Tiladi Goli Kand: सरकार द्वारा उपेक्षित है उत्तराखंड का ऐतिहासिक तिलाड़ी शहीद स्थल
Tiladi Goli Kand: यमुना प्रदुषण मुक्ति जन अभियान (18-23 मई, 2022) के दौरान तिलाड़ी के ऐतिहासिक शहीद स्थल पर जाकर शहीदों को नमन् करना हमारे अभियान का एक प्रमुख हिस्सा था। तिलाड़ी को उत्तराखंड के जलियावाला के नाम से भी जाना जाता है। 19 मई को हमने प्रातः 5 बजे देहरादून से तिलाड़ी के लिए अपनी यात्रा शुरु की।
Tiladi Goli Kand: यमुना प्रदुषण मुक्ति जन अभियान (18-23 मई, 2022) के दौरान तिलाड़ी के ऐतिहासिक शहीद स्थल पर जाकर शहीदों को नमन् करना हमारे अभियान का एक प्रमुख हिस्सा था। तिलाड़ी को उत्तराखंड के जलियावाला के नाम से भी जाना जाता है। 19 मई को हमने प्रातः 5 बजे देहरादून से तिलाड़ी के लिए अपनी यात्रा शुरु की।
यमुनोत्री धाम के मार्ग पर सयाना चट्टी के नजदीक मलवा आ जाने कारण मार्ग बंद हो गया था। इस कारण पुलिस यात्रियों को रास्ते में जहां-तहां रोक रही थी। हमारी बस को डामटा में रोक लिया गया। पुलिस अधिकारियों से निवेदन करने के बाद उन्होंने हमें जुगासु के रास्ते तिलाड़ी के ऐतिहासिक शहीद स्थल जाने की अनुमति दे दी। शाम को लगभग 4 बजे हम लोग जुगासु पहुंच गये। स्थानीय नागरिकों से रास्ता पूछने के बाद हम तिलाड़ी शहीद स्थल की तरफ रवाना हुए। शहीद स्थल की दूरी बड़कोट से 6-7 किलोमीटर की है। शहीद स्थल का रास्ता बताने के लिए कहीं भी साईन बोर्ड नहीं लगा है। इस कारण हम 2-3 बार रास्ता भटक गये। एक स्थानीय नागरिक से रास्ता पूछकर हम शहीद स्थल की तरफ आगे बढ़े।
मुश्किल से 1 किमी आगे बढ़ने पर हमें कई कूड़े के ढेर व 2 बड़े-बड़े कूड़ाघर नजर आए जिन पर टिन शेड पड़ा हुआ था। जैसे ही हमारी गाड़ी कूड़ा स्थल के पास पहुंची भयंकर दुर्गंध से हमारा सामना हुआ और हमारी गाड़ी में मक्खियां-ही मक्खियां भर गयीं। रास्ता भी काफी खराब व ऊबड़-खाबड़ था। रास्ते की हालत व गंदगी देखकर हमें एहसास हुआ कि हम पुनः गलत रास्ते पर हैं। हमारे साथियों ने कहा कि उत्तराखंड में सरकार आॅल बैदर रोड बना रही है। और तिलाड़ी जैसा शहीद स्थल इस दुर्गंध भरे ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर तो हो ही नहीं सकता। ये सोचकर हमने जैसे-तैसे अपनी गाड़ी वापस मोड़ ली । और पुनः रास्ते के बारे में तहकीकात करने लगे।
इसी दौरान हमारा सामना बड़कोट नगरपालिका की एक पिकअप से हुआ जो 30 मई के शहीद दिवस की तैयारी के लिए सामान लेकर तिलाड़ी शहीद स्थल जा रही थी। उनसे बात करने के बाद हमनें भी अपनी गाड़ी नगर पालिका का सामान लेकर जा रही पिकअप के पीछे लगा दी। नये व्यक्ति के लिए तो इस शहीद स्थल पर पहुंचना लगभग नामुमकिन है। गूगल भी तिलाड़ी शहीद स्थल का रास्ता नहीं दिखा रहा था। कूड़ाघर को पार करते हुए 3-4 किलोमीटर रोखड़ में गाड़ी चलाने के बाद हम तिलाड़ी के शहीद स्थल पहुंचे।
तिलाड़ी के मैदान पर बने शहीद स्थल पर तिलाड़ी के शहीदों की याद में एक स्तम्भ लगा हुआ है। वहां पर निमार्ण कार्य भी चल रहा था। जिस चबूतरे पर शहीद स्तम्भ लगा है उस पर काफी कूड़ा पड़ा हुआ था। चबूतरे को साफ करने के बाद हमारी टीम के सभी सदस्यों ने शहीदों को पुष्प अर्पित करके नमन किया तथा तिलाड़ी के शहीदों की याद में एक सभा भी की।
तिलाड़ी का गौरवशाली इतिहास
