एक बनारसी की निगाह में मोदी का बनारस दौरा

Update: 2018-03-13 19:35 GMT

आप लोगों को दिल से बता रहे हैं, हर बार मोदी के आने पर शहर को दुल्हन की तरह सजाया जाता है और जाने के बाद बेवा की मांग की तरह एक झटके में जैसे उजाड़ दिया जाता है, बहुत ही तकलीफ होती है, एकदम से अंदर से सुलग जाता है...

बनारस के घाटों से लौटकर घनश्याम

हमें बचपन में दौरे का एक ही मतलब आता था, वह थी मिर्गी। जब मेरे गांव में लोग कहते थे कि फलां को दौरा पड़ा है तो लोग एक ही राय देते थे, 'अरे त जुता सुंघावा, दौरा उतर जाई।'

उस दौर से लेकर इस दौरे तक के बीच मेरी उम्र 50 पार कर गयी है और अब दौरा नेताओं को आता है, आम लोगों को नहीं। यह दीगर बात है कि नेताओं के दौरों पर पूरे शहर को मिर्गी आ जाती है, हर तरफ बेचैनी रहती है, सब कुछ उजाड़कर नया बसा दिया जाता है और हम अपना जूता लिए यहां—वहां तब तक फिरते रहते हैं, जबतक नेता का दौरा न पूरा हो जाए।

पर तब में और अब में अंतर बस इतना हुआ है कि हम सुंघा नहीं पाते!

इस बार भी ऐसा ही हुआ। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और हमारे प्रधानमंत्री के आने से पहले उस हर क्षेत्र की सड़कें और बाशिंदे छेड़े गए, उजाड़े गए, जिन रास्तों से हमारे देश के शहंशाह और एक और घलुआ में आए शहंशाह को भ्रमण पर जाना था।

क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री का बनारस दौरा था इसलिए हम बनारस वाले 'देशद्रोही' बन घरों में दुबके थे। बाहर निकलते तो फ्रांस वाले को वैसा भारत नहीं दिखता जैसा मोदी जी दिखाना चाहते थे। इसलिए हमारा शहर एक दिन के लिए मोदी जी ने अपहरण करा दिया था। वह पहले भी कई बार ऐसा करा चुके हैं।

अब वह चले गए हैं और उन्होंने हमारे शहर को जस का तस छोड़ दिया है। अब हम लोग वापस घरों से बाहर निकले थे। साथ में जीजा और दीदी भी थे। वह लोग बनारस घूमना चाहते थे।

अस्सी से लेकर दशाश्वमेध घाट तक गया। कल मैंने जो रौनक टीवी में देखी थी, आज वह उजड़ा दयार जैसा लग रहा था। अस्सी से लेकर दशाश्वमेध तक हमलोग घाट—घाट पैदल गए। घाटों से गुजरते हुए भारत और फ्रांस के झंडे जमीन पर गिरे पड़े थे। पैर के नीचे आते झंडे को देख मैंने एक से कहा, 'तनी इज्जत कइला', बोला — अरे तु इज्जत का कहत हउवा, इहां तीन दिन एही शान के तिरंगा के चक्कर में बोहनी नाही भएल।'

इस बीच गुजरते हुए मेरी नजर उस नाले पर पड़ी, जिस गंदगी को छुपाने के लिए मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति का बड़ा—सा कउआउट इस्तेमाल हुआ था। वहां गुजरते हुए जीजा बोले, 'ई देखा हो... मोदिया के कहां लगा देएल हुवएं सब।' पीछे से किसी ने कहा 'एही लायक हईए हवें।'

मोदी की सरकार बनी तभी एक भारी भरकम योजना की शुरूआत हुई। नाम पड़ा 'नमामी गंगे।' मंत्री थीं तब उमा भारती। कहा था अगर मैंने सालभर नहीं साफ किया तो मुंह न दिखाउंगी। पर गंगा साफ होना तो दूर, सामने घाट से लेकर राजघाट तक करीब 8 नाले तो खुले में बिना साफ किए सीधे गंगा में गिरते हैं और दर्जनों तो छुपा—छुपा कर अंडरग्राउंड बहाए जाते हैं। इनमें राजघाट वाला तेलिया नाला सबसे नामी नाला है, जो गंगा में जाकर उमा भारती की तरह शुद्ध हो जाता है।

खैर, दीदी—जीजा के साथ थे, इसलिए फिर बातचीत में लग गए। पर गदौलिया से दशाश्वमेघ घाट के बीच जिस तरह रंगाई—पुताई हुई और शहर चमकाया, उससे बड़ी बेइज्जती महसूस हुई और हर बार होती है। ये सब देखकर कई भाव मन में आते हैं।

आप लोगों को दिल से बता रहे हैं, हर बार मोदी के आने पर शहर को दुल्हन की तरह सजाया जाता है और जाने के बाद बेवा की मांग की तरह एक झटके में जैसे उजाड़ दिया जाता है, बहुत ही तकलीफ होती है, एकदम से अंदर से सुलग जाता है।

प्रधानमंत्री के जाने के बाद हमारा बनारस कुछ वैसा ही दिख रहा है जैसा ग्राहकों के जाने के बाद बनारस की दाल मंडी दिखती थी। जैसे कभी दालमंडी की गलियां शाम होते ही गुलजार होती थीं और सुबह होते उजाड़। आज जब मैं अपनी दीदी और जीजा को लेकर घाटों और शहर के बीच से गुजरा, तो कुछ वैसा ही आभास हुआ।

मन में एक टीस सी उठी कि क्या सत्ताधारियों के लिए पूरा शहर बनारस की दालमंडी बन चुका है, जो उनके लिए ही सजता है और उन्हीं लिए उजाड़ दिया जाता है।

जरा सोचिएगा! अब गाय आवाज दे रही है, जरा उसे घास—पानी दे दूं।

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