है, लेकिन अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध उनके भी सत्याग्रह आन्दोलन हिंसा की चपेट में आने से बच नहीं पाते थे। महज शासकों की दमनकारी हिंसा ही नहीं, स्वयं आन्दोलनकारियों के बीच से भी जब-तब हिंसा फूट पड़ती थी- जलियांवाला बाग, असहयोग, चौरी चौरा, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो, करो या मरो, जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन के तमाम दौर इसके साक्षी रहे।
हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के जमीनी संघर्ष का एक इतिहास रहा है। हरित क्रान्ति की कृषि लहर के आर्थिक और राजनीतिक फायदे उन्हें कहीं से उपहार स्वरूप नहीं पकड़ा दिए गए। समय-समय पर वे भागीरथी आन्दोलनों में उतरे ताकि यह सूखने न पाए। अस्सी के दशक के, हरियाणा में चौधरी देवी लाल के नेतृत्व में उग्र 'रास्ता रोको' आन्दोलन, पश्चिम उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत के गन्ना कीमत को लेकर लम्बे प्रदर्शन और पंजाब में हरचंद सिंह लोंगोवाल के 'धर्म युद्ध' के दूरगामी सबक आज की कॉर्पोरेट राजनीति करने वालों को भी नहीं भूलने चाहिए।
मोदी सरकार की घोषित नीति किसानों की आय दोगुना करने और एमएसपी जारी रखने की है। उसके नीतिकारों को समझना होगा कि इन मसलों पर किसानों की अपनी समझ पक्की हो चुकी है। उन्होंने हड़बड़ी में लाये किसान विरोधी बिलों की वापसी और एमएसपी गारंटी पर अड़े रह कर पीछे जाने के अपने सारे रास्ते बंद कर लिए हैं।
उन्होंने इसे अपने आर्थिक और राजनीतिक वजूद की निर्णायक लड़ाई बना लिया है। दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की भाजपा नियंत्रित पुलिस और अमित शाह के केन्द्रीय पुलिस बल आन्दोलन के दिल्ली प्रवेश को बलपूर्वक रोकने में समर्थ हो सकते हैं, लेकिन राष्ट्र इसके ख़ूनी परिणामों के लिए जिम्मेदार लोगों को शायद ही कभी माफ कर सके।