30 मई, 1930 का दिन उत्तराखंड ही नहीं बल्कि भारत के इतिहास का अविस्मरणीय दिन है। इस दिन उत्तराखंड के बड़कोट में स्थित तिलाड़ी के मैदान में अपने अधिकारों के लिए सभा कर रहे आंदोलनकारियों पर राजा नरेन्द्र शाह की फौज ने गोलियां चलाईं। उत्तराखंड के इस जलियांवाला बाग कांड में 200 से अधिक लोग शहीद हुए थे।
इन शहीदों का कसूर मात्र इतना था कि वह ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा लागू किए गये वन अधिनियम 1927 के आने के बाद जनता के जंगलों से लकड़ी, घास व अपनी जरुरत की वस्तुएं लाए जाने व पशु चराने पर लगाए गये प्रतिबंधों के खिलाफ एक सभा कर रहे थे।
अंगे्रजों द्वारा जनता के जंगलों पर अधिकार व हक-हकूक खत्म किए जाने के खिलाफ उत्तराखंड की जंनता के संघर्षों का गौरवशाली इतिहास रहा है। इतिहासकार शेखर पाठक बताते है कि 1921 में जनता के सशक्त प्रतिरोध के कारण अंग्रेजी हुकूमत को 3 हजार वर्ग मील को संरक्षित वन की अधिसूचना रद्द कर उन्हें जनता को वापस करने के लिए मजबूर होता पड़ा था। जंगलों पर अधिकारों के संघर्ष ने जनता के बीच में स्वतंत्रता संग्राम के महत्व को भी स्थापित किया। वन आंदोलनों ने जनता के बीच में राजशाही व ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उततराखंड में जागृति पैदा की।
1927 के वन अधिनियम के आने के बाद टिहरी रियासत का राजा नरेन्द्र शाह ने जनता के जंगलों पर जाने पर पाबन्दियां लगानी शुरु कर दीं। जंगलों की मुनारबंदी करवा दी गयी। जनता के वनों में जाने पर लगे प्रतिबंधों के कारण जंगलों के कच्चे माल से चलने वाले कुटीर उद्योग ठप हो गये। जंगलों से लकड़ी, बांस, रिंगाल और बांगड़ आदि लाने पर प्रतिबंध लगा दिये गये। जंगलों में मवेशी चुगाने पर भी रोक लगा दी गयी। टिहरी रियासत की जनता राजा द्वारा थोपे गये विभीन्न प्रकार के टैक्सों से पहले से ही बेहद दुखी थी।
राजा ने जंगलों की सीमा विस्तार का कार्य शुरु करवाकर किसानों के गाय व पशु चराने के स्थल भी छीन लिए। दुखी किसानों की समस्या का जंगलात के अधिकारियों ने समाधान करने से इंकार कर दिया तथा कहा कि गाय बछियों के लिए सरकार किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं उठाएगी, तुम इन्हें पहाड़ी से नीचे गिरा दो।
इसको लेकर जनता के बीच अंग्रेजी हुकूमत व उसकी दलाल राजशाही के खिलाफ रोष और भी बढ़ गया। जनता ने संगठित होकर अपनी आजाद पंचायत का गठन किया। कन्सेरु गांव के दयाराम, नगाण गांव के भून सिंह व हीरा सिंह, बड़कोट के लुदर सिंह व जमन सिंह व दलपति, भन्साड़ी के दलेबु, चक्रगांव के धूम सिंह, खरादी के रामप्रसाद, खुमन्डी गांव के रामप्रसाद नौटियाल आदि के नेतृत्व में क्षेत्र की जनता संगठित होने लगी।
आंदोलन को दबाने के लिए राजा की सेना ने 20 मई, 1930 को 4 किसान नेता दयाराम, रुद्र सिंह, रामप्रसाद व जमन सिंह को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार लोगों को डी.एफ.ओ पदम दत्त रतूड़ी के साथ टिहरी भेज दिया गया।
अपने नेताओं की गिरफ्तारी की खबर सुनकर जनता का आक्रोशित होना स्वभाविक था। बड़ी संख्या में लोग अपने गिरफ्तार नेताओं के पास पहंच गये तथा गिरफ्तारी का विरोध करना शुरु कर दिया। डी.एफ.ओ पदमदत्त ने जनता पर फायरिंग कर दी जिसमें दो किसान शहीद हो गये। डी.एफ.ओ पदमदत्त मौके से भाग गया।
