चिपको आंदोलन : जब पहाड़ की मातृशक्ति ने ललकारा पेड़ों से पहले काटना होगा हमें

Update: 2018-03-26 11:33 GMT

आज भी बरकरार है गौरा के चिपको आंदोलन (अंग्वाल) की चमक

जंगलों को बचाने के लिए चलाया गया था चिपको आंदोलन इतिहास में दर्ज है। चिपको वूमन के नाम से ख्यात गौरा देवी की अगुवाई में उत्तराखण्ड के अलकनंदा घाटी के मंडल गांव से 1974 से शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे—धीरे पूरे संयुक्त उत्तर प्रदेश में फैल गया था। महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए उनसे लिपट जाती थीं, इसलिए इसका नाम चिपको आंदोलन पड़ा। 

आज गूगल ने भी डूडल बनाकर चिपको आंदोलन की 45वीं सालगिरह पर उसे याद किया है। आइए पढ़ते हैं चिपको आंदोलन की सालगिरह पर उत्तराखण्ड के जनसरोकारों से जुड़े पत्रकार संजय चौहान का विशेष लेख

में गौरा का अंग्वाल (चिपको आन्दोलन) हूँ। मैंने विश्व को अंग्वाल के जरिये पेड़ों को बचाने और पर्यावरण संरक्षण का अनोखा मंत्र दिया। जिसके बाद पूरी दुनिया मुझे चिपको के नाम से जानने लगी। मेरा उदय सत्तर के दशक के प्ररारम्भ में विकट व विषम परिस्थितियों में उस समय हुआ जब गढ़वाल के रामपुर- फाटा, मंडल घाटी से लेकर जोशीमठ की नीति घाटी के हरे भरे जंगलों में मौजूद लाखों पेड़ों को काटने की अनुमति शासन और सरकार द्वारा दी गई।

इस फरमान ने मेरी मातृशक्ति से लेकर पुरुषों को उद्वेलित कर दिया था, जिसके बाद मेरे सूत्रधार चंडी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह बिस्ट, वासवानंद नौटियाल, गोविन्द सिंह रावत, तत्कालीन गोपेश्वर महाविद्यालय के छात्र संघ के सम्मानित पधादिकारी सहित सीमांत की मातृशक्ति और वो कर्मठ, जुझारू, लोग जिनकी तस्वीर आज इतने सालों बाद भी मेरी मस्तिष्क पटल पर साफ़ उभर रही है ने मेरी अगुवाई की। मेरे लिए गौचर, गोपेश्वर से लेकर श्रीनगर, टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी में गोष्ठियों का आयोजन भी किया गया। अप्रैल 1973 में पहले मंडल के जंगलों को बचाया गया और फिर रामपुर फाटा के जंगलो को कटने से बचाया गया, जो मेरी पहली सफलता थी।

इसके बाद सरकार मेरे रैणी के हर भरे जंगल के लगभग 2500 पेड़ों को हर हाल में काटना चाहती थी, जिसके लिए साइमन गुड्स कंपनी को इसका ठेका दे दिया गया था। 18 मार्च 1974 को साइमन कम्पनी के ठेकेदार से लेकर मजदूर अपने खाने पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए थे।

24 मार्च को जिला प्रसाशन द्वारा बड़ी चालकी से एक रणनीति बनाई गई, जिसके तहत मेरे सबसे बड़े योद्धा चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य को जोशीमठ-मलारी सड़क में कटी भूमि के मुवाअजे दिलाने के लिए बातचीत हेतु गोपेश्वर बुलाया गया। जिसमें यह तय हुआ की सभी लोगों के 14 साल से अटके भूमि मुवाअजे को 26 मार्च के दिन चमोली तहसील में दिया जायेगा। वहीं प्रशासन नें दूसरी और मेरे सबसे बड़े सारथी गोविन्द सिंह रावत को जोशीमठ में ही उलझाए रखा, ताकि कोई भी रैणी न जा पाये। 25 मार्च को सभी मजदूरों को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया।

26 मार्च 1974 को रैणी और उसके आस पास के सभी पुरुष भूमि का मुवाअजा लेने के लिए चमोली आ गए और गांव में केवल महिलायें और बच्चे, बूढ़े मौजूद थे। अपने अनुकूल समय को देखकर साइमन कम्पनी के मजदूर और ठेकेदारों ने रैणी के जंगल में धावा बोल दिया। जब गांव की महिलाओं ने मजदूरों को बड़ी बड़ी आरियाँ और कुल्हाड़ी सहित हथियारों को अपने जंगल की और जाते देखा तो उनका खून खौल उठा।

वो सब समझ गए की इसमें जरुर कोई बड़ी साजिश की बू आ रही है। उन्होंने सोचा की जब तक पुरुष आते हैं, तब तक तो सारा जंगल नेस्तानाबुत हो चुका होगा। ऐसे में मेरे रैणी गांव की महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरा देवी ने वीरता और साहस का परिचय देते हुये गांव की सभी महिलाओं को एकत्रित किया और दरांती के साथ जंगल की और निकल पड़े।

सारी महिलायें पेड़ों को बचाने के लिए ठेकदारों और मजदूरों से भिड गईं। उन्होंने किसी भी पेड़ को न काटने की चेतावनी दी। काफी देर तक महिलायें संघर्ष करती रहीं। इस दौरान ठेकेदार ने महिलाओं को डराया धमकाया, पर महिलाओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने कहा ये जंगल हमारा मायका है, हम इसको कटने नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े।

