जनज्वार, युवा संवाद, पीस/इंसाफ और संभव प्रकाशन के तत्वाधान में दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित किये गये कार्यक्रम में सैकड़ों लोगों ने की शिरकत...
जनज्वार, दिल्ली। दिल्ली के कान्स्टीट्यूशन क्लब में 19 अगस्त को ‘अंधविश्वास, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मीडिया की भूमिका’ विषय पर तर्कशास्त्री नरेंद्र दाभोलकर की याद में ‘अंधविश्वास विरोधी मंच’ के बैनर तले एक गोष्ठी आयोजित की गई। यह आयोजन जनपक्षधर समाचार साइट जनज्वार डॉट कॉम, युवा संवाद, इंसाफ/पीस और संभव प्रकाशन के सौजन्य से आयोजित किया गया।
कार्यक्रम की शुरुआत निशांत ग्रुप के साथियों ने 'हमारी सारी दुनिया, न देखा आसमान...' गीत से की।
उसके बाद बतौर वक्ता बोलते हुए कार्यक्रम के संचालक प्रेमपाल शर्मा ने कहा कि हिंदी पट्टी में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए तो खूब जगह है, मगर तर्कशीलता के नाम पर शहीद हुए नरेंद्र दाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे जैसे शहीदों के लिए कोई जगह नहीं है। हिंदी पट्टी के विद्वान कुछ लेख लिखकर उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। देश के अलग—अलग हिस्सों में लोग तर्कशास्त्री नरेंद्र दाभोलकर की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, उनकी लगभग 300 से ज्यादा शाखाएं वैज्ञानिकता फैलाने का काम कर रही हैं, मगर सरकार है कि काले कानूनों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं ले रही।
बुराड़ी कांड में 11 लोगों ने आत्महत्या धर्म—कर्म के नाम पर हुई। ये कितना बड़ा उपहास है कि भारत को विश्व की तीसरी बड़ी न्यूक्लियर पावर कहा जाता है, मगर दूसरी तरफ अंधविश्वास बुरी तरह पैर पसारे फैला हुआ है। इस अंधविश्वास को फैलाने में अनपढ़ों नहीं पढ़े—लिखों का समाज ज्यादा जिम्मेदार है। अंधविश्वास का एक बड़ा कारण यह है कि आज तक हमारी व्यवस्था शिक्षा के प्रति बच्चों में कोई लगाव पैदा नहीं कर पाई है, ऐसे में बच्चा पढ़ता नहीं नंबरों की होड़ में सिर्फ रटता है। रटी गई शिक्षा उसे तर्क करना नहीं सिखाती। अगर तर्कशीलता शिक्षा के रास्ते आती तो उसके सहारे अंधविश्वास से बड़ी लड़ाई लड़ी जा सकती थी।
जेएनयू की प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी ने कहा, आज सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश मॉब लिंचिंग का बड़ा उदाहरण बन चुके हैं। देश में मॉब लिंचिंग इतनी बड़ी तादाद में नरेंद्र दाभोलकर की शहादत से शुरू हुई है। तर्कशीलों पर हमला करने वाली ये ताकतें एक ही तरह की और इनका पॉलिटिकल सोर्स एक ही है। क्योंकि दाभोलकर से लेकर अग्निवेश तक हमलावरों का पैटर्न एक ही रहा है। मृदुला मुखर्जी ने आगे कहा, जेएनयू के छात्र उमर खालिद, कन्हैया पर देश विरोधी नारे लगाने का आरोप था, जिसकी वजह से उनके ऊपर हमला हुआ, लेकिन स्वामी अग्निवेश पर हमला क्यों हुआ? स्वामी अग्निवेश ने तो कोई नारे नहीं लगाए थे। अग्निवेश सिर्फ इंसानियत पर बोलते हैं, मानवता पर बोलते हैं इसीलिए उनपर हमले होते हैं। कुछ लोग उनकी इस बात को नहीं मानते हैं, जिसकी वजह से उनको शिकार बनाया जाता है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक प्रो. पैट्रिक दास गुप्ता ने कहा कि यह अजब संयोग है कि आज के ही दिन 150 साल और 1 दिन पहले 1868 में सूर्यग्रहण लगा था तो भारत के गुंटूर में दो वैज्ञानिकों ने हीलियन की खोज की थी। ग्रहों का प्रभाव कभी भी शरीर पर नहीं पड़ता। इस तरह का अंधविश्वास वेदों में भी नहीं है। एस्ट्रोलॉजी ग्रीस से भारत में आया। उससे पहले शायद ही कहीं ग्रहों के प्रभाव का उल्लेख हो। हमारे यहां आर्यभट्ट सबसे पुराना एस्ट्रोलोजर था। अगर भारत को हमें उन्नत और गौरवशाली बनाना है तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। बगैर विज्ञान और तकनीकी के कोई देश उन्नति नहीं कर पाया है।
सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश जोकि हाल में दो बार बुरी तरह मॉब लिंचिंग के शिकार हुए हैं, उन्हें देश पर राज कर रही भाजपा के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह उन्हें अपना निशाना बनाया है, उसके बाद भी वो डरे नहीं है। कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि जो घटनाएं देश में हो रही हैं उससे निपटने के लिए वैचारिक क्रांति की सख्त जरूरत है। आज के आयोजन में जिस तादाद में लोग पहुंचे हैं उससे उम्मीद जगती है। जो ताकतें आज हम सबको मजबूर कर रही हैं, डरा—धमका रही हैं वो फासीवादी ताकतें हैं। प्रधानमंत्री मोदी को आड़े हाथों लेते हुए उनके नेपाल में मंदिर जाने पर भी हमला बोला। कहा कि तुम्हें पंडागिरी ही करनी है तो वहीं करो हम देश संभाल लेंगे। अखलाक़, जुनैद, उमर खालिद और खुद पर हुए हमले पर स्वामी ने कहा कि अब हमें एक साथ खड़ा होना पड़ेगा और बगावत करनी पड़ेगी, जिससे देश की जनता अपना हक पा सके।
स्वामी अग्निवेश ने कहा, देश में शासन कर रही पार्टी का लक्ष्य है कि समाज को साम—दाम—दंड—भेद किसी भी तरीके से जड़ता की तरफ ले जाना है, ताकि इसे शोषण और विषमता का हथियार बनाया जा सके। अगर आम इंसान जागरूक हो गया जोकि गुलाम भी है तो उसे गुलामी का अहसास मत होने दो। उसे भाग्य, कर्मफल, धर्म की चाशनी खिलाकर गुलामी का स्वाद लेने दो, ताकि उसमें लड़ने की उर्जा न आने पाए। ये यथास्थितिवादी ताकतें आम इंसान का दिमाग कुंद कर रही हैं, उसी का नतीजा हैं इतनी भारी पैमाने पर हो रही मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं। राज, मठ और सेठ मिलकर अंधविश्वास को बढ़ाते हैं, क्योंकि यही तीनों मिलकर इसकी फसल काटते हैं। आज सबसे बड़ी लड़ाई जन्मना जातिवाद से लड़ना है, अगर हमने इसे जीत लिया तो अंधविश्वास के खिलाफ बृहद पैमाने पर लड़ाई लड़ी जा सकती है।
इतिहासकार शम्सुल इस्लाम ने कहा कि वेद अंधविश्वास पैदा करते हैं। आमतौर पर सारे धार्मिक स्ट्रक्चर अंधविश्वास को जन्म देते हैं। हमारे यहां 88 रेलवे स्टेशनों और 100 बस स्टेशनों पर गीता प्रेस की किताबें बिकती हैं और सब जानते हैं कि गीता प्रेस की किताबों से ढोंग—पाखंड, जादू—टोने जैसे तमाम अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलता है। यह सब शासन—प्रशासन की शह पर हो रहा है। जहां जहां आर्य समाज का आधार रहा है वहां वहां आरएसएस का प्रभाव रहा है, हिंदुत्व का ऐसी तमाम जगहों पर बोलबाला है। हिंदू ठेकेदारों द्वारा मुस्लिम धर्म की बुराइयां और मुस्लिमों से हिंदुओं की बुराइयां आम हैं मगर कहीं भी ये लोग समाज में बराबरी लाने का काम नहीं कर रहे हैं।
प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा, नास्तिकता पर बहस चलाकर हम बहुत लाभ नहीं ले सकते, क्योंकि नास्तिकता इस बात की गारंटी नहीं है कि आपमें मनुष्यता भी है। मनुष्यता की सबसे बड़ी निशानी जनतांत्रिक होना है। दूसरी तरफ अड़ियलपन के साथ वैज्ञानिकता का कोई मेल नहीं है, आज सबसे बड़ी आवश्यकता विचारों के खुलेपन और जनतांत्रिकता की है।
वैज्ञानिक सुरजीत ने अपने कुछ संस्मरणों के माध्यम से अंधविश्वास और आम लोगों जोकि अनपढ़ हैं, के बीच व्याप्त वैज्ञानिकता के बारे में बताया। साथ ही कहा कि आज सत्ता व्यवस्था लोगों के बीच से वैज्ञानिकता और सोचने—समझने की क्षमता को खत्म करने के लिए डार्विन जैसे महान वैज्ञानिक को स्कूली बच्चों के कोर्स से खत्म करना चाहती है।
लेखक सिद्धार्थ ने अंधविश्वास और जाति व्यवस्था पर बात रखते हुए कहा समाज में नरेंद्र दाभोलकर जैसे तर्कशास्त्रियों के शिष्य पैदा करने की कोशिश होनी चाहिए। 20—25 सालों से देखता—मानता हूं कि हमारे देश ही नहीं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे बड़ा अंधविश्वास है जाति। न्याय की सर्वोच्च व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट जहां सबसे ज्यादा बौद्धिक लोग बैठते हैं, यहां के बार एसोसिएशनों के चुनावों तक में जाति लोगों का चुनाव करती है। गुजरात जहां से हमारे प्रधानमंत्री आते हैं वहां के बारे में एक रिसर्च आई है कि 90.2 फीसदी मंदिरों में अछूतों का प्रवेश वर्जित है, क्या यह अंधविश्वास नहीं है। वहां के एक भी स्कूल में कोई दलित रसोइया नहीं है। और हम ये कैसी समाज निर्मित कर रहे हैं कि दलित के हाथ का खाना खाने से बच्चे भी मना कर देते हैं। जाति को हटाये बिना किसी तार्किकता या वैज्ञानिकता को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