इस घटना ने जनता के बीच आग में घी का काम किया। आक्रेशित लोगों ने एकत्र होकर शहीद किसानों की लाशों के साथ टिहरी रियासत का राजमहल घेर लिया। जनता के आक्रोश के आगे पुलिस ने गिरफ्तार किये चारों किसान नेता रिहा कर दिये।
अत्याचारों से तंग होकर आंदोलन की आगामी रणनीति बनाने हेतु 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में एक सभा का आयोजन किया गया। अंग्रेजी हुकूमत व राजशाही ने आंदोलन के बर्बर दमन की तैयारी कर ली। राजा के सैनिकों ने सुबह से ही सभा स्थल को तीन तरफ से घेर लिया।
राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने निहत्थे लोगों पर फायरिंग का आदेश दिया। सैनिकों ने मैदान को घेरकर 3 तरफ से गोलियां बरसानी शुरु कर दीं जिसमें सैकडों लोग मारे गये। जान बचाने के लिए लोग पेड़ों पर चढ़ गये तथा यमुना की तेज धारा में कूद गये। इस दिन यमुना का जल शहीेदों के रक्त से लाल हो गया।
राजा की फौज ने दमन चक्र को आगे बढ़ाते हुए क्षेत्र में घर-घर जाकर तलाशी अभियान शुरु कर दिया। सभा में शामिल जिन्दा बचे लोगों में से 68 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। अभियुक्तों को बाहर से वकील लाकर पैरवी करने की अनुमति तक नहीं दी गयी। सभी अभियुक्तों को एक वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजाएं सुनाई गयीं। आंदोलनकारियों पर जेल में भी अत्याचार जारी रहे जिस कारण सजा काटने के दौरान 15 लोगों की जेल में ही मृत्यु हो गयी।
1947 में देश से अंगे्रजों के जाने के बाद भी टिहरी का अलग अस्तित्व बरकरार रहा। जनता के बीच में टिहरी रियासत के भारत में विलय को लेकर आंदोलन तेज हो गये। 1949 में टिहरी रियासत का भारत में विलय कर दिया गया। 'आजाद' भारत में अत्याचारी राजा को गिरफ्तार कर जेल में डालने व उसकी सम्पत्ति जब्त करने की जगह उसका मान-मनोवल किया गया, जो कि आज तक जारी है। 'आजाद' भारत के शासकों ने भी औपनिवेशक वन अधिनियम, 1927 को जस का तस बरकरार रखा।
जनता को तिलाड़ी के बलिदान के बारे में बताने से डरती हैं सरकारें
तिलाड़ी कांड के बारे में देश की सरकारों द्वारा जनता को बहुत कम बताया गया है। इसका एक बड़ा कारण यह रहा है कि 'आजाद' भारत के शासक भी अंगेजों द्वारा बनाए गये लूट के तंत्र को देश के पूंजीपति व धनी वर्ग के हित में बनाए रखना चाहते हैं। उत्तराखंड व देश में जनता को उसके जल-जंगल-जमीन के परंपरागत अधिकारों से बेदखल किया जा रहा है। तिलाड़ी से ही लगभग 90 किमी दूरी पर लोहारी में बन रही जल विद्युत परियोजना के लिए लोहरी गांव के 72 परिवारों के आशियाने बगैर जमीन के बदले जमीन दिये यमुना नदी में डुबा दिये गये हैं। देश के शासक नहीं चाहते हैं कि जनता अपने तिलाड़ी के इन अमर शहीदों के बारे में जाने और अपने हक अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्षाें के रास्ते पर आगे बढ़े। यही कारण है कि तिलाड़ी के शहीदों की कुर्बानी को इतिहास में वो स्थान नहीं मिला है जिसका वह हकदार है।
तिलाड़ी उत्तराखंड 4 धाम यात्रा के मुख्य मार्ग पर पड़ने वाले शहर बड़कोट के बिल्कुल नजदीक है। करोड़ो रुपये खर्च करके चार धाम यात्रा के लिए आॅल बैदर रोड का निर्माण करने वाली सरकार के द्वारा शहीद स्थल तिलाड़ी तकं तक जाने के लिए 5 किमी लम्बी सड़क बनाना बनाना कोई मुश्कििल काम नहीं है।