महिलाओं की बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ, जिसके बाद सभी महिलायें पेड़ों पर अंग्वाल मारकर चिपक गई और कहने लगीं की इन पेड़ों को काटने से पहले हमें काटना पड़ेगा। काफी देर तक महिलाओं और ठेकेदार मजदूरों के बीच संघर्ष चलता रहा। आखिरकार महिलाओं की प्रतिबद्दता और तीखे विरोध को देखते हुये ठेकदार और मजदूरों को बेरंग लौटना पड़ा। और इस तरह से महिलाओं ने अपने जंगल को काटने से बचा लिया।

देर शाम को जब पुरुष गांव पहुंचे तो तब जाकर उन्हें इसका पता लगा। तब तक मैं अंग्वाल की जगह चिपको के नाम से जानी जाने लगी थी। उस समय आज के जैसा डिजिटल का जमाना नहीं था, लेकिन इसकी गूंज अगले दिन तक चमोली सहित अन्य जगह सुनाई देने लगी थी। लोग मेरी धरती की और आने लगे थे।

मेरी अभूतपूर्व सफलता में 30 मार्च को रैणी से लेकर जोशीमठ तक विशाल विजयी जुलुस निकाला गया, जिसमें सभी पुरुष और महिलायें परम्परागत परिधानों और आभूषणों में लकदक थे। साथ ही ढोल दमाऊ की थापों से पूरा सींमात खुशियों से सरोबोर था। इस जलसे के साक्षी रहे हुकुम सिंह रावत जी कहते है की ऐसा ऐतिहासिक जुलूस प्रदर्शन आज तक नहीं देखा गया। वो जुलूस अपने आप में अभूतपूर्व था। जिसने सींमात से लेकर दुनिया अपना परचम लहराया था।

मैं आज 44 बसंत पार कर चुका हूँ। इन 44 बरसों में मेरी चमक रैणी के गांव से लेकर पूरे विश्व में बढ़ी है। पेड़ो की रक्षा एवं पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से शुरू हुआ मेरा यह आन्दोलन 44 साल बाद भी अपनी चमक बिखेरे हुये है। आज के इस दौर में मेरी प्रासंगिकता उस दौर की तुलना में कहीं अधिक बढ़ी है।

लेकिन आज जब इतने सालों का आकलन करता हूँ तो मुझे महसूस होता है कि लोग मेरे मूल मंत्र पर्यावरण संरक्षण को भूल रहे हैं। धरातलीय कार्य को महत्व नहीं दिया जा रहा है। मौसम चक्र में बदलाव, बढता पर्यावरणीय असुंतलन, अनियोजित विकास के लिए जंगलों का अंधाधुंध कटान, मेरे मायके चमोली से लेकर पूरे पहाड़ में दर्जनों जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण।

बिगत बरसों में प्रलयकारी आपदा का सम्बन्ध कहीं न कहीं मेरी धरातलीय उपेक्षा का ही परिणाम है। यदि मुझे लेखों से दूर असली धरातल पर पहुँचाने के लिए अमलीजामा पहनाया जाय तो तब कही जाकर मेरी सार्थकता सफल हो पाएगी। मैंने 44 बरसों में लोगों को काफी कुछ दिया और कभी भी अपने लिए कुछ नहीं मांगा। मैं चाहता हूं कि यदि मेरी जन्मभूमि रैणी गांव में उत्तराखंड के लिए प्रस्तावित हिमालय पर्यावरण विश्वविद्यालय (केंद्र सरकार द्वारा पूर्व में घोषणा) को सरकारों की आपसी सहमति से खोला जाता है तो मेरी आने वाली पीढ़ी को मेरे बारे में और पहाड़ को बेहद करीब से जानने का मौका मिलेगा, साथ ही मेरी सार्थकता भी सफल होगी।

मेरी सफलता में मात्रशक्ति के इस गीत का भी अहम योगदान रहा है, जिसे मातृशक्ति अक्सर गाती थी :
चिपका डाल्युं पर न कटण द्यावा,
पहाड़ो की सम्पति अब न लुटण द्यावा।
मालदार ठेकेदार दूर भगोला,
छोटा- मोटा उद्योग घर मा लगुला।
हरियां डाला कटेला दुःख आली भारी,
रोखड व्हे जाली जिमी-भूमि सारी।
सुखी जाला धारा मंगरा, गाढ़ गधेरा,
कख बीठीन ल्योला गोर भेन्स्युं कु चारू।
चल बैणी डाली बचौला, ठेकेदार मालदार दूर भगोला ।..

चिपको आन्दोलन के 44 बरस पूरे होने पर ये आलेख मेरी और से चिपको की मूल अवधारणा पेड़ो को बचाने और पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ गौरा देवी, बाली देवी, चंडी प्रसाद भट्ट, गोविन्द सिंह रावत, आनंद सिंह बिष्ट, हयात सिंह बिष्ट, वासुवानंद नौटियाल सहित चिपको के सभी सच्चे सिपाही (जो आज भी दुनिया की नजरों से ओझल है) जिन्होंने दिन रात एक करके चिपको को उसके मुकाम तक पहुचाया है, के संघर्ष की गाथा को समर्पित है।

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