अच्छाई और बुराई परखने का सबसे अच्छा औजार है मार्क्सवाद : गौहर रज़ा

Update: 2017-12-13 12:45 GMT

मैं अपने होने का श्रेय उन शायरों उन कवियों, उन चित्रकारों, फ़िल्म निर्माताओं को दूँ जिन्होंने मेरी सोच को ढाला, या दुनियाँ के उन महान लोगों को दूँ जिन्होंने इसे बदलने के रास्ते दिखा कर मेरी पीढ़ी को प्रभावित किया। या मैं बस अपने दौर की पैदावार हूँ....

गौहर रजा, ख्यात वैज्ञानिक और शायर

अपने बारे में लिखना काफ़ी मुश्किल काम होता है। कम से कम मेरे लिए तो यह मुश्किल-तरीन कामों में से एक है। इसे आसान बनाने के लिए अपने आप से कुछ सवाल पूछने पड़ते हैं।

जैसे यह के मैं जो आज हूँ, अच्छा और बुरा भी, वो किस किस की वजह से हूँ। क्या ख़ुद को ढालने का सारा श्रय मुझे जाता है, या मेरी अम्मी और अब्बा को जाता है, या फिर उस बड़े परिवार को जाता है जहाँ मेरी परवरिश हुई, या स्कूल को जहाँ मेरे अध्यापकों ने मुझे ढालने की कोशिश की, या फिर उन लेखकों को जिनकी किताबें पढ़ कर मैं बड़ा हुआ, या मैं अपने होने का श्रेय उन शायरों उन कवियों, उन चित्रकारों, फ़िल्म निर्माताओं को दूँ जिन्होंने मेरी सोच को ढाला, या दुनियाँ के उन महान लोगों को दूँ जिन्होंने इसे बदलने के रास्ते दिखा कर मेरी पीढ़ी को प्रभावित किया। या मैं बस अपने दौर की पैदावार हूँ?

प्रश्नों की सूची लम्बी होती जाती है, इतनी लम्बी के हर सवाल बेबुनियाद लगने लगता है। लेकिन यह विश्वास के हमारा जीवन सवाल पूछने और उनके जवाब तलाश करने की कोशिश ही तो है। चाहे वो सवाल अपने जीवन के बारे में ही क्यों ना हों।

वैसे तो कोई भी सवाल ग़लत नहीं होता, जवाब ग़लत या सही हो सकते हैं। मगर सिर्फ़ सवालों में उलझ कर रह जाना ज़रूर ग़लत है, जवाब तलाश करना ही सवाल पूछने का मक़सद होना चाहिए। जब मैं 61 साल की उम्र में अपने से थोड़ा दूर खड़े हो कर अपने आप को देखने की कोशिश करता हूँ तो मुझे अपने अंदर बहुत सारी कमियां दिखाई देती हैं।

बहुत सारे ऐसे टूटे टूटे ख़्वाब दिखाई देते हैं जिन्हें मैं पूरा नहीं कर सका। ढेर सारे हारे हुए संघर्ष दिखाई देते हैं, ऐसे संघर्ष भी जो ख़ुद अपने आप से किए और ऐसे भी जो अपनी जैसी सोच रखने वाले दोस्तों के साथ मिलकर समाज को बदलने के लिए किए। ऐसे ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं जो मैं ख़ुद अपने आप को दे सकता हूँ।

मगर ऐसा भी बहुत कुछ है जो ख़ूबसूरत है, जो मेरे परिवार ने, मेरे अम्मी, अब्बा, भाई बहन, दोस्त, स्कूल, अध्यापकों, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, आईआईटी देहली, मेरे ऑफ़िस के माहौल ने मुझे दिया, और हाँ, उन दोस्तों ने भी जो विदेशों में कहीं मेरे कल्चर से बहुत दूर किसी और कल्चर में वही ख़्वाब देख रहे थे जो मेरी पीढ़ी के कुछ लोग बन रहे थे।

जॉन लेनन के गाने के शब्द हैं ‘you may say I am a dreamer, but I am not alone (तुम कह सकते हो मैं बस सपने देखता हूँ, पर मैं अकेला नहीं हूँ)। इन सब लोगों ने, जिनकी सूची हर पैदा होने वाले इंसान की अमानत होती है, ना सिर्फ़ यह यक़ीन दिलाया के मैं अकेला नहीं हूँ बल्कि मुझे ख़्वाब देखना भी सिखाया।

मैं जिस माहौल में पैदा हुआ उस में पढ़ना, पढ़ाना, आज़ादी से सवाल पूछना, ख़्वाब देखना और उन्हें पूरा करने की कोशिश करना ऐसा ही था जैसे साँस लेना। घर के माहौल में, विज्ञान और साहित्य बेहद दोस्ताना माहौल में हमारे साथ रहते थे, विज्ञान की बात हो या साहित्य की इनके शुरू होने और ख़त्म होने का कोई समय नहीं होता था।

यही हाल मार्क्सिज़म का था, उस पर बहस कब शुरू होगी और कब ख़त्म ऐसी कोई हद नहीं थी। यही वजह थी के एक तरफ़ तो विज्ञान और साहित्य से लगाव बढ़ता गया और दूसरी तरफ़ सामाजिक बुराइयों को लेकर एक ऐसा दृष्टिकोण मिला जिसने दिन ब दिन छात्रों, अध्यापकों, मज़दूरों, किसानों, दलितों के संघर्षों के क़रीब कर दिया। धीरे धीरे समाज की अच्छाईयों और बुराइयों को परखने का पैमाना बनता गया, एक ऐसा पैमाना जिसे आज भी मैं सब से बेहतर पैमाना मानता हूँ।

हर बच्चा अपने जीवन में यह सवाल ज़रूर पूछता है ‘भगवान है के नहीं’ मैं ने भी पूछा था, जब मैं सातवीं या आठवीं जमात में था। चारों तरफ़ फैली ग़रीबी, भूख और ख़ासकर वियतनाम के युद्ध ने मुझे इस नतीजे पर पहुँचाया के ‘भगवान नहीं है’ और अगर हैं भी तो मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है।

इस एक जवाब ने मुझे हमेशा के लिए हर तरह के सवाल पूछने के लिए आज़ाद कर दिया, डर और किसी समुदाए से नफ़रत से आज़ाद कर दिया। इसी जवाब ने मुझे ग़रीबी, भुखमरी, दमन, छुआछूत, नस्लवाद, फ़ासीवाद, धार्मिक कट्टरता और युद्ध से नफ़रत करना सिखाया। इसी जवाब ने मुझे एक बेहतर दुनिया, बेहतर मानवसमाज को गढ़ने की कोशिश करते रहना सिखाया। मैं आज भी यही ख़्वाब देखता हूं।

(दैनिक भास्कर से साभार)

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