सामाजिक कार्यकर्ता विक्रम प्रताप ने कहा आज तमाम चैनल बाबाओं का पाखंड परोस रहे हैं। बाबा शालीनता के साथ अंधविश्वास का जाल फैला रहे हैं। कुल मिलाकर हमारे समाज में अंधविश्वास लोगों के मन में रोपा जा रहा है। साथ ही कई किस्सों के माध्यम से उन्होंने पढ़े—लिखे समाज में व्याप्त अंधविश्वास को भी उजागर किया।
पत्रकार अजय प्रकाश ने कहा, असल मोर्चा हमें राजनीतिक अंधविश्वास के खिलाफ लेना है, क्योंकि बाकि सभी अंधविश्वास इसी की पीठ पर सवार हो मौज में हैं। ताबीज, झाड़—फूंक, टोना—टोटका, भूत—जिन्न, कर्मकांड और टीवी व मंचों पर बाबाओं का ज्ञान और तर्क व विवेक के खिलाफ उनका भस्मासुरी अवतार कबका खत्म हो चुका होता, लेकिन 71 वर्षों की आजादी में अंधविश्वास ने अपने को संस्थागत बना लिया है, उसने गांवों होते हुए देश पर कब्जा कर लिया और क्षेत्र और जाति के दुराग्रहों, अंधविश्वासों को राष्ट्रीय बना भारतीयता करार दी है, क्योंकि हमारी राजनीति ही अंधविश्वास की सबसे बड़ी पोषक है और सबसे बड़ी लाभार्थी भी।
हमारे देश में राष्ट्र का सबसे बड़ा मसला गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, पर्यावरण, बेटियों की हत्या उन पर हिंसा, जातीय फसाद और सांप्रदायिक व वैचारिक तबाही नहीं है, बल्कि एक अंधविश्वास इस देश का राष्ट्रीय मुद्दा है। और वह अंधविश्वास है 'गाय हमारी माता है।' हमारी अपनी माताएं जिनके गर्भ से हम पैदा हुए, भले ही इस देश के विकास ने उन्हें हमसे हजारों मील दूर ढकेल दिया हो, भले ही हमारी माताएं दो भाइयों के बीच झूला बन जाएं, भले ही इस देशों करोड़ों बेटों की माताएं 50 का उम्र पार करते—करते भुखमरी और कम भोजन से मर जाएं, वह सब हमें मंजूर है पर हमें जो मंजूर नहीं है वह है गाय को गाय न समझना, उसे माता मान लेना।
अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, महाराष्ट्र की ओर से आए तीन सदस्यों में से एक डाॅ सविता शेटे ने नरेंद्र दाभोलकर द्वारा अंधविश्वास के खिलाफ खड़े किए गए इस आंदोलन के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि हम देशभर के सैकड़ों स्कूलों के लाखों विद्यार्थियों के बीच जाकर अंधविश्वास के खिलाफ जागरूकता फैलाने में लगे हैं, जिसकी शुरुआत डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने की थी।
पूर्व राजदूत अनूप मुदगल और पीस/इंसाफ से जुड़े वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अनिल चौधरी ने भी अंधविश्वास के खिलाफ व्यापक और सिलसिलेवार संघर्षों पर जोर दिया।
कार्यक्रम में अरविंद गौड़ के निर्देशन में अस्मिता थियेटर ग्रुप के लगभग 3 दर्जन युवा साथियों का अंधविश्वास के खिलाफ किया गया नाटक बहुत प्रभावकारी रहा। इसी के साथ तर्कशास्त्री नरेंद्र दाभोलकर जिनकी याद में यह आयोजन किया गया, उनके द्वारा स्थापित अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति के साथियों द्वारा बाबाओं के चमत्कारों को लेकर किए गए डेमोस्ट्रेशन को दर्शकों ने सबसे ज्यादा सराहा। आजकल ढोंगी—साधुओं द्वारा जिस तरह से चमत्कार और जादू के नाम पर लोगों को हाथ की सफाई और विज्ञान के सहारे ठगा जाता है, उसका भी नमूना माधव बावगे ने श्रोताओं को दिखाया और सचेत किया कि ऐसी ठगी से खुद और अपनी नई पीढ़ियों को बचायें।
कार्यक्रम का संचालन जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर ए.के. अरुण ने सभी वक्ताओं की भागीदारी का ख्याल रखते हुए बखूबी संभाला।