कांग्रेस गठबंधन से बाहर होकर न सिर्फ बीजेपी के अगड़ी जाति की पहचान को खत्म करेगी, बल्कि जो छोटे दल सपा-बसपा-आरएलडी के साथ नहीं हैं, उन्हें कांग्रेस अपने साथ समेट कर मोदी-शाह के किसी भी सोशल इंजिनियरिंग के फार्मूले को चुनावी जीत तक पहुंचने ही नहीं देगी।
वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी की तल्ख टिप्पणी
इस बार एक फरवरी को बजट पेश कौन करेगा, जब वित्त मंत्री कैंसर के इलाज के लिये न्यूयार्क जा चुके हैं। क्या 31 जनवरी को पेश होने वाले आर्थिक समीक्षा के आंकडे मैनेज होंगे, जिसके संकेत आर्थिक सलाहकार के पद से इस्तीफा दे चुके अरविंद सुब्रहमण्यम ने दिये थे। क्या बजटीय भाषण इस बार प्रधानमंत्री ही देंगे और आर्थिक आंकड़े स्वर्णिम काल की तर्ज पर सामने रख जायेंगे।
आम चुनाव से पहले संसद के भीतर मोदी सत्ता की तरफ से पेश देश के आर्थिक हालातों को लेकर दिया गया भाषण आखिरी होगा। इसके बाद देश उस चुनावी महासमर में उतर जायेगा, जिस महासमर का इंतजार तो हर पांच बरस बाद होता है लेकिन इस महासमर की रोचकता 1977 के चुनाव सरीखी हो चली है।
याद कीजिये 42 बरस पहले कैसे जेपी की अगुवाई में बिना पीएम उम्मीदवार के समूचा विपक्ष एकजुट हुआ था और तब के सबसे चमकदार और लोकप्रिय नेतृत्व को लेकर सवाल इतने थे कि जगजीवन राम जो की आजाद भारत में नेहरू की अगुवाई में बनी पहली राष्ट्रीय सरकार में सबसे युवा मंत्री थे, वो भी कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी में शामिल हो गये।
1977 में कांग्रेस से कहीं ज्यादा इंदिरा गांधी की सत्ता की हार का जश्न ही देश में मनाया गया था और संयोग ऐसा है कि 42 बरस बाद 2019 के लिये तैयार होते के सामने बीजेपी की सत्ता नहीं बल्कि मोदी की सत्ता है। यानी जीत हार बीजेपी की नहीं मोदी सत्ता की होनी है, इसीलिये तमाम खटास और तल्खी के माहौल में भी राहुल गांधी स्वास्थ्य लाभ के लिये न्यूयार्क रवाना होते अरुण जेटली के लिये ट्विट कर रहे हैं।
तो क्या मोदी सत्ता को लेकर ही देश की राजनीतिक बिसात हर असंभव राजनीति को नंगी आंखों से देख रही है। इस राजनीति में इतना पैनापन आ गया है कि यूपी में सपा-बसपा के गठबंधन में कांग्रेस शामिल न हो, इसके लिये तीनो दलों ने मिलकर महागठबंधन को दो हिस्सों में बांट दिया, जिससे बीजेपी के पास कोई राजनीतिक जमीन ही नहीं है।
यानी कांग्रेस गठबंधन से बाहर होकर न सिर्फ बीजेपी के अगड़ी जाति की पहचान को खत्म करेगी, बल्कि जो छोटे दल सपा-बसपा-आरएलडी के साथ नहीं हैं, उन्हें कांग्रेस अपने साथ समेट कर मोदी-शाह के किसी भी सोशल इंजिनियरिंग के फार्मूले को चुनावी जीत तक पहुंचने ही नहीं देगी।
ध्यान दें तो 2014 में सत्ता बीजेपी को मिलनी ही थी तो बीजेपी के साथ गठबंधन के हर फार्मूले पर छोटे दल तैयार थे, लेकिन 2019 की बिसात में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के हालात बताते हैं कि गठबंधन के धर्म तले मोदी-शाह अलग थलग पड़ गये हैं। सबसे पुराने साथी अकाली- शिवसेना से पटका पटकी के बोल के बीच रास्ता कैसे निकलेगा, इसकी धार विपक्ष के राजनीतिक गठबंधन पर जा टिकी है।
दूसरी तरफ गठबंधन बीजेपी को देख कर नहीं, बल्कि मोदी सत्ता के तौर तरीकों को देख कर बन रहा है। इस मोदी सत्ता का मतलब बीजेपी सत्ता से अलग क्यों है, इसे समझने से पहले गठबंधन का देशव्यापी चेहरा परखना जरूरी है। टीडीपी कांग्रेस का गठबंधन उस आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में हो रहा है, जहां कभी कांग्रेस और चन्द्रबाबू में छत्तीस का आंकड़ा था। झारखंड में बीजेपी के साथ जाने के आसू भी तैयार नहीं है और झामुमो-आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन बन रहा है।
बिहार-यूपी में मांझी, राजभर, कुशवाहा, अपना दल, आरजेडी और कांग्रेस की व्यूहरचना मोदी सत्ता के इनकाउंटर की बन रही है। यही हालात महाराष्ट्र और गुजरात में है जहां छोटे छोटे दल अलग अलग मुद्दों के आसरे 2014 में बीजेपी के साथ थे, वह मोदी सत्ता को ही सबसे बड़ा मुद्दा मानकर अब अलग व्यूहरचना कर रहे हैं, जिसके केन्द्र में कांग्रेस की बिसात है। वह पहली बार लोकसभा चुनाव और राज्यों के चुनाव में अलग अलग राजनीति करने और करवाने के लिये तैयार है।
यानी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राज्य चुनाव के अपने ही दुश्मनों से हाथ मिला रही है और कांग्रेस विरोधी क्षत्रप भी अपने अस्तित्व के लिये कांग्रेस से हाथ मिलाने को तैयार हैं। मोदी सत्ता के सामने ये हालात क्यों हो गये इसके उदाहरण तो कई दिये जा सकते हैं, लेकिन ताजा मिसाल सीबीआई हो तो उसी के पन्नों को उघाड़ कर हालात परखें।
आलोक वर्मा को जब सीबीआई प्रमुख बनाया गया तो वह मोदी सत्ता के आदमी के थे और तब कांग्रेस विरोध कर रही थी। उस दौर में सीबीआई ने मोदी सत्ता के लिये हर किसी की जासूसी की। न सिर्फ विपक्ष के नेताओं की बल्कि बीजेपी के कद्दावर नेताओं की भी जासूसी सीबीआई ने ही की और सच तो यही है कि बीजेपी के ही हर नेता-मंत्री की फाइल जिसे सियासी शब्दों में नब्ज कहा जाता है, वह पीएमओ के टेबल पर रही। इससे एक वक्त के कद्दावर राजनाथ सिंह भी रेंगते दिखायी पड़े।
किसी भी दूसरे नेता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह कुछ भी बोल सके। यानी यशंवत सिन्हा यूं ही सडक-चौराहे पर बोलते नहीं रहे कि बीजेपी में कोई है नहीं जो मोदी सत्ता पर कुछ बोल पाये। दरअसल इसका सच दोहरा है। पहला, हर किसी की नब्ज मोदी सत्ता ने पकड़ी और दूसरा राजनीतिक सत्ता किसी भी नेता में इतनी नैतिक हिम्मत छोड़ती नहीं कि वह सत्ता से टकराने की हिम्मत दिखा सके। इसमें मदद सीबीआई की जासूसी ने ही की।
सीबीआई की जासूसी करने कराने वाले ताकतवर न हो जाये इसलिए आलोक वर्मा के समानांतर राकेश आस्थाना को ला खड़ा कर दिया गया। फिर इन दोनों पर नजर रखे देश के सुरक्षा सलाहकार की भी जासूसी हो गई। एक को आगे बढाकर दूसरे से उसे काटने की इस थ्योरी में सीवीसी को भी हिस्सेदार बना दिया गया। यानी सत्ता के चक्रव्यूह में हर वह ताकतवर संस्थान को संभाले ताकतवर शख्स फंसा, जिसे गुमान था कि वह सत्ता के करीब है और वह ताकतवर है।
जाहिर है इस खेल से विपक्ष साढ़े चार बरस डरा-सहमा रहा। सत्ताधारी भी अपने अपने खोल में सिमटे रहे, लेकिन विधानसभा चुनाव के जनादेश ने जब बीजेपी का बोरिया-बिस्तर तीन राज्यों में बांध दिया तो फिर सीबीआई जांच के बावजूद अखिलेश यादव का डर सीबीआई से काफूर हो गया। केंद्रीय मंत्री गडकरी उस राजनीति को साधने लगे, जिस राजनीति के तहत उन्हें अध्यक्ष पद की कुर्सी अपनों के द्वारा ही छापा मरवाकर छुड़वा दी गई थी।
धीरे धीरे ईमानदारी के वह सारे ऐलान बेमानी से लगने लगे, जो 2014 में नैतिकता का पाठ पढाकर खुद को आसमान पर बैठाने से नहीं चूके थे। राफेल की लूट नये सिरे से सामने ये कहते हुये आई कि डिसाल्ट कंपनी जेनरेशन टू राफेल की कीमत जेनेरेशन थ्री से कम में फ्रांस सरकार को जब बेच रही है तो फिर भारत ज्यादा कीमत में जेनरेशन थ्री राफेल कैसे खरीद रहा है। इसीलिये 2019 में बजट को लेकर संसद का आखरी भाषण जिसे देश सुनना चाहेगा, वह इकोनॉमी को पटरी पर लाने वाला होगा या सत्ता की गाड़ी पटरी पर दौडती रहे, इसके लिये इकोनॉमी को पटरी से उतार देगा। वह भाषण कौन देगा ये अभी सस्पेंस है?
जेटली अगर न्यूयार्क से नहीं लौटते तो वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ला या पी राधाकृष्णन में इतनी ताकत नहीं कि वह भाषण से सियासत साध लें। फिर सिर्फ भाषण के लिये पीयूष गोयल वित्त मंत्री प्रभारी हो जायेंगे, ऐसा संभव नहीं है। तो क्या बजट प्रधानमंत्री मोदी ही रखेंगे, ये सवाल तो है?